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________________ नियुक्तिपंचक ८०. द्रव्य स्थापना के सात द्वार हैं-आहार, विकृति (विगय), संस्तारक, मात्रक, लोचकरण, सचित्त तथा अचित्त का व्युत्सर्जन, ग्रहण तथा स्वीकरण । १. आहार विषयक मर्यादा-पूर्वाहार अर्थात् ऋतुबद्धकालीन माहार का परित्याग करे । अपनी शक्ति के अनुसार योगद्धि अर्थात् व्रतों में वृद्धि करे। (क्योंकि वर्षाकाल में कीचड़ हो जाने से भिक्षाचर्या कठिन हो जाती है तथा संज्ञाभूमि में जाना कष्टकर होता है, स्थंडिलभूमि हरियाली से छा जाती है आदि ।) विगय के दो प्रकार हैं-संचयिका और असंचयिका । इनके दो-दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त ।' पशस्त के ग्रहण से द्रव्य की सीमा होती है। ८२. जो विगतिमीत अर्थात् कुतियों-तियंञ्चगति, नरकगति आदि विविध गतियों से भयभीत है, वह भिक्षु यदि विकृति अथवा विकृति मिश्र भोजन करता है तो वह विकृति उस मुनि को विकृत स्वभाव वाला बना देती है और वह उसे बलात् विगति--नरकगति में ले जाती है । ८१. मुनि सामान्यतः दूध, दही, नवनीत आदि जो प्रशस्त असंचयिका विकृतियां हैं, उन्हें ग्रहण करे । संचयिका विकृतियां ग्रहण न करे क्योंकि ये विकृतिमां ग्लान आदि के लिए प्रयोजनीय होती हैं । (सामान्यतः इनको लेने पर ग्लान आदि को ये प्राप्त नहीं होतीं।) ८३. मुनि प्रशस्तविकृति ग्रहण तथा अप्रशस्तविकृति ग्रहण प्रयोजनवश करे । अप्रशस्तविकृति का ग्रहण उतनी ही मात्रा में करे जितनी मात्रा बाल, वृद्ध अथवा रोगी के लिए आवश्यक हो तथा जिसके लेने से गर्दा न हो, दाता को विश्वास हो तथा उसके दोषयुक्त भावों का प्रतिघात हो। ८४. ऋतूबद्धकाल में जो संस्तारक ग्रहण किए थे उनका वर्षावास काल में परित्याग कर दे तथा वर्षायोग्य अपरित्यजनीय संस्तारक ग्रहण करे । तीन संस्तारक-निवात, प्रवात तथा निवातप्रवात गुरु को देकर शेष मुनि (रत्नाधिक के क्रम से) एक-एक संस्तारक ग्रहण करे । ५५ ऋतुबद्धकाल में उपचार-प्रस्रवण तथा प्रलेष्म के उपयोगी मात्रक ग्रहण किए थे, उनका परित्याग कर वर्षावास में प्रत्येक मुनि इन तीनों के लिए तीन-तीन मात्रक ग्रहण करे। संयमनिर्वाह के लिए, अतिथि के प्रयोजन के लिए तथा एक के फूट जाने पर मुनि बचे पात्र को काम में ले । ८६, जिनकल्पिक मुनियों के लिए नित्य ध्रुवढंचन की परम्परा है । स्यविर मुनियों के लिए वर्षावास में ध्रुवलुचन की परम्परा है । जो असहनशील तथा ग्लान मुनि हैं, वे भी पर्युषणारात्रि का अतिक्रमण नहीं करते, अवश्य लुंचन कराते हैं। १. मदि आवश्यकी में परिहानि न होती हो तो चातुर्मासिक तप करे। यदि यह न कर सके तो तीन मास, दो मास, एक मास "आदि तप करे। २. क्षीर, दधि, मांस, नवनीत आदि असंचयिका विकृति है तथा घृत, गुड़, मांस आदि संचयिका विकृति है। ३. मधु, मांस, मद्य अप्रशस्त हैं तथा क्षीर, गुड़ आदि प्रशस्त हैं।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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