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________________ ३६४ निर्मुक्तिक ४३. महर्षियों ने अपने आत्म- उन्नयन के लिए जप, तप, संयम और ज्ञान में होने वाले मान को भी त्याग दिया है, तो भला आत्मोत्कर्ष हेतु दूसरों की निन्दा के त्याग की तो बात ही क्या है ? ४४. मदों का मंथन करने वाले अहतों ने निर्जरामद का भी प्रतिषेध किया है, इसलिए अवशिष्ट सभी मदस्थानों का प्रयत्नपूर्वक परिहार करना चाहिए । तीसरा अध्ययन : उपसर्ग-परिक्षा ४५,४६. इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। पहले उद्देशक में प्रतिलोम तथा दूसरे उद्देशक में अनुलोम उपसर्गं प्रतिपादित हैं। तीसरे उद्देशक में अध्यात्म का विशेष उपदर्शन तथा परवादिवचन का निरूपण है। चौथे उद्देशक में हेतु सदृश अहेतुओं के द्वारा जो अन्यतीर्थिकों से व्युद्ग्राहितप्रताड़ित हैं, उन शील-स्वलित व्यक्तियों की प्रज्ञापना है । ४७. उपसर्ग शब्द के नाम स्थापना आदि छह निक्षेप हैं। द्रभ्य उपसर्ग के दो प्रकार हैं ---चेतनकृत तथा अवेतन कृत । जो आगन्तुक उपसर्ग हैं, वह (शरीर तथा संयम का ) पीड़ाकारी होता है । ४८. जिस क्षेत्र में सामान्यत: अनेक भयस्थान होते हैं, (जैसे― चोर, क्रूर व्याधि तथा देश) है। उपसर्ग एकान्त दुष्षमाकाल आदि । कर्मों का उदय भाव उपसर्ग है । वह दो प्रकार का है---औधिक तथा औपक्रमिक । ४९. ऋमिक उपसर्ग संयम - विघातकारी होता है । द्रव्य कोपॠमिक उपसर्ग चार प्रकार का है - दैविक, मानुषिक, तैर्यश्चिक तथा आत्मसंवेदन प्रस्तुत में ओपक्रमिक उपसर्ग का प्रसंग है । ५० प्रत्येक के बार-बार प्रकार हैं। दैविक आदि चार प्रकार के अनुकूल तथा प्रतिकूल के भेद से आठ भेद होते है । दैविक यादि चार भेदों के चार-चार प्रकार करने से ४ x ४ सोलह भेद होते हैं। इन उपगों का संबंध होना तथा उनको सहने के प्रति यतना रखना- यह इस अध्ययन में प्रतिपादित है। यही इसका अर्वाधिकार है । ५१. कोई पुरुष मंडलाय से किसी मनुष्य का शिरछेद कर पराङमुख होकर बैठ तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा ? जाए ५२. कोई व्यक्ति विष का घूंट पीकर चुपचाप बैठ जाए और वह किसी के दृग्गोचर भी न तो क्या वह उस विष के प्रभाव से नहीं मरेगा ? ५३. कोई व्यक्ति भांडागार से रत्नों को चूराकर उदासीन होकर बैठ जाए तो क्या वह अपराधी के रूप में नहीं पकड़ा जाएगा ? १. आदि शब्द से जो जिस क्षेत्र में दुःखोत्पादका हो ( ग्रीष्म, शीत आदि) । २. औषिक - - अशुभ कर्म प्रकृति से उत्पन्न reale | औपक्रमिक — दण्ड, शस्त्र आदि द्वारा सावेदनीय का उदय होना । ३. दैविक हास्य से, प्रद्वेष से विमर्श से तथा पृपय् विमात्रा से । मानुषिक हास्य से, प्रवेष से विमर्श से तथा कुशील प्रतिसेवना से । संयश्चिक – भय से प्रद्वेष से आहार से तथा संतान-संरक्षण से । आत्मसंवेदन --- घट्टना से संश्लेष से, स्तंभन से तथा गिरने से । अथवा वात, पित्त, कफ तथा सन्निपात से उत्पन्न । ( सूट वृ. ५२ )
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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