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________________ नियुक्तिपंचक माक्रमण कर उसे स्तंभित कर दिया है । कुरर पक्षी के वशीभूत वह सर्प 'चौंपी' करते हुए मेंढक को खाने का प्रयत्न कर रहा है और वह करर पक्षी रौद्र रूप से सपं का खण्ड-खण्ड कर खाए जा रहा है। कुरर, सर्प और मंडूक के परस्पर घात-प्रत्याघात को देखकर जयघोष प्रतिबुद्ध हुआ। गंगा को पारकर श्रमणों के निवास स्थान पर आया और करुणा से ओतःप्रत होकर वह बाह्य तथा आभ्यन्तर अन्थियों से मुक्त होकर, असार केशों के साथ-साथ समस्त क्लेशों का परित्याग कर, प्रजित हो गया, निर्धन्य बन गया। वह पांच महाव्रतों से युक्त, पांच इन्द्रियों से संवत, संयम गुणों से संपन्न, पापों का शमन करने वाला तथा संयमयोगों में चेष्टा करने वाला तथा उन्ही में यतनाशील रहकर प्रवर श्रमण बन गया । ४६८-७६. जयघोष मुनि एकरात्रिकी प्रतिमा को स्वीकार कर, विहार करते-करते वाराणसी नगरी पहुंचे। वहाँ एक उद्यान में ठहरे । मासखमण की दीर्ष तपस्या के कारण उनका शरीर क्षीण हो गया था। वे भिक्षा के लिए ब्राह्मणों के यज्ञबाट में उपस्थित हए । विजयघोष ने जयघोष से कहा-भंते ! आप यहां क्यों आएं हैं ? हम आपको यहां कुछ नहीं देंगे । आप अन्यत्र जाकर भिक्षा मांगें । याजक के द्वारा राजवाट में जाने से रोकनेररिमा का सार जानने वाले मुनि न संतुष्ट हुए न कष्ट हुए । मुनि ने याजक से कहा-'आयुष्यमान् ! सुनो, साधु के आचार में प्रतचर्या और भिक्षाचर्या निर्दिष्ट है । जो व्यक्ति राज्य और राज्यधी को छोड़कर प्रवजित होते हैं, वे भी भिक्षाचर्या का अनुसरण करते हैं क्योंकि निस्संग श्रमण के लिए भिक्षाचर्या घरण-करण का हेतुभूत तत्त्व है।' इन सब तथ्यों को समझकर याजक विजयघोष ने जयघोष से कहा--'भगवन् ! हमारे यहां बहुत भोजन सामग्री है । आप कृपा करके भिक्षा लें।' जयघोष ने कहा-'मुझे अभी भिक्षा से प्रयोजन नहीं है। मुझे धर्माचरण से ही मतलब है । तुम धर्माचरण करो तथा संसार-भ्रमण की परम्परा का अन्त करो।' जयघोष मुनि का धर्मोपदेश सुनकर विजयघोष भी प्राणित हो गया । जयघोष और विजयघोष-दोनों ही कर्मों को क्षीण कर सिद्धिगति को प्राप्त हो गए. छम्मीसा अध्ययन : सामाचारी ४७७,४७८. साम शब्द के पार निक्षेप है--नाम, स्थापना, द्रव्य और भाय। द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं ---आगमतः, नो-आगमत: । नो-आगमतः के तीन भेद है—शरीर, भव्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त में शर्करा आदि द्रव्य साम हैं । भावसाम में इच्छा, मिच्छा आदि दस प्रकार गिनाए गए हैं। ४७८।१,२. इच्छाकार, मिन्छाकार, तथाकार, आवश्यकी, नषेधिकी, आपृच्छना, छंदना, उपसंपदा, निमंत्रणा-ये इस प्रकार की सामाचारियां हैं, जो यथाकाल की जाती हैं। इन सबकी पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की आएगी। ४७९,४८०. आचार शब्द के चार निक्षेप हैं नाम, स्थापना, पुष्य और भाव। द्रष्य के दो भेद है-आगमतः, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद है-शरीर, भव्यशरीर, तवव्यतिरिक्त । तदम्यतिरिक्त आपार में नामन आदि क्रियाएं आती हैं। भाष-आधार में दसविध सामाचारी का आवरण प्राप्त है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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