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________________ नियुक्तिपंचक काल तक अपनी-अपनी पूंजी लेकर मेरे पास आओ। वे तीनों मूल पूंजी लेकर अलग-अलग स्थान पर गए। पहले पुत्र ने सोचा कि पिता ने परीक्षा के लिए हमको व्यापारार्थ भेजा है अतः मुझे विपुल धन का उपार्जन करना चाहिए। भोजन, कपड़े पर उसने कम खर्च किया तथा द्यूत, मध आदि व्यसनों से परहेज किया। विधिपूर्वक व्यापार करने से उसने बहुत धन कमा लिया। दूसरे पुत्र ने सोचा-'हमारे घर प्रभूत धन-सम्पदा है किन्तु उसका व्यय करने से एक न एक दिन वह सम्पदा नष्ट हो सकती है अत: मूल की रक्षा करनी चाहिए।' वह जी भी कमाता उसे भोजन, वस्त्र, अलंकार आदि में खर्च कर देता। उसने मूल धन की रक्षा की पर धन एकत्रित नहीं कर पाया। तीसरे पुत्र ने चिन्तन किया कि सात पीढ़ी आराम से खाए इतना धन हमारे यहां पड़ा है फिर भी वृद्ध पिता ने अर्थ के लोभ से हमें परदेश भेजा है अत: अर्थार्जन का कष्ट क्यों किया जाए? उसने कोई भी व्यापार नहीं किया। केवल मद्य, द्यूत आदि व्यसनों तथा शरीर-पोषण में सारे धन को गंवा दिया। निर्दिष्ट काल पर तीनों पुत्र अपने घर पहुंचे। पिता ने सारी बात पूछी। जिसने अपनी मूल पूंजी गंवा दी थी, उसे नौकर का कार्य सौंपा गया जिसने मूल पूंजी की रक्षा की थी उसे गृह-कार्य सौंपा गया। जिसने मूल की वृद्धि की, उसे गृहस्वामी बना दिया। ४८. कपिल पुरोहित कौशाम्बी नगरी में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस नगरी में चौसठ विद्याओं में पारंगत काश्यप नाम का ब्राह्मण रहता था। वह राजा के द्वारा बहुत सम्मानित था। उसकी पत्नी का नाम यशा तथा पुत्र का नाम कपिल था। कपिल जब छोटा था तभी काश्यप कालगत हो गया। काश्यप की मृत्यु के बाद राजा ने उसका पद किसी दूसरे ब्राह्मण को दे दिया। एक दिन वह ब्राह्मण घोडे पर आरूढ़ होकर, छन्त्र धारण करके उधर से जा रहा था। यशा उसे देखकर रोने लगी। कपिल ने माता से रोने का कारण पूछा तो उसने बताया कि तेरा पिता भी ऐसी ही ऋद्धि से सम्पत्र था। कपिल ने पूछा-'उनको ऋद्धि कैसे मिली'? यशा ने उत्तर दिया-'वे विद्यासम्पन्न थे।' कपिल बोला-'मैं भी विद्या का अभ्यास करूंगा।' यशा ने कहा-'यहां तुझे मत्सरभाव के कारण कोई नहीं पढ़ाएगा। यदि तुझे पढ़ना हो तो श्रावस्ती नगरी चले जाओ। वहां तेरे पिता के मित्र इन्द्रदत्त ब्राह्मण हैं, वे तुझे विद्याध्ययन करवाएंगे।' कपिल इन्द्रदत्त ब्राह्मण के पास गया। इन्द्रदत्त ने पूछा-'तुम कहां से आए हो?' कपिल ने सारी घटना बता दी और विनयपूर्वक विद्यादान की प्रार्थना की। उपाध्याय ने भी पुत्र-स्नेह से उसका आलिंगन करते हुए कहा-'वत्स! तुम्हार विद्याग्रहण के प्रति अनुराग उत्तम है। विद्याविहीन पुरुष पशु के समान होते हैं । इहलोक और परलोक दोनों में विद्या कल्याणकारी है।' ब्राह्मण इन्द्रदत्त ने कहा-'तुम मेरे यहां सब प्रकार की विद्या सीखने में स्वतंत्र हो पर अपरिग्रही होने के कारण मेरे यहां भोजन की व्यवस्था नहीं हो सकती। भोजन के १. उनि.२४१, उशाटो, प. २७८, २७९, उसुटी.प. ११९, १२० !
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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