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________________ निर्युक्तिपंचक ने जो संसार का स्वरूप बताया है, वह यथार्थ है। हमें ऐसा विवाह नहीं चाहिए। हमें ऐसा विषयसुख नहीं चाहिए। पिता ने हमारी बात मान ली, तब से हम अपने प्रिय भाई की स्नान - भोजन आदि की व्यवस्था में ही चिन्तित रहती हैं। हम अपने शरीर परिकर्म का कोई ध्यान नहीं रखतीं । एक दिन हमारे भाई ने घूमते हुए तुम्हारे मामे की लड़की पुष्पवती को देखा। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया और उसे हरण कर यहाँ ले आया। परन्तु वह उसकी दृष्टि सहने में असमर्थ था अतः विद्या को साधने के लिए गया। आगे का वृत्तान्त आप जानते हैं। हे महाभाग ! उस समय तुम्हारे पास से आकर पुष्पवती ने हमें भाई का सारा वृत्तान्त सुनाया। उसे सुनकर हमें अत्यन्त शोक हुआ। हम रोने लगीं। पुष्पवर्ती ने धर्मदेशना दे हमें शान्त किया और शंकरी विद्या से हमारे वृत्तान्त को जानकर उसने कहा- ' 'मुनि के वचन को याद करो। ब्रह्मदत्त को अपना पति मानी। ' हमने अनुराग पूर्वक आपको अपने पति स्वीकार कर लिया। पुष्पवती के संकेत से आप कहीं चले गए। हमने आपको अनेक नगरों व ग्रामों में ढूंढा पर आप कहीं नहीं मिले। अन्त हम खिन्न होकर यहां आ गई। आज हमारा भाग्य जागा अतर्कित हिरण्य की वृष्टि के समान आपके दर्शन हुए। हे महाभाग ! पुष्पवती की बात को याद कर आप हमारी आशा पूरी करें।' यह सुन कुमार प्रसन्न हुआ। उसने उनकी बात स्वीकार कर उनके साथ गन्धर्व विवाह किया। रात वहीं बिताई। प्रात:काल होने पर कुमार ने कहा- 'तुम दोनों पुष्पवती के पास चली जाओ। उसके साथ तब तक रहना, जब तक मैं राजा न बन जाऊँ ।' दोनों ने बात मान ली। उनके जाने के बाद कुमार ने देखा कि न वहां प्रासाद है और न परिजन उसने सोचा कि यह विद्याधरियों की माया है अन्यथा ऐसा इन्द्रजाल-सा कौतुक कैसे होता ? कुमार को रत्नवती का स्मरण हो गया और वह उसको ढूंढने आश्रम की ओर चला । वहां न तो रत्नवती ही थी और न कोई दूसरा । किसे पूछें, यह सोच उसने इधर-उधर देखा पर कोई नहीं मिला। वह उसी की चिन्ता में व्यग्र था तभी वहाँ सौम्य आकृति वाला एक पुरुष दिखलाई पड़ा । कुमार ने पूछा - 'महाभाग ! क्या तुमने अमुक-अमुक आकृति तथा वेष धारण करने वाली स्त्री को आज या कल कहीं देखा है?' उसने पूछा- 'कुमार! क्या तुम रत्नवती के पति हो।' कुमार ने स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया। उसने कहा- 'कल अपराह्न वेला में मैंने उसको रोते देखा था। मैं उसके पास गया और पूछा - 'पुत्री ! तुम कौन हो कहां से आई हो, तुम्हारे दुःख का कारण क्या है? तुम्हें कहां जाना हैं ?" उसने अपना परिचय दिया। मैंने उसे पहचान लिया और कहा- तुम मेरी धेवती हो।' मैंने उसका वृत्तान्त जाना और उसे उसके चाचा के पास ले गया। उसने उसे आदर पूर्वक अपने घर में प्रवेश कराया इसीलिए अन्वेषण करने पर भी वह तुम्हें नहीं मिली। तुमने अच्छा किया कि यहां आ गये।' इतना कहकर वह कुमार को सार्थवाह के घर ले गया। रत्नवती के साथ उसका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। वह विषय-सुख का भोग करता हुआ वहीं रहने लगा। एक दिन उसे याद हो आया कि आज वरधनु का दिन हैं, वह सोच उसने ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। संयोगवश वरधनु ब्राह्मण के वेश में भोजन लेने वहीं आ गया। उसने एक नौकर से कहा- 'जाओ, अपने स्वामी से कहो कि यदि तुम मुझे भोजन दोगे तो वह उस परलोकवर्ती के मुँह और पेट में सीधा चला जाएगा, जिसके लिए तुमने भोज किया है।' नौकर ५९६
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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