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________________ ३०६ नियुक्तिपंपक २०७. संयम जीवों को अभय देने वाला तथा उनके लिए शीतधर--सुख का आवास है, इसलिए वह शीत है। असंयम उष्ण है। संयम तथा असंयम के आधार पर यन्त्र शीतोष्ण का अन्य पर्याय है। २०८. यथार्थ में निर्वाण सुख ही सुन्न है । उसके एकार्थक मान्द हैं-सात, शीतीभूत, पद, अनाबाघ । संसार में जो कुछ सुख है, वह शीत है और जो कुछ दुःख है, वह उष्ण है। २०९. तीन कषायी, शोक से अभिभूत तथा उदीर्णवेदी---जिसकी काम-भावना विपाक में आ चुकी है-ये सम तीय ताप से जलते हैं। ये सब दाहक होने के कारण उरण हैं। तप इन सव से उष्णतर है । वह कषाम आदि को भी जला डालता है । २१०. जो शीत और उष्ण स्पर्श को सहन करता है, जो सुख-दुःख को सहन करता है, जो परीषह, कषाय, वेर, जोग, नादि को महत है या माग होता है पड़ ा तप, संयम तथा उपशम में पराक्रमशील होता है। २११. भिक्षु को शीत और उष्ण-सभी परीषह सहने चाहिए। उसे कभी काम का सेवन नहीं करना चाहिए । यह शीतोष्णीय अध्ययन की नियुक्ति है। २१२. अमुनि----गृहस्थ सदा मुप्त होते हैं । मुनि सोते हुए भी सदा जागृत रहते हैं । सुप्त और जागृत का कथन धर्म की अपेक्षा से है । जो निद्रा से सुप्त हैं, उनमें जागृति की भजना होती २१३. जैसे सुस्त, मत्त, मूच्छित, अस्वाधीन व्यक्ति अप्रतिकारात्मक बहुत सारे दुःखों को पाता है। वैसे ही जो व्यक्ति भावनिद्रा-प्रमाद, कषाय आदि में रहता है, वह भी तोवतर दुःखों को प्राप्त होता है। २१४. जो विवेकी होता है, वह भाग लगने पर पलायन करता हुआ तथा पंच आदि के विवेक से युक्त होकर जैसे सुख का अनुभव करता है वैसे ही विवेकी श्रमण भी सुस्न का अनुभव करता है। यही उपदेश है। चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व २१५,२१६. चौथे अध्ययन के चार उद्देशक हैं। उनके अधिकार इस प्रकार है—पहले उद्देशक में सम्य म्वाद, दूसरे में धर्मप्रवादुकों की परीक्षा, तीसरे में अनवद्य सप तथा बालतप से मुक्ति के निषेध का प्रतिपादन है। चौथे उद्देशक में संक्षेप में संयम का प्रतिपादन है। इसलिए मुमुक्ष को शान, दर्शन, चारित्र और तप की परिपालना में यत्न करना चाहिए। २१७. सम्यक्त्व के चार प्रकार के निक्षेप है--नाम सम्पक्त्व, स्थापना सम्यक्त्व, द्रव्य सम्यक्त्व तथा भाष सम्यक्त्व । २१८. द्रव्य सम्यक् ऐच्छानुप्लोमिक--इच्छानुकूल होता है। जिन-जिन पदार्थों के प्रति भाव की अनुकूलता होती है, उसे इच्छानुलोमिक द्रव्यसम्यक् कहा जाता है। वह सात प्रकार का है--१. कृत २. संस्कृत-संस्कारित ३. संयुक्त ४, प्रयुक्त ५. त्यक्त ६. भिन्न और ७, छिन्त ।
SR No.090302
Book TitleNiryukti Panchak
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorMahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size19 MB
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