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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४९५ पूर्व चल रहा था। तब आर्य वज्र ने एक दिन कहा-'इसके यधिक पढी। इस पूर्व का यही परिकर्म है। ये सूक्ष्म होते हैं।' आर्यरक्षित ने चौबीस यविक पढ़ लिए। आर्य वज्र उन्हें पढ़ाते रहे। इधर आर्यरक्षित के माता-पिता उनके विरह से शोकाकुल हो गए। उन्होंने सोचा- 'आर्यरक्षित कहता था कि मैं उद्योत करूंगा परन्तु उसने अन्धकार कर दिया।' उन्होंने आर्यरक्षित को बुला भेजा, फिर भी वह नहीं आया। तब उन्होंने उसके अनुज फल्गरक्षित को भेजा। उसे कहा-'तुम जाओ, आर्य वज्र के पास जो भी जाता है, उसे वह प्रजित कर देता है।' फल्गुरक्षित को इस पर विश्वास नहीं हुआ। वह गया और प्रव्रजित होकर उनके पास पढ़ने लगा। आर्यरक्षित का अध्ययन चल रहा था। वह दसवें पूर्व की यविकाओं में अत्यन्त लीन था। एक दिन उसने आर्य वज्र से पूछा-'भगवन् ! दसर्वा पूर्व कितना अवशिष्ट रहा है?' आचार्य ने बिन्दु और समुद्र तथा सर्षप और मन्दर पर्वत का दृष्टान्त देते हुए कहा...' अभी तक तुमने बिन्दु मात्र ग्रहण किया है, समुद्र जितना शेष है। यह सुनकर वह विषादग्रस्त हो गया। उसने सोचा, मेरे में वह शक्ति कहां है कि मैं इस महासमुद्र का पार पा सकू?' वह आचार्य वज्र के पास जाकर बोला---'आर्य ! मैं जा रहा हूं, मेरा यह भाई फल्गुरक्षित आ गया है।' आचार्य बोले-'अधीर मत बनो। अध्ययन करते रहो।' किन्तु वह बार-बार एक ही प्रश्न पूछता रहा। तब आचार्य वज्र ने ज्ञानोपयोग से यह जाना कि मेरा आयुष्य थोड़ा ही शेष है। अाशित पुनः वाणिस शहां नहीं अागा आत : गेरे बाट दसवें पूर्व का उच्छेद हो जाएगा। आचार्य की आज्ञा लेकर आर्यरक्षित दशपुर नगर में आ गया। उसने वहां माता, भार्या, भगिनी आदि सभी स्वजन वर्ग को दीक्षित कर दिया। जो वृद्ध पिता था, वह भी अनुरक्तिवशात् अपने प्रव्रजित स्वजनों के साथ रहने लगा। परन्तु लजावश उसने लिंग-मुनिवेश धारण नहीं किया। वह सोचता, 'मैं श्रमण कैसे बनें? यहां मेरे स्वजन हैं। मेरी बेटियां, पुत्रवधुएं, पौत्रियां आदि हैं। उनके समक्ष मैं नग्न कैसे रह सकता हूं?' वह गृहस्थ वेश में हो रहने लगा। अनेक मुनि और आचार्य उसे श्रमण बनने की बात कहते, तब वह वृद्ध कहता कि यदि मुझे युगल-वस्त्र, कमंडलु, छत्र, कया जाए तो मैं प्रवजित हो सकता हूं, अन्यथा नहीं। आर्यरक्षित ने उसे उसी रूप में प्रजित कर दिया। उन्होंने सोचा कि चरणकरण का स्वाध्याय करते समय इसका निग्रह करना चाहिए। उन्होंने कहा-'ठीक है, तुम कटिवस्त्र धारण करो।' वह स्थविर बोला-'छत्र के बिना मैं रह नहीं सकता।' उन्होंने छत्र को अनुज्ञा दे दी। पुन: उसने अपनी मांग प्रस्तुत की-'पात्र के बिना मैं उच्चार-प्रस्रवण नहीं कर सकता।' उसे कमंडलु की भी आज्ञा मिल गई। मैं ब्राह्मणचिह्न-जनेऊ रखूगा।' आर्यरक्षित ने कहा- ठीक है।' इतना रखकर उसने अवशिष्ट का त्याग कर दिया। एक बार आचार्य आर्यरक्षित चैत्य-वन्दन के लिए निकले। उन्होंने बालकों को यह सिखा दिया था कि वे इस प्रकार कहें-'हम सब बालक छत्रधारी मुनि को छोड़कर शेष सभी मुनियों को वंदना करते हैं।' यह सुनकर वृद्ध मुनि ने सोचा- ये मेरे पुत्र-पौत्र सभी वन्दनीय हैं, मैं कैसे अवन्दनीय रहूं?' वृद्ध ने उन बालकों से पूछा-'क्या मैं प्रजित नहीं हूं।' बालक बोले-'मुने ! क्या प्रव्रजित होने वाले जूते, कमंडलु, यज्ञोपवीत, छत्र आदि रखते हैं?' वृद्ध ने सोचा-'ये बालक
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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