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________________ २०२ नियुक्तिपंचक १७२।१०. दशपुर नगर के इक्षुगृह में आयंरक्षिस धृतपुष्यमित्र, वस्त्रमित्र, दुर्बलिकापुष्यमित्र गोष्ठामाहिल आदि शिष्यों के साथ विराजमाम । माठ तथा नवें पूर्व की वाचना । विभ्य द्वारा जिज्ञासा ।। १७२।११. जैसे कंचुकी पहने हुए पुरुष से कंचुकी स्पृष्ट होने पर भी बच नहीं है, वैसे ही कर्म जीव से स्पृष्ट होने पर भी रन नहीं होते। १७२।१२. जो प्रत्याश्यान अपरिमाण अति तीम करण तीन योग से यावज्जीवन के लिए किया जाता है, वह श्रेयस्कर है। परिमित समय के लिए किया गया प्रत्याख्यान बाशंसा के दोष से दूषित होता है। १७२।१३. रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में भावार्य कुष्ण के पास शिषभूति मे दीक्षा स्वीकार की। गुरु से जिनकल्पी सम्बन्धी उपधि का विवेचन सुनकर शिवभूति द्वारा जिन्नासा, गुरु का समाधान । १७२.१४,१५. गुरु द्वारा प्रज्ञप्त सिद्धान्त पर उसे विश्वास नहीं हुआ। रणवीरपुर नगर में बोटिक शिवभूति द्वारा बोटिक नामक मियादृष्टि का प्रवर्तन हुआ । उसके कौडिन्न और कोट्टवीर नामक दो शिष्य हुए । यह परम्परा आगे भी चली। दोषा अध्ययन : असंस्कृत १७३. अप्रमाद शब्द के पार निक्षेप है. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। १७४. प्रमाद के पांच प्रकार है-मय, विषय, कषाय. निद्रा और बिकया। ठीक इनके विपरीत अप्रमाद है। १७५. इस अध्ययन में पांच प्रकार के प्रमाद और पांच प्रकार के अप्रमाद का वर्णन है अत: इस अध्ययन का नाम प्रमादाप्रमाद है। १७६. जो कुछ उत्तरकरण' के द्वारा किया जाता है, उसे संस्कृत जानना चाहिए । शेष सारा असंस्कृत अर्थात् संस्कार के लिए अनुपयुक्त होता है। यह असंस्कृत की नियुक्ति है । १७७. करण शब्द के छह निक्षेप है-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । १७८. व्यकरण के दो प्रकार है-संझाकरण और नौसंशाकरण । संशाकरण के उदाहरणकटकरण, अर्थकरण – सिक्कों की निवर्तक अधिकरणी यादि, बेलूकरण--रूई की पूणी का निवर्तक चित्राकारमय वेण शलाका आदि। १७९. नोसंज्ञाकरण के दो भेद है-प्रयोगकरण तथा विनसाकरण । विस्त्रसाकरण के दो प्रकार है-सादिक और अनादिक । १८०. धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीनों परस्पर संबलित होने के कारण सदा अवस्थित रहते हैं अतः अनादिकरण हैं। अक्षस्पर्श (स्थूल परिणति वाले पुद्गलद्रव्य) तथा अचास्पर्श (सूक्ष्म परिणति वाले पुद्गलद्रव्य)-ये दो साधिकरण हैं। १. देखें परि ६, कथा सं.४२ । ३. अपने मूल हेतुओं से उत्पन्न वस्तु का उत्तर२. वही, कथा सं. ४३। काल में विशेष संस्कार करना उत्तरकरण है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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