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________________ दणकालिक निर्मक्ति २७४. तपश्चरण करने पर भी जिस व्यक्ति की इन्द्रियां दुष्प्रणिहित (असमाहित) होती हैं, वे इन्द्रियां उसको निर्माण से दूर ले जाती हैं, जैसे- उच्छृखल अश्य सारथि को उत्पथ पर ले जाते हैं। २७४।१. अथवा दुष्प्रणिहित इंद्रिय वाला व्यक्ति मार्जार और बक के समान होता है। अप्रणिहित इंद्रिय वाला असंयमी ही होता है। २७५. क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार महाभय हैं। जो शुद्धात्मा इनका निरोध करता है, वह नोइन्द्रियाणिधि है। २७६. तपश्चरण करते हुए भी जिस व्यक्ति के कषाय दुष्प्रणिहित - अनिरुद्ध होते हैं, वह वाल-तपस्वी की भांति 'गजस्तान" जैसा परिश्रम करता है। २७७. श्रामण्य का अनुपालन करने पर भी जिस मुनि के कषाय उत्कट-तीव्र होते हैं, मैं मानता हूं कि उसका श्रामण्य इभपुष्प की भांति निरर्थक है। २७८. यदिबाह्य और आभ्यन्तर चेष्टा से इन्द्रिय तथा कषायो का सम्यग् निरोध हो जाता है तो वह दोनों प्रकार की प्रणिधि शुद्ध है। तथा जहां निरोध नहीं होता वह प्रणिधि अशुद्ध है। इस प्रकार यह प्रशस्त और अप्रशस्त का लक्षण अध्यात्म निष्पन्न अर्थात् अध्यवसान से उत्पन्न है। २७९. जो व्यक्ति माया और गौरवत्रिक से युक्त होकर इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय (मन) का निग्रह करता है, वह अप्रशस्त प्रणिधि है। जो माया और गौरवत्रिक से रहित होकर इन्द्रिय और नो-इन्द्रिय का निग्रह करता है, वह प्रशस्त प्रणिधि है। २८०, अप्रशस्त प्रणिधि में आयुक्त मुनि आठ प्रकार के कर्मों का बंधन करता है। प्रशस्त प्रणिधि में आयुक्त मुनि उन्हीं आठ प्रकार के कर्मों का क्षय कर डालता है । २८१. दर्शन, ज्ञान और चारित्र-यह संपूर्ण संयम है। संयम की साधना के लिए प्रशस्त प्रणिधि का प्रयोग करना चाहिए और उसके . अनायतन-वर्जनीय स्थानों का वर्जन करना चाहिए। २२. जैसे विश्रब्ध (निर्भीक) और निसृष्ट (शरीर के प्रति अजागरूक) व्यक्ति कंटकाकीर्ण गडे आदि में गिरकर अंग-भंग कर लेता है, वैसे ही दुष्प्रणिहित (असमाहित) संयमी संयम को नहीं जानता हुआ प्रबजित जीवन को खण्डित कर देता है। २८३. सुप्रणिहितयोगी पूर्व उल्लिखित दोषों से लिप्त नहीं होता। वह अपने कर्मों को वैसे ही भस्मसात् कर डालता है जैसे सूखे तिनकों को अग्नि । २८४. इसलिए श्रमण अप्रशस्त प्रणिधान को छोड़कर प्रशस्त प्रणिधान में प्रयत्न करे। इसीलिए आचारप्रणिधि का कथन किया गया है। १. जैसे हाथी सरोवर में स्नान करता है और तट पर आकर पुनः धूल उछाल कर अपने भारीर को धूलमय कर देता है, बसे ही वह तपस्वी तपश्चरण रूप स्नान करने पर भी अन्यान्य कारणों से प्रभूत कर्मों का अर्जन कर लेता है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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