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________________ ५२८ नियुक्तिपंचक आठवें अष्टक में भोजन और पानी की आठ आठ दत्ती ग्रहण करना। इस प्रकार यह अष्टअष्टमिका भिक्षु प्रतिमा ६४ दिन-रात में पूरी होती है तथा दो सौ अट्ठासी दत्ती ग्रहण की जाती है। इस प्रकार बलऋषि ने अष्ट अष्टमिका, नवनवमिका और दशदशमिका प्रतिमा भी की। बलराम प्राय: एक पक्ष या एक मास से वन काटने वाले लकड़हारों से जो कुछ प्रासुक एषणीय मिल जाता,वही ग्रहण करते। उन लकड़हारों ने जनपद में आकर राजा से कहा- कोई महान् शक्तिशाली दिव्यपुरुष वन में तप कर रहा है।' तब वह राजा संबुद्ध होकर सोचने लगा-'कोई राज्य का अभिलाषी व्यक्ति तप कर रहा है अथवा कोई विद्या साध रहा है अतः जाकर उसे मार डालना ही श्रेष्ठ है। यह सोचकर राजा अपनी सेना के साथ कवच से सन्नद्ध, अनेक प्रकार के शस्त्रों से सज्जित, अनेक यान-वाहन पर आरूढ होकर बलराम मुनि के पास आए। इधर रक्षक देव सिद्धार्थ ने बलराम ऋषि के पास भयंकर मख वाले. बीभत्स दिखाई देने वाले तीक्ष्ण नखान वाले, दारुण तथा केशर सटा से युक्त सिंहों की विकुर्वणा की। तब वे राजा दूर से ही भयभीत होकर उस महाप्रभावी बलदेव ऋषि को प्रणाम कर शीघ्र ही अपने-अपने घर चले गए। लोक में बलदेव नरसिंह के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इस प्रकार बलदेव मुनि प्रतिदिन उपशांत भाव में लीन रहते । बलराम के स्वाध्याय, ध्यान और धर्मदशा माकृष्ट होकार अ ग नीले, खु. गोर , संवर, हरिण आदि उपशांत हो गए। उनमें कुछ श्रावक हो गए. कुछ भद्र प्रकृति वाले हो गए, कुछ ने अनशन स्वीकार कर लिया, कुछ कायोत्सर्ग में स्थित हो गए। वे मांसाहार का त्याग करके बलदेव ऋषि की उपासना करने लगे। वहां एक युवा हरिण भगवान् बलराम मुनि के पूर्वभत्र का परिचित था। उसे जातिस्मृति ज्ञान प्राप्त था। वह अत्यन्त संवेग को प्राप्त था। वह भिक्षा आदि के समय भगवान् के पीछे-पीछे दौड़ता था। एक बार बलदेव भी मासखमण के पारणे हेतु नगर में गए। वहां एक तरुणी कुएं से जल निकाल रही थी। उसने पानी निकालते हुए बलदेव को देखा। बलदेव के दिव्य रूप में वह अत्यन्त आसक्त हो गई। उसकी सारी चेतना बलदेव के रूप-लावण्य में उलझ गई। वह अपना भान भूल गई। उसने घड़े के कंठ में कुंडी लगाने के बदले कटि पर स्थित अपने छोटे पुत्र के गले में वह कुंडी लगाकर रस्सी बांधकर उसे कुएं में लटका दिया। बलदेव ने यह देखा। वह संवेग को प्राप्त होकर सोचने लगे-'मेरा शरीर भी प्राणियों के लिए अनर्थ का कारण है।' अनुकम्पावश बालक को मुक्त कराकर उन्होंने प्रतिज्ञा को–'जहां स्त्रियां नहीं होंगी, वहां यदि भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं।' बलदेव वापिस वन में चले गए। एक दिन अच्छी लकड़ी काटने के निमित्त से कुछ रथकार वन में आकर वृक्ष काटने लगे। कुछ समय पश्चात् वे भोजन करने बैठे। उसी समय मुनि बलदेव भी मासखमण के पारणे के लिए वहां आ पहुंचे। हरिण भी उनके साथ-साथ गया। मुनि बलदेव को देखकर रथकार स्वामी ने सोचा–'हमारे पुण्यों का उदय हुआ है इसीलिए मरुस्थल में भी कल्पवृक्ष प्राप्त हुआ है। अहो! १. एक अन्य मत के अनुसार अभिमानवश बलदेव ने सोचा कि अपने ही नौकरों से भिक्षा कैसे ग्रहण करूं? यह सोचकर वे ग्राम के बाहर लकड़हारों से ही भिक्षा ग्रहण करने लगे।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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