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________________ २२८ नियुक्तिपंचक ५२४, नोकर्म का अर्थ है द्रव्यकर्म । वह लेप्यकर्म, काष्ठकर्म आदि के रूप मे गृहीत है । आठों ही कर्मों के उदय को भावकर्म कहते हैं। ५२५,५२६. प्रकृति के चार निक्षेप है-नाम, स्थापना, ट्रव्य और भाव । द्रव्य के दो भेद हैं-आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमत: के तीन भेद हैं-ज्ञशारीर, भक्ष्यशरीर, तद्व्यतिरिक्त । तव्यतिरिक्त के दो भेद है-कर्म और नोकर्म। यहां कर्म को अनुदय रूप माना है। यह द्रव्य प्रकृति है। ५२७. नोफर्म द्रव्य में ग्रहणप्रायोग्य कर्म तथा मुक्तकम गृहीत हैं। भाव में मूल और उत्तर प्रकृतियों का उदय प्राप्त है। ५२८, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश-कर्मों की इन अवस्थाओं को भली प्रकार से जानकर सदा इनके संवर और क्षपण के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । चौतीसवां अध्ययन : लेश्या अध्ययन ५२९-३१. लेण्या शम्द के पार निक्षेप है नाम, स्थापना, प्रश्य और भाव । द्रव्य के दो भेद -आगमतः, नो-आगमतः । नो-आगमतः के तीन भेद हैं . जशरीर, भत्र्यशरीर, सदष्यतिरिक्त । तथ्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कमलेश्या, नोकर्मले श्या। नोकर्म लेश्या के दो भेव --जीवले श्या, अजीटलेष्णा । 'जीवले या के दो प्रकार हैं -भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक । दोनों के सात-सात प्रकार हैं । (करुण आदि छह लेश्याएं तथा सातबी लेश्या है संयोगजा।) ५३२,५३३. अजीव लेश्या के दो भेद है- कर्मलेश्या, नोकर्मलेश्या। नोकर्म द्रव्यलेश्या के दस प्रकार है-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, आभरण, आच्छादन, आदर्शक- दर्पण, मणि और काकिणी-चक्रवर्सी के रत्नविशेष की प्रभा। यह दश प्रकार की अजीव द्रव्यलेश्या है । ५३४. द्रध्यम म-लेश्या के छह प्रकार है-कृष्ण, नील, कापोत, तेज,, पन और शुक्ल । ५.३५. भायलेण्या के दो प्रकार है : विशुद्ध और अविशुद्ध । विशुद्ध भावलेण्या के दो भेद हैंउपणास कषाय और क्षीण कषाय । ५३६. अविशुद्ध भावलेश्या के नियमित दो भेद हैं राग और द्वेष । यहाँ कमलेश्या का अधिकार है। ५३७. नोकर्मलेश्या वे दो भेद है ---प्रायोगिक और वैनसिक। जीव के छहों लेश्याओं के उदय को भाषलेश्या कहते हैं। ५३८,५३९. मध्ययन शब्द के पार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, दम्य और भाव । तप के दो भेष है - आगमत:, नो-आगमतः। नो-आगमतः के तीन भेद है-शरीर, मश्यशरीर और सरित। तवष्यतिरिक्त अध्ययन में पुस्तके आदि गृहीत है। अध्यात्म का आनयन माव मध्ययम है। ५४०. इस लेश्याओं का शुभ-अशुभ परिणाम जानकर अप्रशस्त को छोड़कर प्रशस्त लेश्याओं में प्रयाशील रहना चाहिए।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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