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नियुक्तिपंचक
१०२. मुनि के लिए पावस्थ, अवसन्न तथा कुशील मुनियों के साथ संस्तव करना उचित नहीं होता। इसलिए सूत्रकृतांग में इस 'धर्म' नामक अध्ययन में धर्म का नियमन किया है, उसकी सीमाओं का निर्धारण किया है।
बसवां अध्ययन : समाधि
१०३. आदानपद (प्रथम पद) के आधार पर इस अध्ययन का नाम है-आघ । इसका गुणनिष्पन्न नाम है-समाघि । इस अध्ययन में 'समाधि' शब्द के निक्षेप प्रस्तुत कर भाव समाधि का प्रतिपादन किया है।
१०४. 'समाधि' शब्द के छह निक्षेप है नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ।
१०५.१०६. द्रव्यमाधि-इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में तत्-तत् विषय की प्राप्ति से उसउस इन्द्रिय की जो तुष्टि होती है, वह द्रव्यसमाधि है । जिस क्षेत्र में समाधि उत्पन्न होती है, वह क्षेत्रसमाधि है । जिस काल में समाधि प्राप्त होती है, वह कालसमाधि है। भारसमाधि के चार प्रकार हैं:-दर्शन समाधि, ज्ञान समाधि, तप: समाधि और चारित्र समाधि ।' जो चतुर्विध भावसमाधि में समाधिस्थ है, वही मुनि सम्यक् चारित्र में व्यवस्थित है। अथवा जो सम्धचरण में व्यवस्थित है, वहीं चारों प्रकार की भावसमाधि में समाहित होता है । ग्यारहवां अध्ययन : मार्ग
१०७. मार्ग शब्द के छह निक्षेप हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव । १०८. द्रव्यमार्ग के चौदह प्रकार हैं१. फलकमार्ग ५. रज्जुमार्ग
९. कीलकमार्ग, २. लतामार्ग
६. दवनमार्ग
१०. अजमार्ग, ३. आंदोलन मार्ग
७. रिलमार्ग
११. पक्षिमार्ग, ४. वेत्रमार्ग
. पाशमार्ग
१२. छत्रमार्ग
१. शान समाधि-जैसे-जैसे व्यक्ति श्रुत का
अध्ययन करता है, वैसे-वैसे अत्यन्त समाधि उत्पन्न होती है।
ज्ञानार्जन में उद्यत व्यक्ति कष्ट को भुल जाता है। नये-नमे शेयों की उपलब्धि होने पर उसका जो समाधान होता है, वह अनिर्वचनीय होता है। दर्शन समाधि -- जिन-प्रवचन में जिसकी बुद्धि श्रद्धाशील हो जाती है, उसे कोई भ्रमित नहीं कर सकता। उसकी स्थिति पवनशून्य गृह में स्थित दीपक की भांति
निष्कम्प हो जाती है। चारित्र समाधि-चारित्र समाधि की निष्पत्ति है-विषय सुखों से परामुखता । अकिंचन होने पर भी चरित्रवान् साधु परमसमाधि का अनुभव करता है। तपः समाधि- इससे साधक विकृष्ट तप करता हुआ भी खिन्न नहीं होता। वह झुत्, पिपासा आदि परीषहों से क्षुब्ध नहीं होता। वह आभ्यन्तर तप में अभ्यस्त साधक ध्यान अवस्था में निर्वाणस्थ की भांति सुख-दुःख से बाधित नहीं होता।