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________________ ५६८ नियुक्तिपंचक जाएं। उचित समय पर हम अन्य उपाय करेंगे। राजा ने मंत्रियों की बात स्वीकार कर ली। इधर नमि राजा ने आकर नगर को चारों ओर से घेर लिया। जनश्रति से साध्वी सव्रता के पास भी यह बात पहुंची। उसने सोचा---'जन और धन की हानि कर ये दोनों अधोगति में न जाएं इसलिए मैं जाकर उन दोनों को उपशान्त करूंगी।' मुखिया साध्वी की आज्ञा लेकर साध्वियों के साथ साध्वी सुव्रता सुदर्शनपुर गई । आर्या सुव्रता ने नमि राजा को देखा । नमि राजा ने आदरपूर्वक साध्वी को आसन दिया । सार्ध्व सुव्रता को बंद कर नमिरादा नाम पर बैठ गया। साध्वी सुव्रता ने निःसीम सुख के निमित्तभूत जिनधर्म की व्याख्या की। धर्म-कथा के अंत में साध्वी ने कहा-'राजन्! यह राज्य श्री असार है। विषय-सुखों का विपाक बहुत दारुण होता है। पापी व्यक्ति अत्यधिक दुःखप्रद स्थान नरक में उत्पन्न होते हैं इसलिए इस संग्राम से तुम निवृत्त हो जाओ। रहस्य की बात यह है कि ज्येष्ठ भाई के साथ कैसा संग्राम?' नमिराजा ने कहा-'क्या वह मेरा ज्येष्ठ भाई है।यह कैसे?' साध्वी सुव्रता ने अपना सारा वृत्तान्त सप्रमाण उसे सुना दिया। फिर भी अभिमानवश वह युद्धभूमि से उपरत नहीं हुआ। तब साध्वी सुव्रता एक छोटे दरवाजे से नगर में प्रवेश कर राजभवन में गई। जैसे ही उसने राजभवन में प्रवेश किया, परिजनों ने उसे पहचान लिया। चन्द्रयश राजा ने 'साध्वी माता को वंदना की। उनको आदरपूर्वक स्थान दिया और स्वयं धरती पर बैठ गया। अंत:पुर के सदस्यों ने आर्या के आगमन की बात सुनी। वे अश्रुपूरित नयनों से आए और सास्त्री सव्रता की चरण-वंदना की। राजा चन्द्रयश ने साध्वी से कहा-'यह दुर्धर व्रत क्यों स्वीकार किया है?' आर्या सुव्रता ने अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाया । चन्द्रयश ने पूछा-'मेरा छोटा भाई अभी कहां है?' आर्या ने कहा--जिसने तुम पर आक्रमण किया है, वहीं तुम्हारा छोटा भाई है।' यह सुनकर हर्ष से रोमांचित होकर वह नगर से निकला। नमिराजा भी अपने बड़े भाई चन्द्रयश को आते देखकर दौड़ा और उनके चरणों में गिर पड़ा। बड़े आदर-सत्कार और हर्ष के साथ चन्द्रयश ने अपने छोटे भाई को नगर में प्रवेश करवाया। चन्द्रयश ने नमिराजा को सम्पूर्ण अवंती जनपद का राज्य देकर उसका अभिषेक किया फिर महाराजा चन्द्रयश श्रामण्य को स्वीकार कर सुखपूर्वक विहरण करने लगे। नमिराजा दोनों देशों पर नीतिपूर्वक राज्य करने लगा। उसका अनुशासन अत्यन्त कठोर था। एक बार राजा नमि को दाहज्वर हो गया। उसने छह मास तक उसकी घोर वेदना सही। वैद्यों ने रोग को असाध्य बता दिया। दाहश्वर को शांत करने के लिए रानियां चंदन घिसती रहीं। चंदन घिसते हुए उनके हाथ के कंकण बज रहे थे। कंकण की आवाज से पूरा राजभवन गुंजित हो रहा था। कंकण को आवाज राजा के कानों को अप्रिय लग रही थी। राजा ने कहा कि इस आवाज से मेरे कानों पर आघात सा लगता है। सभी रानियों ने सौभाग्य चिह्न स्वरूप एक-एक कंकण को छोड़कर शेष सभी कंकण उतार दिये। कुछ देर बाद राजा ने मंत्री से पच्छा-'कंकण का शब्द क्यों नहीं बज रहा है?' मंत्री ने कहा-'राजन्! कंकण के घर्षण से होने वाली ध्वनि आपको अप्रिय लग रही थी अत: सभी रानियों ने एक-एक कंकण के अतिरिक्त शेष कंकण उतार दिये हैं। अकेले कंकण से घर्षण नहीं होता अत: घर्षण के बिना शब्द भी नहीं हो सकता। यह सुनकर राजा नमि ने परमार्थ का चिंतन किया--'सुख अकेलेपन में हैं। जहां द्वैत है, अनेक हैं, वहां दुःख है। राजा
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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