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________________ दशायुतस्कंध नियुक्ति १६. चोरों द्वारा साधुओं की चुराई हुई उपधि का पुन: लाम' होना अनिष्ट द्रव्य आसादना है । एषणा शुद्धि से उपधि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इसी प्रकार क्षेत्र, कान्तार, ग्रामानुग्राम विहरण, विषमभिक्ष आदि में अप्रासुक द्रव्य-ग्रहण अनिष्ट द्रश्य आसादना है तथा प्रासुक द्रव्य ग्रहण इष्ट द्रव्य वासादना है। दुर्भिक्ष आदि में आहारादि की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा सुमिव में आहारादि की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। ग्लान आदि के लिए बनेषणीय की प्राप्ति अनिष्ट द्रव्य आसादना तथा एषणीय की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है। इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति के आधार पर यहां आसादना कही गयी है। १७. मान-उन्मान-प्रमाण युक्त द्रव्य की प्राप्ति इष्ट द्रव्य आसादना है तथा हीन अधिक की प्राप्ति अनिष्ट द्रष्य आसादना है। जिस क्षेत्र और काल में इष्ट-अनिष्ट द्रव्य दिया जाता है अथवा उसका वर्णन किया जाता है. वह क्षेत्र और काल की इष्ट-अनिष्ट आसादना है। भाव आसादना के छह प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, शायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सानिपातिक । यहां भाव आसादना का प्रकरण है। १८, छठे सत्यप्रवाद पूर्व के अक्षरप्राभूत में तथा आठवें कर्मप्रवाद पूर्व के आठवें महानिमित्तप्राभूत में 'आ' उपसर्ग वर्णित है । वह अपने अर्थ से युक्तिकृत पद के अर्थ का विशोधिकर है । यह अकस्मात् होने वाली लाभ आसादना है। १९. मिथ्याप्रतिपत्ति अर्थात् सम्यक् स्वीकार न करना । जो अर्थ जैसे सद्भूत होते हैं, उनको वितथरूप में स्वीकार करना आशातना है । २०. इस प्रकार आचरण करता हया शिष्य भले फिर वह संयम और तप में उद्यम कर रहा हो, वह दुःखमुक्त नहीं हो सकता। इसलिए मदस्थानों से होने वाले अपने वात्मोत्कर्ष को प्रयत्न-पूर्वक वर्जित करना चाहिए। २१. सूत्र में जिन आशातनाओं का वर्णन किया गया है, शिष्य बिना किसी कारण से उनका उपयोग न करे। जो शिष्य गुरु को गुरुस्थानीय नहीं मानता, गुरु के प्रति होने वाली आशातनाओं का वर्जन नहीं करता, वह भारीकर्मा होता है। __ २२ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा विनय-ये गुरुमूलक होते हैं। विनय गुरुमूलक होता (तथा दर्शन आदि गुण गुणमूलक होते हैं ।) जो गुरु की आशातना करता है, वह इन गुणों की आशातना करता है २३. सूत्र में जो आशातनाएं वर्णित हैं, उनको जो शिष्य प्रयोजनक्श करता है तथा जो गुरु को गुरुपद के उच्चस्थान पर गिनता है, वह भारीकर्मा नहीं होता। २४. जो गुरु की आशातना करता है, वह स्वयमेव दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि गुणों को प्राप्त नहीं कर सकता, उनका विकास नहीं कर सकता। उसके लिए शान, दर्शन आदि की आराधना की तो बात ही क्या ? इसलिए आशातनाओं का वर्जन करना चाहिए। २५. (गणी शन्दो चार निक्षेप हैं --नामगणी, स्थापनागणी, द्रव्यगणी और भावगणी ।) द्रव्यगणी है-गणिनागकर्म के अभिमुख आदि। भावगणी है-गणी की आठ संपदाओं से युक्त । वह दो प्रकार का है-आगमतः, नोआगमतः । नोआगमत: के दो प्रकार है-गणसंग्रहकारक, उपग्रहकारक तथा जो धर्म-गणिस्वभाव अर्थात गणिसंपदा को जानता है।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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