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उत्तराध्ययन निर्यक्ति
३७८. समाधि के पार निक्षेप है. नाम, स्थापना, मध्य और मात्र । माधुये आदि गुणों से युक्त द्रव्य से जो समाधि मिलती है, वह द्रव्यसमाधि है। ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्र-यह भादसमाधि है।
३७९. स्थान शब्द के पन्द्रह निक्षेप है ... १. नामस्थान ।
९. संयमस्थान-संयम में अवस्थिति । २. स्थापनास्थान।
१०. प्रग्रहस्थान-आयुध-ग्रहण का स्थान । ३. द्रव्यस्थान ।
११. योधस्थान-युद्ध में आयुध-प्रहार हेतु की जाने वाली मुद्रा। ४. क्षेत्रस्थान-आकाश
१२. अचलस्थान- स्थिर स्था । ५. कालस्थान-समयक्षेत्र । १३. गणनास्थान-दो से शीर्षप्रहेलिका तक की गणना। ६. कर्वस्थान--कायोत्सर्ग । १४. संधानस्थान-अटित का संधान । ७. उपरतिस्थान-सर्वसावविरति । १५. भावस्थान-औयिक आदि भावों का स्थान । ८. वसतिस्थान-यतिनिवास । सतरहवां अध्ययन : पापभमगीय
३८०. पाप शब्द के छह निक्षेप है–नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रध्य के दो भेद हैं-आगमतः और नो-आगमत: । नो-आगमतः के तीन भेद है-जशरीर, भव्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त द्रण्य के तीन भेद है-सचित्त, अचित्त और मित्र ।
सचित्त द्रव्यपाप-जीवों की असुन्दरता । अचित्त द्रव्यपाप -चौरासी पाप प्रकृतियां । मिश्र द्रव्यपाप-पापप्रकृति युक्त जीव । शेषपाप-नरक आदि पाप-प्रकृति का उदयभूत स्थान। कालपाप-दुष्षमादि काल, जिसके प्रभाव से पाप उदित होता है ।
३८१. हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह तथा आगमों में निरूपित मिध्यात्व आदि अगुण-ये सभी भाव पाप है।
३८२. श्रमण शब्द के पार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य श्रमण में निहव आदि का ग्रहण होता है तथा भाव श्रमण में संयमसहित शानी का समावेश होता है।
३८३. जिनेम्बर देव ने प्रस्तुत अध्ययन में जिन अकरणीय भावों का निरूपण किया है, उनका सेवन करने वाला मुनि पापश्रमण कहलाता है।
३८४. ओ सुबती ऋषि इन पापों का वर्जन करते हैं, वे पापकर्म से मुक्त होकर निर्विघ्नरूप से सिसि को प्राप्त करते हैं। अठारहवां अध्ययन : संजयीय
१८५,३८६. संजयीय शब्द के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, तथ्य और भाव। द्रव्य संजयीय के दो भेद है-बागमतः, नो-आगमतः । नो-आगमसः के तीन भेद है-शरीर, मध्यशरीर और तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के तीन भेव है-एकविक, बवायुष्क बोर भभियुकभामगोत्र।