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________________ नियुक्तिपंचक इधर दुसरा देव देवलोक से च्युत होकर तुम्हारा पुत्र बना। वह पद्मरथ अविनीत घोड़े के द्वारा पथ से च्युत हो गया और अटवी में चला गया। आज प्रात: घूमते हुए उसने तुम्हारा पुत्र देखा। पूर्वभव के स्नेह के कारण उसने अत्यन्त प्रसन्न हृदय से उसे स्वीकार कर लिया। इसी बीच पैर के चिह्नीं से खोजते हुए सेना भी वहीं आ गई। वह हाथी पर चढ़कर अपने नगर चला गया। उसने वह बालक अपनी पत्नी पुष्पमाला को दे दिया : राज ने नमामारोत र ना। स यन्त स्नेह से उसका लालन-पालन हो रहा है। जब मुनि यह वृतान्त बता रहे थे तभी एक दिव्य देदीप्यमान विमान वहां उतरा । उसमें से श्रेष्ठ रत्नों का मुकुट पहने, चंचल मणिकुंडल धारण किए हुए. वक्षस्थल में हार पहने हुए एक देव निकला। वह तीन बार प्रदक्षिणा देकर मदनरेखा के चरणों में गिर पड़ा। उसके बाद वह मुनि के चरणों में बंदना कर धरती पर बैठ गया। तब विद्याभा ने देव का अविनय देखकर कहा अनरेहि नरवरेहि य, परूविया हुँति रायनीईओ। लुप्पति अत्य ते च्चिय, को दोसो तत्थ इयराणं? ॥ -देवता और राजा नीति का प्ररूपण करते हैं। यदि वे भी उसका लोप करते हैं तो दूसरों का तो कहना ही क्या? 'क्रोधादि दोष से रहित, पांच इन्द्रियों का दमन करने वाले, मद का नाश करनेवाले, श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले, तप और संयम से युक्त इय धीर श्रमण को छोड़कर तुमने इस रमणी को पहले वंदना क्यों की?' देव ने कहा-हे विद्याधरराज ! तुमने जो कहा है, वह सत्य है । मैंने इसको प्रथम वंदना की, इसका कारण सुनो। सुदर्शनपुर में मणिरथ नामक राजा था। उसका भाई युगबाहु था। पूर्वभव के वैर के कारण बसंत मास में अपने भाई मणिरथ के द्वारा उसके गर्दन पर प्रहार किया गया। जब मैं मरणासन्न था तब इस मदनरेखा ने जिनधर्म का उपदेश दिया और वैर के अनुबंध को उपशान्त कर दिया। सम्यक्त्व आदि परिणामों से कालगत होकर मैं पंचम कल्प में दस सागर की आयुष्य वाला इंद्र सामानिक देव बना हूँ। यह मेरी धर्मगुरु है क्योंकि इस से मैंने सम्यक्त्व का मूल जिनधर्म स्वीकार किया है। कहा भी है जो जेण सुद्धधम्मम्मि, ठाविओ संजएण गिहिणा वा। सो चेव सस्स जायइ, धम्मगुरू धम्मदाणाओ॥ जो संयमी साधु या गृहस्थ किसी को धर्म में स्थित करता है, वह उसका धर्मगुरु है इसलिए मैंने इसे पहले वंदना की। यह सुनकर विद्याधर ने सोचा-'अहो ! जिनधर्म का कितना सामर्थ्य है? संसार में अनेक ऐसे व्यक्ति हैं, जो दुःख प्राप्त करते हैं पर जिनधर्म में प्रयत्न नहीं करते।' देव ने मदनरेखा से कहा-'साधर्मिणो ! कहो, मैं तुम्हारा क्या प्रिय कर सकता हूं?' मदनरेखा ने कहा-'आप परमार्थ के अलावा मेरा और कोई प्रिय करने में समर्थ नहीं हैं। जन्म, जरा, मरण आदि से रहित मोक्ष-सुख ही मुझे प्रिय है। फिर भी हे त्रिदशेश्वर ! मुझे आप मिथिला ले जाएं, वहां पुत्र का मुंह देखकर मैं परलोक का हित-सम्पादन करूंगी।' तब देवता उसको तत्क्षण मिथिला ले गया। मिथिला तीर्थकर मल्लिनाथ और नमिनाथ की जन्म और अभिनिष्क्रमण भूमि है अत: तीर्थभूमि
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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