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________________ - - - - अशावतस्कंध निर्यक्ति ४१५ अर्थात् पूरे मृगसिर मास तक वहां रहा जा सकता है । यह एक क्षेत्र में वास की उत्कृष्ट कालमर्यादा है। ७०. किसी क्षेत्र में मासकल्प अति आषाढ़ मास पूरा रहकर उसी क्षेत्र में वर्षावास जिताए और मृगसिर का मास भी दुर्भिक्ष आदि के कारण वहीं पूरा करे तो यह सालंबन रूप में यह मास का ज्येष्ठावग्रह होता है। ७१. वर्षावास से चतुष्प्रातिपदिक (चार मास की चार प्रतिपदाओं) के पश्चात् वहां से भृगसिर की प्रतिपदा को विहार कर लेना चाहिए। यदि वहां से गमन न हो तो पूर्व निर्दिष्ट आरोपणा आदि प्रायश्चित्त आता है । ७२,७३. कायिकी भूमि तथा संस्सारक जीवों से संसक्त हो जाए, भिक्षा दुर्लभ हो, राजा दुष्ट हो, सपं आदि वसति में प्रविष्ट हो जाएं, कुंथुओं से वसति संसक्त हो जाए, अग्नि का उपद्रव हो, ग्लान की परिचर्या न हो पाए तथा स्थहिल भूमि का अभाव हो यदि ये कारण प्राप्त हों तो वर्षावास सम्पन्न न होने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमन कर देना चाहिए। ७४,७५. वर्षा न रुक रही हो, मार्ग दुर्गम तथा कीचड़मय हो गये हों, अन्यत्र अशिव तथा दुभिक्ष हो, राजा का उपद्रव हो, घोर दाफुओं का भय हो, ग्लान की असमर्थता हो-इन कारणों से वर्षावास अतिक्रांत हो जाने पर भी उस क्षेत्र से निर्गमद नहीं हो पाता। ७६. वर्षावास क्षेत्र से चारों ओर हाई कोस तक भिक्षाचर्या आदि के लिए क्षेत्रावग्रह होता है। आने-जाने में एक योजन तथा एक कोस अर्थात् पांच कोस प्रमाण क्षेत्र है। अपवाद कारण को छोड़कर यह क्षेत्र-मर्यादा है। ७७. क्षेत्रावग्रह छह दिशाओं में होता है, जैसे-ऊर्वदिशा, अघोदिशा, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण-इन छहों दिशाओं में एक योजन अथवा एक कोस का क्षेत्रावग्रह होता है। इन्द्रपद अथवा गजान पर्वत से छहों दिशाओं में क्षेत्र हैं। अन्यान्य पर्वतों से चार-पांच दिशाओं में क्षेत्र ---- ७८, किसी घ्याघात के उपस्थित होने पर एक, दो अथवा तीन दिशाओं में क्षेत्रावग्रह होता है। जिस दिन व्याघात हो उस दिन उद्यान तक क्षेत्रावग्रह होता है। उससे आगे विनमउंब अर्थात् जिस गांव या नगर के चारों दिशाओं में कोई ग्राम या नगर न हो, वह अक्षेत्र होता है । ७९. नदी आदि में क्षेत्रावग्रह की मर्यादा-ऋतुबद्धकाल में तीन उदकसंघट्टन-अर्धजषा तक जल, वर्षावास में सात उदकसं घट्टन-इतने पानी में अवगाहन कर भिक्षाचर्या के लिए अन्यत्र जाने में तथा आने में क्षेत्रावग्रह का हनन नहीं होता। इसके अतिरिक्त ऋतुबद्धकाल में चार सदकसंघटन तथा वर्षावास में पाठ उदकसंघटन लगाने से क्षेत्रावग्रह का उपघात होता है । अर्धजंघा से अधिक उदक का एक बार भी अवगाहन करने से क्षेत्रावग्रह का अतिक्रमण होता है । १. पर्वत पर ऊपर और नीचे भी ग्राम होता है। अतः पर्वत पर मध्यस्थित ग्राम की अपेक्षा छह दिशाएं होती हैं।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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