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________________ ३२० नियुक्तिपंचक में संसार के प्रपंच का भी तीर्थकरों ने प्रतिपादन किया है । 'मुझे विशिष्ट ज्ञान होगा'-यह ज्ञानभावना करनी चाहिए। आदि शब्द से ज्ञान से एकाग्रचित्तता आदि गुण भी प्राप्त होते हैं । वाचना, पृच्छना आदि स्वाध्याय में उपयुक्त . रहना भी ज्ञानभाबना है। ज्ञानभावना से सदा गुरुकुलवास में रहना भी ज्ञानभावना है। ३६.,३६१, आहंसा धर्म अण्छा है। सत्य, अदत्तावरति, ब्रह्मचर्य, परिग्रहविरति तथा बारहविध तप-ये सब शोभन हैं। वैराग्य भावना, अप्रमाद भावना, एकत्व (एकाग्र) भावना, ये ऋषि के परम अंग है। ये सारी भावनाएं चारित्र के अनूगत है। आगे तपोभावना का निरूपण करूंगा। ३६२. मेरा दिन तपस्या से अवंध्य कैसे हो? मैं फोनसी तपस्या करने में समर्थ है ? मैं किस दृश्य के योग से कौनसा तप कर सकता हूं? मैं कैसे क्षेत्र और काल में तथा किस भावअवस्था में तप कर सकता हूं? (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से स्वयं को तोलकर व्यक्ति यथाशक्ति तपोनुष्ठान में संलग्न हो।) ३६३. गृहीत तप के परिपालन में उत्साह रखना चाहिए। इसी प्रकार संयम और संहनन (जो तप का निर्वहन कर सके) की भावना करनी चाहिए। यह तप भावना है। अनित्य आदि बारह भावनाएं करना चैराग्य भावना है । प्रस्तुत में चारित्र भावना का प्रसंग है । चौयो खुला : विमुक्ति ३६४. विमुक्ति अध्ययन के पांच अधिकार है१. अनिरयस्व अधिकार । ५. महासमुद्र अधिकार। २. पर्वत अधिकार । ४. भुजगत्वग् अधिकार। ३. सृष्य अधिकार। ३६५. जो मोक्ष है, वहीं विमुक्ति है। प्रस्तुत में भाव-विमुक्ति का प्रसंग है। इसके दो भेव हैं—देशविमुक्त-भवस्यकेवलिपर्यन्त साधु तथा सर्वविमुक्त-सिद्ध । ३६६. आचार[ग की चतुर्थ चूला की यह नियुक्ति है। उसकी पांचवीं चूला है--निशीथ । उसका वर्णन आगे करेंगे। ३६७. आचाग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नी अध्ययन हैं। उनके उद्देशकों की संख्या क्रमश: इस प्रकार है-सात, छह, चार, चार, छह, पांच, आठ, पाठ, चार। ३६८. दूसरे श्रुतस्कंध (आचारचूला) के पन्द्रह अध्ययन हैं। उनके उद्देशकों की संख्या क्रमशः इस प्रकार है-ग्यारह, तीन, तीन, दो, दो तथा दो। मेष अध्ययनों के कोई उद्देशक नहीं १. चार कारणों से जान का अभ्यास करना चाहिए-(१) शान के संग्रह के लिए, (२) निर्जरा के लिए, (३) श्रुत की अश्पवयित्ति के लिए, (४) स्वाध्याय के लिए। (आटी प० २८०)
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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