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________________ नियुक्ति साहित्म : एक पर्यवेक्षण शौचार्थ बाहर चले गए। शिष्य ने बनतावशा महागरिज्ञा में वर्णित विद्या के आधार पर सिंह का । धारण किया। शिष्य वापिस मूल रूप में आने की विद्या से अपरिचित था इसलिए वह असली रूप में नहीं आ सका। आचार्य जत्व वापिस आए तब शिष्य को सिंह रूप में देखा । आचार्य ने उसे पाविस मुनि रूप में परिवर्तित कर दिया। इस घटना को देख आचार्य ने विच र किया कि पंचम कल में इस अध्यायन के गठन-पालन से लाभ नहीं, अनर्थ होने की संभावना अधिक है अत: उसी समय से इसका वाचन गित भर दिया। बाद में इसका संकलन ही नहीं हुआ और कालान्तर में इसका विच्छेद हो गया। टीकाकार ने अंत में उल्लेख किया है कि यह बात उन्हें अपने आचार्य से ज्ञात हुई। महापरिज्ञा शब्द का अर्थ एवं उसमें वर्णित विषयवस्तु ___ गहापरिज्ञा में दो शब्द हैं—महा-परिज्ञा'। नियुक्तिकार ने महा शब्द के दो अर्थ किए हैं? प्रधान या विशेष २. परगाण में बृहद् । यहां महा शब्द प्रधान अर्थ का द्योतक है। नियुक्तिकार ने परिज्ञा शब्द के भी दे भेद किए है—१. ज्ञ परिज्ञ २. प्रत्याख्यान परना। मूलगुण और उत्तरगुण के अधार पर भावपरिका के वेद-प्रभेद किर! गए हैं। मूलतः परिज्ञा शब्द ज्ञान और आचरण का समन्वित साप है। निर्मुवित्तकार ने गह परिज्ञा अध्ययन के लात उद्देशकों का उल्लेख किया है। वर्तमान में महापरिज्ञा अध्ययन में वर्णित विषय-वस्तु के जानने के निम्न साधन हमारे समक्ष हैं १. नियुक्तिकार ने प्रारम्भिक गाथाओं में जहां सभी अध्ययन के विषयों का संक्षेप मे वर्णन किया है, वहां महापरिज्ञा अध्ययन के लिए कहा है कि इसमें मोजजन्य परीषह और उपसर्गों का वर्णन है।'' चूर्णिकार और टीक कार ने भी इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि इन उपसर्ग को जानकर कर्म प्रत्याख्यान परिज्ञा से कर्म क्षीण करने चाहिए। मोह से उत्पन्न परीषह स्त्री के प्रति आसक्ति से उत्पन्न स्त्रतरे की ओर संकेत देता है। स्वयं नियुक्तिकार ने सबसे अंतिम गाथा में कहा है कि देवी, मानुषी और तिर्थच स्त्री के प्रति आसक्ति का मन, वचन और काया से परित्याग कर देना चाहिए, यही नहःपरिजः अध्ययन का सार है। २. आचारांगनियुक्ति के अनुसार सप्तकक पूलिका के सात उद्देशक महापरिज्ञा अध्ययन से निर्मूढ हैं अत: इस अध्ययन के आधार पर भी महापरिज्ञा की विषय-वस्तु का सामान्य ज्ञान हो सकता है।' ३. प्रशमरतिप्रकरण के अनुसार इस अध्ययन में मूलगुण और उत्तरगुणों को भलीभांति जानकर तंत्र-मंत्र तथा आकाशगामिनी ऋद्धि का प्रयोग न करने का तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से हेय का त्याग कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र में रमण करने का विधान है। ४. इस अध्ययन की विषय-वस्तु गनने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन महापरिज्ञः अध्ययन की निक्ति है। इसकी प्रारम्भिक ग्यारह गाथाओं में इसके उद्देशकों में वर्णित विषय-वस्तु का उल्लेख १. आनि २६४: पाहण्णे महसदे, परिमाप व होई .नाया। २. आनि २६५; तेसि महास. खा. पाहणणगं तु निप्पण्णो। ३ अनि २६७, २६८। ४. आनि ३६७। ५ अनि ३४: मोहसमुत्था परीसहस्सागा। आयू गृ २४४, आटी पृ १९३३ । ७ आनि २७० । ८ आनि ३१०: सत्तेवगण सावि निवाई महापरिणा। ५ प्रशनरतिप्रकरण । ११५ टी. पृ ७७ :
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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