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परिशिष्ट ७ : परिभाषाएँ
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तज्जणा-तर्जना। प्रर्बना अंगुलिभ्रमणभूत्क्षेपादिरूपा। अंगुलि दिखाकर या भौंहे चढ़ाकर तिरस्कार करना या डांटना तर्जना है।
(उशांटी.प. ४५६) दव-तप । तवो णाम तावयति अट्टविहं कम्मर्गठिं नासेति ति वुर्त भवइ। जो आठ प्रकार की कर्मग्रन्थि को तपाता है, नष्ट करता है, वह तप है।
(दशजिचू. पृ. १५) तपरिणीय-तपविनीत। अवणेति तपेण तसं, उवणेति य मोक्खमग्गमप्पाण।
तव विणय-निच्छितमती, तबोविणीओ हवति तम्हा ।। जो तपस्या से अज्ञान को दूर करता है तथा आत्मा को स्वर्ग और मोक्ष के निकट ले जाता है, वह तपोविनीत कहलाता है।
(दशनि.२९५) तवस्सि-तपस्वी। तबस्सी नाम जो उग्गतवचरणरओ।
तपस्वी वह है, जो उग्र तपस्या के आचरण में रत रहता है। (दशहाटी. ३१) • तपस्सी णाम तवो बारसविधो सो जेसि आयरियाणं अस्थि ते तवस्मिणो।
जो बारह प्रकार के तप में रत रहता है, वह तपस्वी है। (दशअचू. पृ. २२३) तहामप-तथागत। तहागता णाम खीणरागदोसमोहा केवलजीवसभावस्था।
जिनके राग, द्वेष और मोह सर्वथा क्षीण हो गए हैं, जो केवल आत्मस्वभाव में लीन हैं, वे तथागत हैं।
(आचू, पृ. १२२) ताइ-त्रायी । संसारमहाभयादात्मानं त्रायतीति नायी।
संसार के महान् भय से आत्मा की रक्षा करने वाला त्रायी होता है। (उचू. पृ. १७१) वालपुड-तालपुट । तालपुहं नाम जेणंतरेण ताला संपुरिति तेणंतरेण मारयतीति तालपुई।
जितने समय में दोनों हाथों को हथेलियां बंद की जाएं, उतने समय में जो मार देता है, वह तालपुट विष है।
(दशजिचू. पृ. २९२) तावस-तापस । तवो से अस्थि तावसो। जो तप करता है, वह तापस--तपस्वी है।
(दशअचू. पृ. ३७) तिगुत्त-त्रिगुप्त। तिगुत्ता मण-धयण-कायजोगनिग्गहपरा। जो मन, वचन और काया के योग का निग्रह करते हैं, वे त्रिगुप्त हैं।
(दशअचू. पृ. ६३) तित्य-तीर्थ । निजति ज तेण तहिं या तरिब्बइ सि तित्थं । जिससे या जहां से तैस जाता है, वह तीर्थ है।
(सूचू.१ पृ. २) तित्यगर-तीर्थंकर । संसारमहाभयातो भवियत्रणमुपदेसेण प्रायन्तीति परतातिणो तित्थकरा। जो भव्य लोगों को अपने उपदेश से संसार के महान् भय से त्राण देते हैं, वे परत्राता-तीर्थकर
(दशअचू.प. ५१) तुंबाग-बीया। तुंबागं जं तयाए मिलाणममिलाणं असो त्वम्लानं ।
तुंबाग नाम ज तयामिलाणं अभंतरओ अयं ।