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नियंक्तिपञ्चक
१५५. योनियां तीन प्रकार की हैं- अंडज, पोतज तथा जरायुज – ये भी तीन-तीन प्रकार को योनियां हैं । स जीवों के चार प्रकार हैं- द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ।
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१५६,१५७. दर्शन, ज्ञान, चारित्र चारित्राचारित्र ( देशविरति ) दान, लाभ, भोगोपभोग, वीर्य, इन्द्रियविषय लब्धि, उपयोग, योग, अध्यवसाय, पृथक्-पृथक् लब्धियों (क्षीरात्रय, मध्वाल आदि) का प्रादुर्भाव आठ कर्मों का उदय, लेश्या, संज्ञा, उच्छ्वास- निःश्वास कषाय - ये सारे द्वीन्द्रिय आदि स जीवों के लक्षण है ।
१५८. वीन्द्रिय जीवों के ये उपर्युक्त लक्षण ही हैं। क्षेत्र की दृष्टि से पर्याप्त असकाय का परिमाण संवर्तित लोकप्रतर असंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशि परिमाण जितना है। उनका निष्क्रमण और प्रवेश जधन्यतः एक, दो, तीन का होता है और उत्कृष्टसः प्रतर के असंख्येय भाग प्रदेश परिमाण जितना होता है ।
१५९.
काय में सतत निष्क्रमण और प्रवेश जवन्यतः एक समय में एक, दो, तीन जीवों का होता है । उत्कृष्टतः आवलिका के असंख्येय भाग काल में सतत निष्क्रमण या प्रवेश होता है। एक जीव के सातत्य की अपेक्षा से एक जीव त्रसकाय में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः दो हजार सागरोपम तक रह सकता है ।
१६०. सकाय का मांस मादि मनुष्य प्रकार का है। उनके शारीरिक और मानसिक यह दो अतिसार आदि के रूप में अनेक प्रकार की होती है।
अनेक
में आता है। प्रकार की वेदना होती है तथा ज्वर,
१६९,१६२. कुछ लोग मांस के लिए सजीव का वध करते हैं। कुछ चमड़ी के लिए, कुछ रोम के लिए, कुछ पांच के लिए कुछ पूंछ और दांतों के लिए उनका वध करते हैं। कुछ लोग प्रयोजनवश उनका वध करते हैं और कुछ बिना प्रयोजन ही (केवल मनोरंजन के लिए) वध करते हैं। कुछ व्यक्ति प्रसंग- दोष से, कुछ कृषि आदि अनेक प्रवृत्तियों में आसक्त होकर त्रसजीवों को बांधते हैं, ताड़ित करते हैं और उनको मार डालते हैं ।
१६३. काय के शेष द्वार पृथ्वीकाय की भांति ही होते हैं। इस प्रकार सकाय की नियुक्ति प्ररूपित है।
१६४. जितने द्वार पृथ्वीकाम के कहे गए हैं, उतने ही द्वार वायुकाय के हैं । भेद केवल पांच विषयों में है-विधान, परिमाण, उपभोग, शस्त्र और लक्षण ।
१. योनियों के विक शीत, उष्ण, शीतोष्ण ।
सचित्त, अचित्त, मिश्र संबृत, विवृत, संवृत- ३. विवृत । स्त्री, पुरुष, नपुंसक । कूर्मोन्नत शंखाब, वंशीपत्र इस प्रकार योनियों के अनेक त्रिक हो सकते हैं। (देखें - आटी पृ ४५ ) २. आदि शब्द से चर्म, केश, रोम, नख, दांत,
स्नायु आदि ।
प्रसंगदोष का अर्थ है कि कोई व्यक्ति मृग को मारने के लिए पत्थर शस्त्र आदि फेंकता है किन्तु मध्यवर्ती कपोत, कपिंजल आदि पक्षी मारे जाते हैं, यह प्रसंग दोष है।