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________________ I T ४११ दशाशुतस्कंध निर्युक्ति ३४. जब भावसमाधि में विस आहित ( युक्त) और स्थित होता है तब ये सभी स्थान वित्त में विशिष्टतर होते जाते हैं। इसलिए चित्तसमाधि के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ३५. उपासक के बार प्रकार हैं- द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक तथा भावोपासक । द्रव्योपासक है— उपासक नाम गोत्र कर्म के बंध के कारण भविष्य में होने वाला उपासक । तदर्थोंपासक वह है, जो ओदन आदि द्रव्य के लिए उपासना करता है । ३६. जो कुप्रवचन, (कुधर्म में अपना श्रेय मानता धर्म की उपासना करता है, वह मोहोपासक है । खेद है, वह उसमें है, परन्तु वहां उसका श्रेय नहीं होता | ३७. जो सम्यग्दृष्टि है, सम मन वाला है तथा श्रमणों की उपासना करता है, वह भावोपासक है। इसके दो गोण नाम हैं- उपासक और श्रावक । ३८. द्वादशांगी प्रवचन में द्विविध धर्म का प्रतिपादन है - अनगारधर्म और अगारधर्म ( श्रावकधर्म) । ये दोनों केवली से प्रसूत हैं 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'पूर प्राणिप्रसवे' से प्रसूत शब्द निष्पक्ष होता है । ३९. केवली धर्मं सुनाते हैं, इसलिए वे श्रावक हैं। साधु और गृहस्य उनकी उपासना करते हैं. इसलिए उपासक हैं । उपासक धर्म सुनते हैं अतः वे भी श्रावक हैं। इस प्रकार साधु और गृहस्थ दोनों धावक हैं। विशेष यह है कि मुनि नित्यकालिक उपासक और भावक नहीं होते, गृहस्थ ही दोनों हो सकते हैं। ४०. यह सिद्ध है कि जो कार्य निरवशेष रूप से होता है, वही कृत माना जाता है। (मुनि निरवशेष रूप में अर्थात् नित्यकालिक न सुनते हैं और न उपासना करते हैं ।) इसलिए मुनि न उपासक होते हैं और न श्रावक । गृहस्थ ही श्रावक और उपासक दोनों होते हैं। (असम्पूर्ण श्रुत के कारण गृहस्थ नित्य श्रवण और उपासना करते हैं अतः वे श्रावक हैं ।) ४९. (प्रतिमा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ) । द्रव्य प्रतिमा के तीन भेद हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । संयतप्रतिमा- प्रव्रज्या लेने के इच्छुक गृहस्थ अथवा उत्प्रव्रजित व्यक्ति का द्रव्य लिंग । जिनप्रतिमा-तीर्थंकर की प्रव्रज्या । भावप्रतिमा – जिन प्रतिमाओं के जो गुण कहे गये हैं, उनको यथार्थरूप में धारण करना । ४२. भावप्रतिमा के दो प्रकार हैं – भिक्षुप्रतिमा और उपासकप्रतिमा । भिक्षुप्रतिमा के बारह तथा उपासकप्रतिमा के ग्यारह प्रकार हैं। भिक्षु प्रतिमाओं का वर्णन आगे किया जाएगा । उपासक प्रतिमाओं का वर्णन यहां करूंगा | ४३. उपासक और साधुओं के गुणों (प्रतिमाओं) का पृथक्-पृथक् निर्देश करने से ये साधु हैं तथा ये उपासक हैं, इस प्रकार सुखपूर्वक जान लिया जाता है। यह गृहस्थ धर्म है और यह साधुधर्म - यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। साधुओं के लिए तप और संयम परम संवेग के साधन हैं । १. मुनि जब केवलज्ञानी हो जाते हैं, तब किसी की उपासना नहीं करते और जब चतुर्दशपूर्वी हो जाते हैं तब किसी का नहीं सुनते । वे कृतकृत्य हो जाते हैं ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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