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________________ ६७ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवक्षण प्रसंगवश नियुक्तिकार ने व्याकरण संबंधी विमर्श भी प्रस्तुत किए हैं। अनेक रथलों पर अवयवों का अर्थ-संकेत भी हुआ है। संक्षेप में सु और क्रु का ऊर्य-बोध द्रष्टव्य है-सु त्ति पसंसा सुद्धे, कु त्ति दुगुंछा अपरिसुद्धे (सूनि ८८)। इसी प्रकार 'अलं' अव्यय के तीन अर्थों का संकेत किया गया है-१. पर्याप्तिभाव-सामर्थ्य, २. अलंकृत करना ३. प्रतिजेध।। पज्जत्तीभावे खलु, पढमो बितिओ भवे अलंकारे। ततिओ वि य पडिसेहे, अलसद्दो होइ नायब्यो ।।(सूनि २०३) इसी प्रकार 'सकार' निर्देश, प्रशंसा और अस्तिभाव-इन तीन अर्थों में प्रयुक्त है। निदेसपसंसाए अत्थीभावे य होति तु सकारो। (दशनि ३०६) नियुक्ति-साहित्य में अनेक नए अवयवों का प्रयोग भी हुआ है जैसे निश्चय अर्ध में र अवयव का प्रयोग । (दशनि १२३/१०) __भाषा की दृष्टि से अनेक स्थलों पर विभक्तिरहित तथा विभक्तिव्यत्यय के प्रयोग भी मिलते हैं। अलाणिक मकार भी अनेक स्थलों पर प्रयुक्त है, जैसे-अक्खरसंजोगमादीओ (उनि ४५)। नियुक्तिकार ने ययनित एवं पारिभाषिक शब्दों की निक्षेप-पद्धति से विस्तृत एव सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत की है। यह उनकी व्याख्या की एक विशिष्ट शैली रही है, जिसके माध्यम से शब्दों के अनेक अर्थ बताकर प्रस्तुत प्रकरण में उस शब्द का क्या अर्थ है, यह भी स्पष्ट किया है। पाश्चात्य विद्वान् एल्फ्सडोर्फ ने लिखा है कि जैन आचार्यों ने भारतीय वैदुष्य के क्षेत्र में निक्षेप-पद्धति का सबसे अधिक मौलिक योगदान दिया है। एक प्राकृत शब्द के अनेक संस्कृत रूपान्तरण संभव हैं। जैसे 'आसायणा' शब्द के संस्कृत रूप आसादना प्राप्त करना और आशातना-गुरु के प्रति अधिनय—ये दोनों बनते हैं। नियुक्तिकार ने इन दोनों की व्याख्या प्रस्तुत की है। इसी प्रकार शीत और उष्ण शब्द की व्याख्या भी अनेक कोणों से की गयी है। ऐसी व्याख्यः किसी भी कोश-साहित्य में नहीं मिलती। नियुक्तिकार ने सूत्रगत प्रत्येक शब्द की व्याख्या या विमर्श प्रस्तुत न करके केवल कुछ विशिष्ट शब्दों की ही निक्षेपपरक व्याख्या प्रस्तुत की है। उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक पारिभाषिक एवं विशिष्ट शब्द है पर नियुक्तिकार ने प्रथम गाथा के प्रथम शब्द 'संजोग' की लगभग चौंतीस गाथाओं में व्याख्या प्रस्तुत की है। नियुक्तिकार का यह शैलीगत वैशिष्ट्य है कि किसी भी विषय का विस्तृत वर्णन करने से पूर्व एक गाधा में प्रकृत विषयों का द्वार के रूप में निर्देश दे देते हैं, जिसे द्वारगाथा कहा जाता है। उसके बाद एक-एक द्वार की व्याख्या करते हैं। जैसे आनि गा. २ में ९ द्वारों का संकेत है। इन द्वारों की व्याख्या आगे ६० गाथाओं (आनि गा. ३-६२) में की गयी है। इसी प्रकार आनि गा. ६८ द्वारगाथा है, जिसमें ९ द्वार निर्दिष्ट हैं। इन द्वारों की आगे ३६ गाथाओं (आनि ६९-१०५) में व्याख्या की गयी है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में २२ परीणहों से संबंधित कथाओं के संकेत दो अनुष्टुप् गाथाओं (उनि ८८, ८९) में दिए हैं। बाद में प्रत्येक कथा की विस्तृत जानकारी ५१ गाथाओं (उनि ९०-१४१) में दी गयी है। इसी प्रकार मरणविभक्ति अध्ययन की नियुक्ति (उनि २०३, २०४ ) में मरण के बारे में ९ द्वारों का संकेत है, जिसकी व्याख्या २५ गाथाओं (उनि २०५-२९) में हुई है। १. दनि १५-१९ । २. उनि ३०-६४।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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