SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१५ निर्मुक्तिपंचक स्थान पर विनप्रतिमा का अवतरण करावो राजा उद्रायण के यहां देवाधिदेव महावीर की प्रतिमा प्रकट हुई। अमंगल देखने पर प्रभावती द्वारा देवदत्ता दासी पर दर्पण का प्रहार । देवदत्ता की मृत्यु । उसका देव रूप में उत्पन्न होता। प्रभावती देव द्वारा उग्रायण को तापस नाश्रम में ले जाना, वहां भमोत्पत्ति | शरण के लिए श्रमणों के पास जाना । I गंधार जनपद में धावक दीक्षा लेना चाहता था। देवाराधना द्वारा उसके यहाँ प्रतिमा का प्रकटीकरण । देवता द्वारा ८०० गुटिकाओं की प्राप्ति । श्रावक का वीतभय नगर में जाना। वहां देवायतन में कृष्णपुटिका दासी द्वारा सेवा (गुटिका के प्रभाव से वह कृष्णगुटिका से स्वर्णगुटिका बन गई ) राजा प्रयोत द्वारा स्वर्णगुटिका एवं देवप्रतिमा का हरण पुष्करतीर्थ की उत्पत्ति राजा उनाण एवं प्रयोग में युद्ध (प्रद्योत को बंदी बनाकर उसके लालट पर यह अंकित किया ) - यह दास है, दासीपति है, बनार्थी है, हमारे यहां बंदी रूप में रह रहा है। जो कोई राजा की जाजा का भंगकर उसे कुपित करता है, यह तथ्य और बंधनयोग्य है।' I 1 पिता से खीर का आगमन | से शिरच्छेद । ९९,१०० धनाढ्य के घर खीर का भोजन देखकर दरिद्र के बच्चों द्वारा का आग्रह पिता ने दूसरों से दूध बादि की याचना कर खीर बनाई चोरों खीर को चोर ले गए। द्रमक ने चोरों का पीछा किया। चोर सेनापति का तलवार भाई को सेनापति बनाया गया। (स्वजनों ने कहा) यदि तुम भाई के घातक को नहीं मारते हो तो तुम्हें धिक्कार है। पकड़े जाने पर नमक बोला- जहाँ शरणागत मारे जाते हैं, वहीं मुझे मारा जाए। प्रमक की मुक्ति । " - १०१.१०२. क्रोध कषाय के चार प्रकार है-पानी की रेखा के समान, बालु की रेखा के समान भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा के समान प्रथम तीनों प्रकार के कुछ ही समय में नष्ट हो जाते हैं परन्तु चौथे प्रकार का क्रोध जब तक पर्वत है, तब तक बना रहता है । अर्थात् यह जीवन पर्यंत बना रहता है जो फोध पानी की रेखा के समान होता है वह उसी दिन के प्रतिक्रमण से या पाक्षिक प्रतिक्रमण से उपनांत हो जाता है जो चातुर्मासिक काल में उपशांत होता है वह कोध बालु की रेखा के समान, जो सांवत्सरिक काल में उपशांत होता है वह भूमि की रेखा के समान तथा पर्वत की रेखा जैसा क्रोध जीवन पर्यंत नष्ट नहीं होता। इनकी गति इस प्रकार है-पर्वत की रेखा सदृश श्रोधी मनुष्य की नरकयति, भूमि की रेखा सदृश की तियंच गति, बालु की रेखा सदृश की मनुष्य गति और उदक रेखा सबुश की देवगति होती है ।) १०२. मान के चार प्रकार हैं-पत्थर के स्तम्भ के समान, अस्थि-स्तम्भ के समान काष्ठस्तम्भ के समान तथा लता-स्तम्भ के समान । माया के चार प्रकार बांस के समान मेंडे के सींच के समान, योमूत्रिका के समान, तथा खिलते बांस के समान लोभ के चार प्रकार हैं- कृमिराग के समान, कर्दम के समान, कुसुंभराग के समान तथा हरिद्राराव के समान । १०४. इसी प्रकार स्तम्भ के समान मान, केतन के समान माया तथा वस्त्रराग के समान लोभ – इन तीनों की भी चार-चार प्रकार की प्ररूपणा की गई है। प्रत्येक प्रकार में गति का क्रम १. देखें परि० ६ ०२ २. देखें परि० ६ कथा सं० ३।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy