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________________ १९४ निर्मुक्तिपंचक ८२. नैगम नय के अनुसार परीषहोत्पादक द्रव्य ही परीषह है। संग्रह और व्यवहार भय के अनुसार वेदना परीषह है । ऋजुसूत्र नय जीव को परीषह मानता है क्योंकि वेदना जीव के ही होती है । शन्दनय -शब्द, समभिरून तथा एवं भूस नय आत्मा को परीषह मानते हैं। ३. एक प्राणी में एक साय उत्कृष्टरूप में बीस परीषह तथा जघन्यत: एक परीषह हो सकता है। शीत और उष्ण तथा चर्मा और निषद्या-इन दोनों युगलों में से एक साथ एक-एक परीषह ही होता है। ६४. नैगम, संग्रह और व्यवहारनय के मतानुसार परीषहों का कालमान है-वर्षों का, ऋजुसूत्र के अनुसार अन्तर्मुहूतं का और तीन शब्दनयों के अनुसार एक समय का है। ६५, सनत्कुमार चक्रवर्सी ने खाज, भोजन की अरुचि, अक्षिवेदना, कुक्षिवेदना, बासी, प्रवास और ज्वर-इन परीषहों को सात सौ वर्षों तक सहन किया।' ८६. नेगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से परीषह लोक, संस्तारक आदि स्थानों में होते हैं । शब्द, समभिद तथा एवंभूत-इन तीन शब्द नयों की अपेक्षा से परीषह आत्मा ७. गुरु का (विवक्षित विषय का सामान्य रूप से निस्पक) वचन उहेश कहलाता है। गुरुवचन के प्रति शिष्य की विशिष्ट जिज्ञासा पृच्छा कहलाती है। शिष्य के प्रश्नको उत्तरित करने वाला गुरु का निर्वचन निर्देश कहलाता है। निर्देश के अन्तर्गत बाबीस परीषहों का उल्लेख है। अब सूत्रस्पर्श अर्थात् सूथालापक का प्रसंग है। ८८,८१ बावीस परीषहों के ये उदाहरण (कथानक) है-कुमारक, नदी, लयन, मिला, पंच महल्लक, तापस, प्रतिमा, शिष्य, अग्नि, निर्वेद, मुद्गर, वन, राम, पुर, भिक्षा, संस्तारक, मन्तधारण, अंग, विद्या, श्रुत, भीम, शिष्य का आगमन । ९.. उज्जयिनी में हस्तिमित्र नाम का गाथापति रहता था। उसका पुत्र या हस्तिभूति । दोनों प्रवजित हुए । एक बार वे दोनों उज्जयिनी से भोगपुर जा रहे थे । वृद्ध मुनि भटची में क्षुधा परीषा से द्रःखी हआ। उसका प्रायोपगमन संथारे में देवलोक गमन ।' ९१. उज्जयिनी में धनमित्र वणिक् था। उसके पुत्र का नाम था धनशर्म । दोनों प्रजित हुए । एलकामपप के रास्ते में बाल मुनि ने प्यास से आर्त होने पर भी सचित्त जस नहीं पीया। तृषा परीषह सहन करते हुए वह दिवंगत हो गया।' ९२. राजगृह में चार मित्र आचार्य भद्रबाह के शिष्य बने। वे सभी एकलविहार प्रतिमा स्वीकार कर विहरण करने लगे । राजगृह में पुनरागमन । उनका भारगिरि पर्वत की गुफा में स्थित भद्रबाह के वर्मनार्थ जाना। हेमंत ऋतु में शीत परीषह को सहनकर चारों रास्ते में समाधिस्य हो गए। १. देखें परि० ६, कथा सं०. २. वही, कथा सं०२ ३. वही, कथा सं०३ ४. वही, कषा सं०४
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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