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________________ ७० नियुक्तिपंचक धर्म, अर्थ और काम की ब्णख्या बाईस गाथाओं में की है तथा अंत में धर्मार्थकाम को मुनि का विशेषण बताते हुए कहा है कि धर्म का फल मोक्ष है। साधु मोक्ष की कामना करते हैं अत: वे धर्मार्थकाम कहलाते __आचार विषयक ग्रंध होने के कारण नियुक्ति साहित्य में काव्य की भांति अलंकारों का प्रयोग नहीं है। फिर भी स्वाभाविक रूप से पाब्दालंकार और अर्थालंकार-इन दोनों अलंकारों का प्रयोग नियुक्तियों में देखने को मिलता है। अन्त्यानुप्रास के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है-- तण्हाइओ अपीओ (उनि ९१)। • जलमाल कद्दमाल (सूगि १६२)। रूपक अलंकार के प्रयोग भी यत्र तत्र देखने को मिलते हैं• अभयकरो जीवाणं, सीयघरो संजमो भवति सीतो (आनि २०७)। नियुक्तिकार ने उपभा एवं दृष्टात अलंकार का बहुलता से प्रयोग किया हैसो हीरति असहीणेहि सारही इय तुरंगेहिं (दशनि २७४) । जह खलु झुसिरं....... (आनि २३५) । • मन्नामि उच्छुफुल्ल व निष्फलं तस्स सामण्णं (दशनि २७७)। • सो बालतवरसी विव, गयण्हाणपरिस्समं कुणति (दशनि २७६) । - निद्दहति य कम्माई,सुक्कतिणाई जहा अग्गी (दशनि २८३)। छंद-विमर्श छंदशास्त्र में मुख्यत: तीन प्रकार के छंद प्रसिद्ध हैं—१. गणबंद २. मात्रिक छंद ३ अक्षरछंद। नियुक्तियां पद्यबद्ध रवना है अत: ये मात्रिक छंद के अंतर्गत आर्याछंद में निबद्ध हैं। आर्या के अतिरिक्त कही कहीं भागधिका, स्कंधक, दैतालिक, इन्द्रवज्रा, अनुष्टुप् आदि छंदों का प्रयोग भी हुआ है। आर्या छंद की अनेक उपजातियां हैं। जैसे--पथ्या, विपुता, चपला, रीति. उगीति आदि। नियुक्तिपंचक में यत्र तत्र आर्या की इन उपजातियों का प्रयोग भी मिलता है। नियुक्तिकार का मूल लक्ष्य विषय-प्रतिपादन था. किसी काव्य की रचना करना नहीं अत: उन्होंने छंदों पर ज्यादा ध्यान न देकर भावों के प्रतिपादन पर अधिक बल दिया है। छंद की दृष्टि से पश्चिमी विद्वान् डॉ. ल्यूमन ने दशवकालिक का तथा एल्पसडोर्फ ने उत्तराध्ययन का अनेक स्थलों पर पाठ-संशोधन एवं पाठ-विमर्श किया है। उन्होंने छंद तकनीक को उपकरण के रूप में काम में लिया। जेकोबी ने रुंद के आधार पर गाथा की प्राचीनता एवं अर्वाचीनता का निर्धारण किया। उनके अनुसार आर्या छंद में निबद्ध साहित्य अर्वाचीन तथा वेद छंदों में प्रयुक्त गाथाएं प्राचीन हैं। हमने पाउ-संणदन में छंद की दृष्टि से पाठभेदों पर विमर्श किया है। अनेक स्थलों पर छंद के आधार पर ही पाठ की अशुद्धियां पकड़ में आई हैं क्योंकि छंद की पति-गति आदि की अवगति के बिना गाथाओं के पाठ का शुद्ध संपादन संभव नहीं था। छंद की दृष्टि से संभाव्य पाठ का उल्लेख हमने पादटिप्पण में कर दिया है। उदाहरणार्थ उनि १४० का प्रतियों में 'राईसरिसवमित्ताणि' पाठ मिलता है। १. दशनि २४१।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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