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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण . . . . . .. वह अनगार कहलाता है। सूत्रकृतांग के अनुसार जो निरभिमानी, विनीत, पापमलप्रक्षालक, दान्त, रागद्वेषरहित, शरीर के प्रति अनासक्त, अनेक परीषहों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, विशुद्ध चारित्र-सम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील और परदत्तभोजी होता है, वह भिक्षु है। उत्तराध्ययन के सभिक्खुप अध्ययन की नियुक्ति में भिक्षु की निम्न कसौटियां बताई गई हैं—जो राग-द्वेष, मन, वचन, काया क. अशुभ प्रवृत्ति, सावद्य योग गौरवत्रय, पाल्यत्रय, विकथः, आहार-भय आदि संज्ञाओं तथा कषाय और प्रभाद आदि का भेदन करता है, वह भिक्षु है।' जैसे पीतल और सोना रंग से समान होने पर भी एक नहीं होते, वैसे ही केवल नाम और रूप की समानता तथा भिक्षा करने मात्र से भिक्षु नहीं हो सकता। नियुक्तिकार ने भिक्षु के १७ मौलिक गुण निर्दिष्ट किए हैं, जो भिक्षुत्व के पैरामीटर कहे जा सकते हैं—संबेग, निर्वेद, विषय-विवेक, सुशीलसंसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, शांति, मार्दव, आर्जव, विमुक्ति, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक-परिशुद्धि । दशवकालिकनियुक्ति में भिक्षु का स्वरूप बाईस उपमाओं से समझाया गया है। भिक्षु सर्प के समान एकदृष्टि, पर्वत के समान कष्टों में अप्रपित, अग्नि के समान तेजस्वी तथा अभेददृष्टि वाला, सागरसम गंभीर एवं ज्ञान-रत्नों से युक्त, नभ के समान स्वावलम्बी, वृक्ष के समान मान-अपमान में सम, भ्रमर के समान अनियतवृत्ति, मृग के समान अप्रमत्त, पृथ्वी के समान सहिष्णु. कमल की भांति निर्लेप, सूर्य के समान तेजस्वी, पवन की भांति अप्रतिबद्धविहारी, विष की भांति सर्वरसानुपाती, तिनिश की तरह विनम्र, वंजुल की तरह विषधातक, कणेर की तरह स्पष्ट, उत्पल की भाति सुगंधित, भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति, चूहे की तरह उपयुक्त देश-कालचारी, नट की भांति प्रयोजन के अनुरूप परिवर्तन करने वाला, कुक्कुट की भांति संविभागी तथा कांच की तरह निर्मल हो। ___ भिक्षु की आंतरिक साधना को प्रकट करने वाला एक महत्त्वपूर्ण विशेषण है.-वोसठ्ठचत्तदेह !" शारीरिक क्रियाओं का त्याग करने वाला वोसट्टदेह तथा शरीर का परिकर्म—रनान-मर्दन, उबटन आदि नहीं करने वाला ‘चत्तदेह कहलाता है। ये दोनों शब्द भिक्षु की आंतरिक और बाह्य दोनों साधना के द्योतक हैं तथा 'इमं सरीरं अणिच्चं' की आत्मगत भावना को व्यक्त करते हैं। भिक्षु वह होता है, जो निदान नहीं करता। निदान का अर्थ है भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए साधना का विनिमय कर देना। भिक्षु भावी फलाशंसा से विरत होता है। वह अपनी साधना के बदले ऐहिक फल-प्राप्ति की कामना नहीं करता। उसका स्व होता है आत्मा, पदार्थ उसके लिए आदर्श नहीं होते। वे मात्र उपयोगिता की दृष्टि से गृहीत होते हैं। पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा—ये दो महान् दोष हैं । वास्तविक भिक्षु इन दोनों से बचकर चलता है। उसका आलंबन सूत्र होता है—पत्तेयं पुण्णपावें । प्रत्येक प्राणी के अपना-अपना पृण्य और पाप तथा ६ आ १/३५: अगगारे उज्जुकडे नियागपडिवणे अभायं कुब्रमणे विवाहिए। ५. दर्गाने ३२३, ३२४ । ६. दपनि १३२.१३३, अचू पृ.३६,३७ । ३ उनि ३७१. ३७२। ७. दश १०/१३। ४. दशनि ३२५ । ८. दश १०/१३1
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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