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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४८५ ग्राहक बहुत आ रहे थे। वह वृद्ध ग्राहकों को निपटाने में असमर्थ था। वहां बैठा हुआ सार्थवाह पुत्र अपनी दक्षता से जिस ग्राहक को जिस चीज (घी, गुड़, लवण, तेल, सोंठ, मिर्च आदि) की अपेक्षा होती, वही चीज दे देता। इससे वृद्ध को बहुत लाभ हुआ। वृद्ध प्रसन्न होकर बोला-'तुम यहां के वास्तव्य हो या आगंतुक ? सार्थवाह पुत्र ने कहा-'हम तो आगंतुक हैं।' तब वृद्ध बोला- हमारे घर चलो, आज का भोजन वहीं करना है।' सार्थवाह पुत्र ने कहा-'मेरे और भी साथी हैं। वे उद्यान में ठहरे हुए हैं, मैं उनके बिना भोजन नहीं करूंगा।' तब वृद्ध वणिक् ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा-'उन सबको साथ ले चलो।' सार्थवाह पुत्र ने सबको बुला लिया। वे सब उसके घर गए 1 वणिक् ने सबको भोजन कराया। तत्पश्चात् ताम्बूल आदि से सत्कार कर उनका बहुमान किया। उसने पांच रुपयों का खर्च किया। दूसरे दिन रूपवान् वणिकपुत्र को भोजन की व्यवस्था करनी थी। वह शरीर को सज्जित कर वेश्या बाड़े में गया। वहां देवदत्ता नाम की वेश्या थो। वह पुरुषों से बहुत द्वेष करती थी. अत: राजपुत्र और श्रेष्ठिपुत्रों द्वारा अभिलषित होने पर भी वह किसी को नहीं चाहती थी। उस वणिक् पुत्र के सौन्दर्य को देखकर वह क्षुब्ध और चंचल हो गई। एक दासी ने वेश्या की माता से जाकर कहा कि आज तुम्हारी पुत्री एक सुन्दर युवक पर आसक्त हो गई है। वेश्या की माता ने कहा-'जाओ. श्रेष्ठिपत्र को कहो कि वह हमारे घर नि:संकोच आए और आज का भोजन यहीं करे।' उसने भी पूर्ववत् अपने साथियों की बात कही, सबको वहां बुलाया। वेश्या ने सबको अच्छा भोजन कराया। उसने सौ रुपए खर्च किए। तीसरे दिन बुद्धिमान् अमात्यपुत्र से कहा-'आज तुम्हें सबके भोजन की व्यवस्था करनी है।' वह नगर की करणशाला-न्यायशाला में गया, जहां विवादों का निपटारा होता था। वहां तीन दिन से एक विवाद का निपटारा नहीं हो पा रहा था। विवाद यह था- दो सौतें थीं। उनका पति मर गया। उनमें एक के पुत्र था, दूसरी के नहीं। जो अपुत्रा थी वह स्नेह से पुत्र का लालन-पालन करती और कहती-'यह पुत्र मेरा है।' पुत्र की वास्तविक माता कहती-'यह पुत्र मेरा है 1' यह विवाद समाहित नहीं हो रहा था। अमात्यपुत्र बोला-'मैं इस विवाद को निपटा देता हूं। इस बच्चे के दो खंड करके एक-एक खंड दोनों माताओं को दे दो।' यह सुनते ही पुत्र की असली माता बोली-'न तो मुझे धन चाहिए और न यह बालक । दोनों उसी को दे दो। मैं बालक को जीवित देखकर ही संतष्ट हो जाऊंगी।'दसरी स्त्री कुछ भी नहीं बोली। तब अमात्यपत्र ने उस बालक को उसकी असली मां को सौंप दिया। बालक की मां द्वारा अमात्यपुत्र को भोजन का निमन्त्रण मिला। सभी मित्रों को भोजन कराया। इसमें एक हजार का व्यय, हुआ। ___चौथे दिन राजपुत्र से कहा-'राजपुत्र! आज तुम्हें पुण्यबल से हम सबका योगक्षेम वहन करना है।' राजकुमार ने स्वीकृति दी। वहां से चलकर वह एक उद्यान में ठहरा। उस दिन नगर का राजा मर गया। वह अपुत्र था। मंत्रियों ने तब एक घोड़े की पूजा कर, उसे अधिवासित कर, नगर
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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