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________________ उत्तराध्ययन नियुक्ति १८१ २८१२. श्रुत (अनुयोगद्वार सूत्र) के अनुसार अध्ययन के नाम, स्थापना आदि चार भेदों का वर्णन करके अध्ययन, अक्षीण, आय और क्षपणा-इन चारों से विनयश्रुत को सम्बन्ध-योजना करनी चाहिए। २५॥३. जिससे आत्मा में शुभ की अत्यधिक प्राप्ति होती है, अध्यात्म का आनयन तथा संबोध, संयम और मोक्ष का अत्यधिक लाभ होता है, वह अध्ययन है। २८१४, अव्यवच्छित्ति मय अर्थात् द्रव्यास्तिकनय के अनुसार दीयमान अध्यात्म अलोक की भांति अक्षीण है । इससे ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है तथा पाप-कर्मों का क्षय होता है। २९. विनय का पहले वर्णन किया जा चुका है । श्रुत शब्द के चार निक्षेप हैं। द्रव्यश्रुत है-श्रुत का ग्रहण और श्रृत का निलवन करना और भावश्रुत है-श्रुत में उपयुक्त तन्मय । ३०. संयोग शब्द के छह मिश्रण हैं - नाम, स्थापना, इन्य क्षेत्र काल और भाव ! द्रव्य संयोग दो प्रकार का होता है-संयुक्तकसंयोग तथा इतरेतरसंयोग ।। ३१. संयुक्तकसंयोग सचिस्त, अचित्त तथा मिन हव्यों का होता है। सचित्त द्रव्य जैसेदम आदि । अचित्त द्रव्य जैसे-अणु आदि । मिथ द्रव्य जैसे स्वर्ण आदि तथा कर्मसंतति उपलक्षित जीव । ३२. सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोग-द्रुम आदि मूल, कंद, स्कन्ध, त्वक, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल तथा बीज' से संयुक्त होता है । ३३. एक रस, एक वर्ण, एक गंध तथा दो स्पर्श-यह परमाणु का लक्षण है । वे द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में संयुक्त होते हैं । यह अचित्तसंयुक्तकसंयोग है। ३४. मिश्रसंयुक्तद्रव्यसंमोग-जैसे स्वर्ण आदि धातुएं स्वभाव से ही संयोग-संयुक्त होती हैं। इसी प्रकार जीव कर्म-संतति से अनादि संयुक्तक है। ३५. इतरेतरसंयोग का अर्थ है-परस्पर संयोग । परमाणुओं और प्रदेशों का इतरेतरसंयोग होता है । यह दो प्रकार का है—अभिप्रेत तथा अनभिप्रेत । अभिलाप है-बाधक शब्द का सम्बन्ध । ३६. परमाणों में दो प्रकार का इतरेतरसंयोग होता है-संस्थान से सम्बन्धित तथा स्कन्ध से सम्बन्धित । संस्थान विषयक संयोग के पांच प्रकार है तथा स्कन्ध विषयक संयोग दो प्रकार का है। ३७. दो या अधिक परमाणु पुद्गल एकत्रित होकर स्कन्ध बनते हैं। उनका संस्थान अनित्थंस्थ होता है। ३८. परिमण्डल, वृत्त, व्यन, चतुरन और आयत-इन पांचों संस्थानों में प्रथम परिमंडल को छोड़कर चारों सस्थान धन और प्रतर के द्वारा दो-दो भागों में बंटते हैं-ओजःप्रदेशघनवृत्त और युग्मप्रदेश धनवृत्त । ओजःप्रदेश प्रतरवृत्त और युग्मप्रदेश प्रतरवृत्त । इसी प्रकार त्यस आदि के भी दो-दो भेद होते हैं।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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