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________________ नियुक्तिपंचक देशकाल--अवसर । कालकाल-मरणकाल । प्रमाणकाल --दिवस आदि का विभाग। वर्णकाल-ग्वेत, कृष्ण आदि वर्णगत काल । भावकाल-ओदयिक आदि भाव। प्रस्तुत प्रकरण में भावकाल' का प्रसंग है। ११. सामायिक (आवश्यक का प्रथम अध्ययन) के अनुक्रम से वर्णन करने के लिए आचार्य शयंभव ने दिन के अंतिम प्रहर में इस आगम का नियूँहण किया, इसलिए इसका नाम दगवैकालिक १२. जिस आचार्य ने, जिस वस्तु (प्रकरण) को अंगीकार कर, जिस पूर्व से, जितने अध्ययन, जिस ऋम से स्थापित किए हैं, उस आचार्य का, उस प्रकरण का, उस पूर्व का, उतने अध्ययनों का क्रमशः प्रतिपादन करना चाहिए । १३. मैं दशवकालिक के निर्मुहक गणधर शय्यभव को वंदना करता हूं। वे मुनि मनक के पिता थे और स्वयं जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा देखकर प्रतिनुश हुए थे। १४. आचार्य शय्यंभव ने अपने पुत्र शिष्य मुनि मनक के लिए दस अध्ययनों का नियंहण किया । निर्वृहण विकाल में हुना इसलिए इस ग्रंथ का नाम दश-वैकालिक हुभा। १५११६. आत्मप्रवाद पूर्व से धर्मप्रज्ञप्ति (चतुर्थ अध्ययन), कर्मप्रवाद पूर्व से तीन प्रकार की पिण्डषणा (पंचम अध्ययन), सत्यप्रवाद पूर्व से अक्यशुद्धि (सप्तम अध्ययन) तथा शेष अध्ययनों (१,२,३,६,८,९,१०) का नवमें प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से निर्वृहण हुआ है। १७. दूसरे विकल्प के अनुसार शय्यभव ने अपने पुत्र मुनि मनक को अनुग्रहीत करने के लिए संपूर्ण दशर्वकालिक का नियूँहण द्वादशांगी गणिपिटक से किया। १८. 'द्रुम-पुष्पिका' से 'सभिक्षु' पर्यन्त दस अध्ययन है। अध्ययनों के अधिकार के प्रसंग में प्रत्येक अध्ययन का मैं पृथक्-पृथक रूप से वर्णन करूंगा। १९-२२. प्रथम अध्ययन में जिनशासन में प्रचलित धर्म की प्रशंसा है। दूसरे अध्ययन में पुति का वर्णन है। धुति से ही व्यक्ति धर्म की आराधना कर सकता है। तीसरे अध्ययन में आत्म-संयम में हेतुभूत लषु आचार कथा का, चौथे अध्ययन में जीव संयम का, पांचवें अध्ययन में तप और संयम में गुणकारक भिक्षा की विशोधि का, छठे अध्ययन में महान् संयमी व्यक्तियों द्वारा आवरणीय महती आचारकथा का, सातचे अध्ययन में वन-विभक्ति (बोलने का विवेक) का, आठवें अध्ययन में आचार-प्रणिधि का, नौवें अध्ययन में विनय का तथा अंतिम दसवें अध्ययन में भिक्षु का स्वरूप प्रतिपादित है। २३. इस आगम के दो अध्ययन और हैं, जिन्हें चूला कहा जाता है। पहली चूला में संयम में विषाद-प्राप्त साधु को स्थिर करने के उपाय निर्दिष्ट है और दूसरी में अत्यधिक प्रसादगुण फलवाली विविक्त चर्या--अप्रतिबद्ध चर्या का निर्देश है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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