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________________ ५२० नियुक्तिपंचक १७. अलाभ परीषह (ढंढण कुमार) एक गांव में एक ब्राह्मण कृषि कुशल अथवा शरीर से कृश होने के कारण कुशल था। वह 'कृषि पाराशर' के रूप में प्रसिद्ध हो गया। वह ब्राह्मण उस ग्राम में राजा के खेत की जुताई के लिए नियुक्त था। बैल दिन भर की जुताई से थक जाते, छाया में विश्राम करना चाहते और चारापानी पाने की अभिलाषा करते। आहार आ जाने पर जब वह उनको मुक्त करना चाहता तब सोचता कि एक हलबंभ की जुताई और कर लूं। बैल भूख से पीड़ित रहते । इस प्रकार उसने ६०० बार उन बैलों से खेत की अतिरिक्त जुताई कराई। इससे उसके बहुत सघन अंतराय कर्म बंध गए। वहां से मरकर वह अपने किसी अन्य पुण्य के प्रभाव से वासुदेव कृष्ण के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम ढण्ढ रखा गया। समय आने पर वह तीर्थंकर अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हो गया । दीक्षित होने के बाद अपने पूर्वभव में बंधा हुआ अंतराय कर्म उदय में आ गया। जब ढंदण मुनि आहार के लिए जाते तो घूमने पर भी विशाल द्वारिका नगरी में शुद्ध आहार नहीं मिलता। यदि कभी आहार मिलता तो वह ऐसे-वैसे कारणों से प्राप्त होता। एक बार ढंढण मुनि ने भगवान् से इसके बारे में पूछा। भगवान् से पूर्व भव का सारा वृत्तान्त जानकर दंढण मुनि ने अभिग्रह किया कि मैं दसरे के प्रभाव से प्राप्त आहार का उपयोग नहीं करूंगा। एक बार अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी आए। वासुदेव कृष्ण उन्हें वंदना करने गए। वासुदेव कृष्ण ने अरिष्टनेमि से पूछा-'अभी इन अठारह हजार साधुओं में दुष्कर तपश्चयां अथवा साधना कौन कर रहा है?' भगवान् ने उत्तर दिया-'हंढण मुनि सबसे कठोर साधना कर रहा है क्योंकि वह अलाभ परीषह को बहुत समता से सहन कर रहा है।' ढंढण मुनि के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त करने पर अरिष्टनेमि ने कहा-'जब तुम नगर में प्रवेश करोगे तो ढंढण मुनि तुम्हें रास्ते में मिलेगा। भगवान् को वंदना कर जब वासुदेव वापिस जाने लगे तो रास्ते में कृश शरीर किन्तु प्रशान्त वदन वाले ढंढण मुनि को देखा। मुनि को देखकर वासुदेव ने हाथी से नीचे उतरकर मुनि को वंदना की। अपने हाथ से उनके चरणों का प्रमार्जन किया तथा सुखपृच्छा की। वासुदेव को वंदना करते हुए एक सेठ ने देख लिया। उसने मन में सोचा यह बहुत बड़ा महात्मा है, तभी वासुदेव नीचे उतरकर वंदना कर रहे हैं। संयोग से मुनि ने उस दिन भिक्षा के लिए उसी सेठ के यहां प्रवेश किया। सेठ ने अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति से भिक्षा में लड्डु बहराए। भिक्षा से लौटकर मुनि ने भगवान् को आहार दिखाकर पूछा-'भंते ! क्या मेरा अलाभ परीषह क्षीण हो गया?' भगवान् ने कहा-'वत्स! तुम्हारा अलाभ परोषह अभी क्षीण नहीं हुआ है। आज तुम्हें वासुदेव के प्रभाव से आहार मिला है।' अपने संकल्प के अनुसार अनासक्त भावों से मुनि ने आहार का परिष्ठापन कर दिया लेकिन प्रतिज्ञा को भंग नहीं किया। आत्म-धरातल पर चिंतन करते हुए शुभ अध्यवसाय से उन्हें कैवल्य-लाभ हो गया।' १८. रोग परीषह (कालवैशिक) मथुरा नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसो नगर में काला नामक वेश्या रहती १. हल से विदारित भुमि रेखा। २. उनि.११५, उाटी.प. ११५, उसुटो.५. ४५, ४६!
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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