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________________ ३.७६ १२४. भावतथ्य दो प्रकार का है— प्रशस्त तथा अप्रशस्त वैसा ही आचरण – यह प्रशस्त भावतथ्य है । यहीं याथातथ्य है। है । याथातथ्य नहीं है । १२५,१२६. आचार्य - परंपरा से जो भगत है, व्याख्यात है, उसको यदि कोई अपनी तर्कबुद्धि या निपुणबुद्धि से दूषित करता है तो वह छेकवादी - पंडितमानी जमालि निन्हव की भांति नष्ट हो जाता है, पथच्युत हो जाता है । वैसा व्यक्ति संयम और तप में पराक्रम करता हुआ भी (दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मुनि को आत्मोत्कर्ष - अहंकार का वर्जन करना चाहिए । चौदहवां अध्ययन : ग्रंथ निर्युषिक जैसा सूत्र बसा हो अर्थ और वैसा न हो तो वह जुगुत्सित १२७. ग्रंथ के विषय में पहले (उत्तराध्ययन के क्षुल्लक निग्रंथीय अध्ययन में ) कहा जा चुका है। शिष्य के दो प्रकार हैं :- प्रव्रज्या शिष्य, शिक्षा शिष्य । यहां शिक्षा शिष्य का प्रसंग है । १२८. शैक्ष दो प्रकार का होता है-प्रहणक्ष, आसेवनाशैक्ष। ग्रहणक्ष के तीन प्रकार है— सूत्रग्रहणशैक्ष, अर्थग्रहणक्ष, तदुभयग्रह्णणैक्ष १२९. आसेवनाशैक्ष के दो प्रकार हैं- मूलगुण असेवनाशैक्ष, उत्तरगुण आसेवना शैक्ष मूलगुण आसेवना शैक्ष पांच प्रकार का है ( पांच महाव्रतों के कारण ) । उत्तरगुण आसेवनाशैक्ष के बारह प्रकार हैं । १३०. आचार्य के दो प्रकार हैं- प्रव्रज्या आचार्य तथा शिक्षक आचार्य । शिक्षक आचार्य के दो प्रकार हैं- ग्रहण शिक्षा आचार्य तथा आसेचना शिक्षा आचार्यं । १३१. ग्रहणशिक्षा आचार्य के तीन प्रकार हैं-सूत्र के ग्राहक आचार्य, अर्थ के ग्राहक आचार्य तथा तदुभय ग्राहक बाचार्य | आसेवनाशिक्षा आचार्य के मूल तथा उत्तरगुण की अपेक्षा दो प्रकार हैं । पन्द्रहवां अध्ययन : आदानीय १३२. आदान तथा ग्रहण- इन दोनों शब्दों के चार-चार निक्षेप होते हैं | आदान और ग्रहण – ये एकार्थक भी हैं और अनेकार्थक भी । प्रस्तुत में आदान का प्रसंग है । १३३. प्रस्तुत अध्ययन के श्लोकों में प्रथम श्लोक का अंतिम पद दूसरे श्लोक का आदिपद होता है, इसलिए इस अध्ययन का नाम 'आदानीय' है। यह इस अध्ययन का अपर नाम है। १३४. आदि शब्द के चार निक्षेप हैं—नामजादि स्थापना आदि द्रव्यआदि तथा भावआदि । द्रव्य की अपने पर्याय में जो प्रथम परिणति विशेष होती है, वह द्रव्य आदि है । १. उनिगा ३३४-३७ । २. समवायांग में इस अध्ययन का नाम 'यमकीय' मिलता है । चूर्णिकार ने इसके दो नाम बताए हैं— आदानीय और संकलिका ( सूट २३८ ) वृतिकार ने मुख्य नाम आदानीय तथा विकल्प में यमकीय और संकलिका—ये दो नाम माने हैं । ( सूटीपृ १६९ )
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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