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________________ ५५५ परिशिष्ट ६ : कथाएं कुछ दिनों बाद सेठ के घर मेहमान आए । बछड़े के देखते-देखते मेंढे के गले में छुरी चला दी गयी। उस मोटे ताजे में कर मांस पकाकर मेहमानों को खिलाया गया। बछड़ा भय से कांप उठा। उसने अपनी मां से पूछा- 'क्या मैं भी इस मेंढ़े की भांति भारा जाऊंगा?" मां ने कहा'वत्स ! डरो मत, जो रसगृद्ध होता है, उसे उसका फल भी भोगना पड़ता है। तू सूखी घास चरता अत: तुझे कटुविपाक नहीं भोगना पड़ेगा । " ४५. काकिणी एक भिखारी ने भीख मांग-मांग कर एक हजार कार्षापण एकत्रित किए। एक बार वह उन्हें साथ लेकर सार्थ के साथ अपने घर की ओर चला। रास्ते में भोजन के लिए उसने एक कार्यापण को काकिणियों में बदलवाया। वह प्रतिदिन काकिणियों से भोजन खर्च चलाता। उसके पास एक काकिणी बची उसे वह पिछले स्थान पर भूल गया। सार्थ के जाने पर उसने सोचा- मुझे कार्षापण काकिणियों में बदलवाना पड़ेगा अतः कार्यापण की नौली एक स्थान पर गाढ़कर वह काकिणी के लिए दौड़ा। किन्तु वह काकिणी किसी दूसरे व्यक्ति ने चुरा ली थी। जब वह वापिस लौटा तो उसे नौली भी नहीं मिलीं क्योंकि नौली को गाड़ते हुए किसी व्यक्ति ने देख लिया और वह उसे लेकर भाग गया। वह भिखारी दुःखी मन से घर पहुंचा और पश्चात्ताप करने लगा । ४६. अपत्थं अंबर्ग भोच्चा आम अधिक खाने से एक राजा के आम का अजीर्ण हो गया और उससे विसूचिका - हैजा हो गया। वैद्यों ने बहुत श्रम से उसकी चिकित्सा की। राजा स्वस्थ हो गया। वैद्यों ने राजा को सावधान करते हुए कहा – 'राजन् ! यदि तुम पुनः आम खाओगे तो तुम्हारा जीवित रहना दुष्कर हो जाएगा।' राजा को आम बहुत प्रिय थे। उसने अपने राज्य के सारे आम्रवृक्ष उखड़वा दिए। एक बार वह अपने मंत्री के साथ अश्वक्रीड़ा के लिए निकला। अश्व बहुत दूर चला गया। जब वह थक गया तो एक स्थान पर रुक गया। वहां बहुत से आम के वृक्ष थे। मंत्री के मना करने पर भी राजा आम्रवृक्ष के नीचे विश्राम हेतु बैठा। हवा से राजा के पास अनेक आम गिर पड़े। राजा ने उन्हें हाथों से उठाया और सूंघने लगा। मंत्री के निषेध करने पर भी राजा ने आम खाने शुरू कर दिए । आम खाने से तत्काल उसकी मृत्यु हो गयी। ४७. तीन वणिक् पुत्र एक वणिक् के तीन पुत्र थे। पुत्रों की बुद्धि, व्यवसाय और पुण्य के परीक्षण के लिए उसने तीनों को हजार-हजार कार्षापण दिए और कहा-' इन रुपयों से तुम तीनों व्यापार करो और अमुक १ उनि २४१ - २४२/१, उशांटी प. २७२, २७३, उसुटी.प. ११६. ११७ ॥ २ उनि २४१, उशांटी प. २७६, उसुटी. प. ११८ । ३. उनि २४१, उशांदी. पं. २७७, उसुटी.प. ११८ ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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