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दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति
४२१ १२२. द्रव्य मोह के दो प्रकार है सचित्त, अपित। सचित्त है-स्वजन धन आदि, (अचित्त है-मद्य मादि) । भावमोह के दो प्रकार है-ओघ और विभाग । ओष में मोहनीयकर्म की एक प्रकृति गृहीत है तथा विभाग में अनेक प्रकृतियां-संपूर्ण मोहकर्म गृहीत है।
१२३-१२५. पाठ प्रकार के कर्मों को संक्षेप में 'मोह' कहा गया है। इसका वर्णन पूर्वगत -कर्मप्रवादपूर्व में है। उसके एकार्थक ये हैं पाप, वज्यं (अवध), वैर, पनक, पंक, क्षोभ, असाता. सङ्ग, शल्प, अरस, निरत, धुत्त, कर्म, क्लेश, समुदान, मलिन, माया, मल्पाय, द्विपक्ष तथा संपराय।
१२६. यह मोहनीय तथा महामोहनीय कर्म अशुभ है । इसका अनुबंध दुःखमय होता है। इससे दुःखपूर्वक छुटकारा होता है और यह वीर्घ स्थिति वाला होता है। इसका अनुभागबंध सघन और चिकना होता है।
१२७. जिनेश्वर देव ने लोगों को ऐसा कहा है और प्रकाशित किया है कि साधु, गुरु, मित्र, बांधव, श्रेष्ठी. सेनापति मादि के वध से सघन मोहनीय कर्म का बंध होता है।
१२८. इससे महती आशातना तथा जिनवचन के विलोपन की प्रतिबद्धता होती है तथा अशुभ कर्म बंध और दुःख का बंध होता है, इसलिए मोहनीय कर्मबंध के सभी कारणों का वर्जन करना चाहिए। कश्या या निशा
१२९. आजाति तथा स्थान शब्द के चार-चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । स्थान का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है । प्रस्तुत में भावस्थान का प्रसंग है।
१३०. द्रव्य आजाति का अर्थ है-द्रव्य का स्वभाव । भाव आजाति है-अनुभवन । उसके दो प्रकार हैं- ओघतः आजाति भौर विभागतः आजाति । विभागत: आजाति के छह प्रकार हैं । ओषतः आजाति है--संसारी जीव ।
१३१. आजाति के तीन प्रकार हैं—जाति, आजाति और प्रत्याजाति । जाति हैसंसारस्थ प्राणियों की नरक आदि गतियों में उत्पत्ति । नाजाति है-सम्मूछनज, गर्भ और उपपात से जन्म ।
१३२. एक भव से च्युत होकर पुन: उसी में जन्म लेना प्रत्याजाति है । यह केवल मनुष्य और तिर्यचों के ही होती है।
१३३. एकान्ततः असंयत का मोक्ष नहीं होता । निश्चित ही उसकी माजाति होती है। किस विशेषता से थमण अनाजाति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होता है ?
१३४-१३६. जो श्रमण मूलगुणों और उत्तरगुणों का अप्रतिसेवी होता है, उनका नाश नहीं करता, इहलोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होता, सदा विविक्त भक्त-पान, उपधि, शयनासन का सेवन करता है, प्रयत्नवान--अप्रमत्त होता है, तीर्थकर, गुरु और साधुओं के प्रति भक्तिमान् होता है, हस्तपाद से प्रतिसंलीन, पांच समितियों से समित, कलह, झंझा, पैशुन्य से विरत तथा अवधानविरतस्थिर संयमवाला होता है, वह प्रायः उसी भव में सिद्ध हो जाता है। कोई-कोई श्रमण भविष्यत् काल में सिद्ध होता है। किस दोष के कारण श्रमण आजाति को प्राप्त होता है।