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नियुक्तिया
में निमित्तभूत बनेगा अब यह अविच्छिन्न रहना चाहिए। आज भी शैक्ष साधु-साध्वियों के अचार का प्राथमिक बोध देने हेतु सर्वप्रथम इसी आगम ग्रंथ को कंठस्थ कराया जाता है।
रचनाकार का परिचय
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दवैकालिक के निर्धूहग कर्ता आचार्य शय्यंभव हैं। वे राजगृह नगरी के यज्ञवादी ब्राह्मण थे। अनेक विद्याओं के पारगामी विद्वान् थे। आर्य प्रभव को अपने योग्य उत्तराधिकारी की खोज करनी थी। उन्होंने ज्ञानबल से इय्यंभव ब्राह्मण को इसके योग्य देखा। उनको प्रतिबोध देने हेतु अध्चार्य प्रभव ने दो साधुओं को यज्ञशाला में भेज'। साधुओं ने कहा – 'अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते ।' ऐसा कहकर वे साधु वहा से चले गए। शय्यंभव ने सोचा कि अवश्य इनकी बात में कोई तत्त्व निहित है। उन्होंने अपने अध्यापक से तत्त्व का अर्थ पूछा : अध्यानक ने शय्यंभव को बताया के आर्हत धर्म तत्त्व है। शय्यंभव खोजते खोजते मुनि के पाल पहुंचे और धर्म के यधार्थ स्वरूप को समझकर प्रब्रजित हो गए
रचना का उद्देश्य
जब शय्यभ्व आचार्य प्रभव के पास दीक्षित हुए, उस समय उनकी पत्नी गर्भवती थी । कालान्तर में उनके पुत्र की उत्पत्ति हुई। उसका नाम मनक रखा गया। जब वह अाठ वर्ष का हुआ तब मां की अनुमति लेकर ता की खोज में निकल पड़ा। रास्ते में उसे अधार्य शय्यंभव मिले। परिचय पूछने पर आचार्य को ज्ञात हुआ कि यह उनका अपना पुत्र है। उन्होंने उसे अपने पास दीक्षित कर लिया पर अपना वास्तविक परिचय नहीं बतायण आचार्य शय्यंभव ने अपने ज्ञानबल से जान्न के इसक आयुष्य बहुत कम है तब उन्होंने उसकी सम्यग् आराधना हेतु पूर्वे की विशाल ज्ञानराशि से दशवैकालिक का निर्ऋहण किया। वैसे भी चतुर्दशपूर्वी किसी निमित्त के उपस्थित होने पर पूर्वी से ग्रंथ का निर्धूहण करते ही हैं।
नामकरण
निर्युक्तिकार ने इसके लिये दो नामों का उल्लेख किया है— दसकालिक, दशवैकालिक । उनके अनुसार दसकालिक नाम संख्या और काल के निर्देशानुसार किया गया है। अचार्य शांभव ने मनक के लिए दस अध्ययनों का विकाल में निर्यूहण किया इसलिए इसका नाम दशकालिक पड़ा । *
आगम का स्वाध्याय-काल दिन और रात का प्रथम व अंतिम प्रहर होता है। स्वाध्याय- काल के बिना भी इसका अध्ययन-अध्यापन किया जाता है इसलिए भी इसे दशवैकालिक कहा जा सकता है। इसका दसवां अध्ययन वैतालिक छंद में है अत: स्थविर अगस्त्यसिंह के अनुसार इसका एक नाम 'दसवैतालिक' भी है। आचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार शय्यंभव ने मन के लिए इसकी रचना की। मनक के स्वर्गरथ होने के बाद जहां से उन्होंने इसका निर्ऋहण किया, वहीं वे अन्तर्निविष्ट करना चाहते थे अतः संभव है स्वयं उन्होंने इसका कोई नामकरण न किया हो नर जब इसको स्थिर रूप दिया गया तब आगमकार ने ही इसका
१ दर्शाने ३४९ दशअ पृ. २७१ ।
२. दशचू पृ. ४. ५ चरिमेोदसी असं निज्जूहति बोसी व कारणे
३ दर्शन ७ ।
४ दशनि १४ ।
५. दशअबू ५.३ दसभं 'लालितेहिं 'थनितमज्यणनिति दसवेलनियें ।