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________________ ५६४ नियुक्तिपंचक यात्र होता है। इसलिए शुभचिंतनरूप परलोक के पाथेय को स्वीकार करें। आप समस्त मोह और आसक्ति से विलग हो जाएं। संसार में न कोई माता है, न पुत्र, न भाई और न कोई बंधु । दुःख-बहुल संसार में धन भी किसी का शरण नहीं बन सकता। एक मात्र जितेन्द्र देव का धर्म ही त्राण और शरण बन सकता है।' युगबाहु ने हाथ जोड़कर मस्तक से यह सब स्वीकार किया। शुभ अध्यवसाय से वह कुछ ही समय में देवगति को प्राप्त हो गया। चन्द्रयश विलाप करने लगा। मदनरेखा ने सोचा-'इस प्रकार के अनर्थकारी मेरे इस रूप को धिक्कार है। वह पापी मेरी इच्छा के बिना भी अवश्य मेरा शील भंग करेगा अत: यहां रहना उचित नहीं है। किसी दूसरे स्थान पर जाकर इहलोक और परलोक को सुधारूंगी अन्यथा वह पापो मेरे गर्भस्थ पुत्र को भी मार सकता है।' ऐसा सोचकर वह आधी रात के समय ही उद्यान से बाहर निकली और पूर्वदिशा में प्रस्थित हो गई। एक भयानक अटवी में उसने रात गुजारी। दूसरे दिन चलते-चलते मध्याह्न तक वह पद्मसरोवर के पास पहुंची। वन के फलों से उसने अपनी बुभुक्षा शान्त की। रास्ते की थकान से खिन्न होकर सागारिक अनशन कर वह कदली-गृह में सो गई। रात प्रारम्भ हुई। वहां व्याघ्र, सिंह, वराह आदि अनेक हिंस्र पशुओं की सनक कामें आने लगी : भदखा भाभा बढ़ा। वह नमस्कार महामंत्र का जप करने लगी। अचानक आधी रात को उसके पेट में प्रसव-वेदना हुई। अत्यन्त कष्टपूर्वक उसने सर्वलक्षणसम्पन्न एक बालक को जन्म दिया। प्रात:काल बालक को कंबल-रत्न से आवेष्टित कर युगबाहु के नाम की मुद्रिका पहनाकर वह सरोवर पर गई। कपड़ों को धोकर वह स्नान के लिए सरोवर में उत्तरी । इसी बीच जल के मध्य स्नान करते हुए एक जलहस्ती ने उसे सूंड से पकड़ा और आकाश में उछाल दिया। नियतिवश नंदीश्वरद्वीप की ओर जाते हुए एक विद्याधर ने उसे देखा। यह रूपवती है, ऐसा सोचकर करुण क्रन्दन के साथ नीचे गिरती हुई मदनरेखा को विद्याधर ने पकड़ लिया। वह उसे वैतादय पर्वत पर ले गया। रोते हए मदनरेखा ने कहा-'भो महासत्त्व! आज रात्रि में वन के मध्य मैंने प्रसव किया है। अपने पुत्र को कदलीगृह में छोड़कर मैं सरोवर में स्नान के लिए उतरी थी। जलहस्ती ने मुझे सूंड से ऊपर उछाला। इसी बीच आपने मुझे झेल लिया। बालक को कोई वन्य पशु मार न दे अथवा आहार न मिलने पर वह स्वयं न मर जाए अत: आप मुझे अपत्यदान देने की कृपा करें, व्याघात न करें। हिंस्र पशुओं से उसे बचाएं। आप मुझे शीघ्र वहां ले चलें।' विद्याधर ने कहा-'यदि तुम मुझे पति के रूप में स्वीकार करो तो तुम्हारे आदेश का पालन कर सकता हूँ।' विद्याधर बोला-'गांधार जनपद के रत्नापथ नगर में मणिचूड़ नामक विद्याधर राजा था। उसकी पत्नी का नाम कमलावती था। मैं उसका पुत्र मणिप्रभ हूं। दोनों श्रेणियों के आधिपत्य का पालन कर मणिचूड़ कामभोगों से विरक्त होकर मुझो राज्य सौंपकर चारण श्रमण के पास दीक्षित हो गया। वह अनुक्रम से विहार करता हुआ कल यहां आया था। अभी चैत्यवंदन हेतु नंदीश्वर द्वीप गया है। उसके पास जाते हुए तुम मुझे दिखलाई दी। अत: है सुन्दरी! तुम्हें सब विद्यारियों की स्वामिती बना दूंगा। मुझे तुम अपना स्वामी स्वीकार कर लो।' उसने आगे उसके पुत्र के बारे में बताते हुए कहा-'मिथिला का राजा शिकार के लिए निकला। अश्व उसे निर्जन अटवी में ले आया। अटवी में विचरण करने वाले मिथिला के राजा ने
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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