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________________ नियुक्तिपंचक प्रतिष्ठान नगर में गए। वहां शातवाहन नामक राजा श्रावक था। उसने 'श्रमणपूजा' नामक उत्सव प्रारम्भ किया। और अंत:पुर में कहा कि अमावस्या और अष्टमी आदि को उपवास करके पारणे में साधु को भिक्षा देकर पारणा करना चाहिए। एक बार पर्युषणाकाल निकट आने पर शातवाहन को आचार्य कालक ने कहा कि भाद्रव शुक्ला पंचमी को पर्युषणा होती है। राजा ने कहा-'उस दिन मेरे यहाँ इन्द्र-महोत्सव होगा अतः मैं उस दिन साधु और चैत्य की पर्युपासना नहीं कर सकूँगा अतः षष्ठी के दिन पर्युषणा कर ली जाए।' आचार्य ने कहा-'पंचमी के दिन का अतिक्रमण नहीं हो सकता। राजा ने निवेदन किया कि फिर चतुर्थी को ही पर्युषणा कर ली जाए। आचार्य ने कहा कि ऐसा संभव है अत: चतुर्थी के दिन ही पर्युषणा की गयी। इस प्रकार कारण उपस्थित होने पर चतुर्थी को भी पर्युषण मनाया गया। ९. ईर्यासमिति की जागरूकता एक साधु ईर्या समिति में उपयुक्त था। उसकी साधना के प्रभाव से इन्द्र का आसन चलित हो गया। इन्द्र ने देवताओं के मध्य उसकी प्रशंसा की। एक मिथ्यादृष्टि देव इस प्रशंसा को सह नहीं सका अत: वह उस साधु के निकट आया। उसने मक्खी जितने प्रमाण की मेंढ़कियों की विकुर्वणा की। पूरा मार्ग मेंढ़कियों से समाकुल हो गया। उसी मार्ग पर पीछे से एक हाथी दौड़ता हुआ आ रहा था। उसका भरा था पर मुनि ने अपनी गति में भेद नहीं किया। वे ईर्यापूर्वक मार्ग में चलते रहे। हाथी निकट आया और उसने मुनि को सूंड से पकड़ ऊपर उछाला। उस समय मुनि ने अपने शरीर की परवाह नहीं की। नीचे गिरने पर सत्वों की हिंसा होगी इस दयाभाव में परिणत होकर वे ध्यानस्थ हो गए। १०. मनोगुति एक श्रेष्ठीपुत्र अपनी पत्नी को छोड़कर प्रवजित हो गया। एक बार वह शून्यगृह में प्रतिमा में स्थित था। उसकी पत्नी एक पारदारिक के साथ उसी शून्यगृह में आयी। अंधकार सघन था। वहां एक मंचक था । स्त्री ने मंचक को उठाया। न दीखने के कारण पंचक का एक हिस्सा (पाया) मुनि के पैर पर रख दिया। मुनि को मंचक के उस पाये को कोल की चुभन महसूस होने लगी। पर वे प्रतिमा में स्थित थे। पारदारिक ने उसके साथ रतिक्रीड़ा की। मुनि ने दोनों को अनाचार का सेवन करते देख लिया, जान लिया पर वे विचलित नहीं हुए। वे प्रतिमा में स्थिर रहे। १. ३. दनि ६८, दचू प. ५५। २. दनि ९१, दचू प. ५९। दनि ९२, दचू प. ६०, दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति की ८-१० इन तीन कथाओं का क्रमांक आगे अनुवाद के पादटिप्पण में नहीं लग पाया है अत: इनको क्रम की दृष्टि से अंत में रखा है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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