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________________ ५ नियुक्तिपंचक अपनी-अपनी क्षमता-अक्षमता होती है। जो इस मर्म को समझ लेता है, वह पर-निन्दा और आत्म-इलाधा से त्वच जाता है। जो इस मर्म को नहीं पहचानता, वह प्रवजित हो जाने पर और निक्षाजीबी भिक्षु हो जाने पर भी परनिन्दा और आत्म-श्लाघा से नहीं डब सकता। नियुक्तिकार ने भिक्षु के आंतरिक और व्यावहारिक गुणों का सुन्दर निरूपण क्रिया है। भिक्षाचर्या __ श्रमण संस्कृति में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गनिमार्ग के सात निशाचरी का गहरा संबंध है। 'भिक्खावित्ती सुहावहा', 'उपवासात् परं भैक्ष्यम्' ये सूक्त भिक्षावृत्ति के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाले हैं। माधुकरी भिक्षा उत्कृष्ट अहिंसक जीवन शैली का उदाहरण है। ग्यपि वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी माधुकरी भिक्षा का उल्लेख मिलता है पर प्रायोगिक रूप से भगवान् महावीर ने जिस प्रकार की असावा.—पापरहित भिक्षावृत्ति का उपदेश दिया, वह अद्भुत है। जो आजीविका के निमित्त दीन, कृपण, कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे द्रव्य भिक्षु हैं, वास्तविक नहीं। अत: भिक्षाचर्या और भिखारीपन दोनों अलग-अलग हैं। वैदिक परम्परा में भिक्षा के संदर्भ में अजगरी एवं कापोती वृत्ति का उल्लेख भी मिलता है। भागवत में ऋषभ की भिक्षावृत्ति को अजगरी वृत्ति के रूप में उल्लिखित किया है। मांगे बिना सहज रूप से जो मिले, उसमें संतुष्ट रहना अजगरी वृत्ति है। संभव है अनियतता और निश्चेष्टता के आधार पर इस भिक्षावृत्ति का नाम अजगरी वृत्ति पड़ा होगा। ऋषभ के लिए गो. मृग और काक आदि वृत्तियों का भी संकेत मिलता है। जैन आगम साहित्य में गोचरी और मृगचारिका (उ १९/८३.८४) का उल्लेख मिलता है। महाभारत में ब्राह्मण के लिए कापोती वृत्ति का संकेत मिलता है। इसे उच्छवृत्ति भी कहा जाता था। अनेषणीयशंकिता के आधार पर कापोती वृत्ति का उल्लेख उत्तराध्ययन में मिलता है। कबूतर की गांति साधु को एषणा आदि दोषों से शंकित रहना चाहिए। दशवकालिक सूत्र का प्रथम अध्ययन माधुकरी भिक्षा के साथ प्रारम्भ होता है। वहां साधु की भिक्षा को भ्रमर से उपमित किया गया है। नियुक्तिकार ने सूत्र की गाथाओं के आधार पर अनेक प्रश्नोत्तरों के माध्यम से माधुकरी भिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। भ्रमर की उपमा साधु की भिक्षावृत्ति पर पूर्णतः लागू नहीं होती। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि भ्रमर तो अदत्त ग्रहण करते हैं तथा असंयत्त होते हैं अत: इस उपमा को देने से श्रमण को असंयत मानना पड़ेगा। इस प्रश्न का समाधान देते हुए नियुक्तिकार स्पष्ट कहते हैं कि उपमा एकदेशीय होती है। जिस प्रकार चन्द्रमुखी दारिका कहने पर १. (क) प्रमपद. पुष्फयग्ग ४/६: यवाण भमरो पुर्फ, वण्णगंधं अहेठयं । पलेति रसमादाय, एवं गामे मुनी चरे।। (ख) मभ.. उद्योगपर्व ३४/१७; यधा मधु समादत्ते, रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसमा । २. दश ५/१/९२; अहो जिपोहि असावज्जा, वित्ती साहूण देसिय" । ३. दर्शाग ३१२। ४. भाग. ५/५/३२। ५. भाग ५/५/३४: एवं गं.-मा-ककर्यया व्रजस्तिष्ठन्नासीन:............ । ६ मभा शांतिपई २४३/२४: कुम्भधान्यैरुज्छशिल: कापोती चास्थितारतथः। यस्मिंश्चैते वसन्त्यहस्तिद राष्ट्रमभिवति। .७. उ. १९/३३; कवोल ला इम' दिती। ८. दशगे ११४११५ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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