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श्रोत्रीतरागाय नमः
जीव और कर्मविचार
सत्य अनादि है तो मिध्या भी तो मध्य भी दिल हा है। दिवसका साम्राज्य है वहां पर रात्रि होनी हो हो मित्र और शत्रु की लहर प्रसिद्ध हो है । ठीक इसी प्रकार अनुकु ना प्रतिकृता सर्वत्र अनादि कालसे हो रही है ।
संसार लम्यक्त्व अनादि काल्ते है तो साथमें यह भी मानना पडेगा कि मिध्यात्व भी अनादि कालसे हैं । जैनधर्म अनादिनिधन है तो भी अनादिनिधन है ।
मिथ्यात्व दो प्रकार है । द्रव्य मिध्यात्व और मात्र मिध्यात्व | भाव मिथ्यात्व को अगृहीत मिध्यात्व या सत्रान मिथ्यात्व करते है। - मिथ्यात्व अनत भेद है तो भी समस्त मिध्यात्वोंका अंतर्भाव पात्र भेदोंमें हो जाना है।
"
संसारमें जितने मत-ननांतर दीख रहे हैं। जो नए हो चुके हैं अथवा इससे भी अधिक भविष्य में प्रादुर्भाव होंगे उनमें से दि० जैन मत जसे छोड़कर बाकी सब मन (धर्म) द्रव्य मिध्यात्व हैं ।
the
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२]
जीव और फर्म- विचार ।
पदार्थों में विपरीतता - कारण - विपर्यास, भेद- विपर्यास और
लक्षण विपर्यास से होती है । पदार्थोंमें जो विपरीतता दीख रही
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है या भिन्न भिन्न मत मतांतरोंकी कल्पना हो रही है उसका मूलकारण यह है कि पदार्थोंमें कारण विपर्यास समझ रक्खा है । भेद - विपर्यास और लक्षण ( स्वरूप ) विपर्यास इन विपरीत स्वरूपों का यथार्थ ज्ञान एकमात्र सर्वज्ञ को ही होता है । सर्वज्ञ प्रभुका ज्ञान सर्वव्यापी है और सर्व कालवर्ती अमूर्त पदार्थो को भी प्रत्यक्ष करने वाला है । छद्मस्थ जीवोंका ज्ञान अपरिपूर्ण ज्ञान है वह भी इन्द्रिय और मनके द्वारा होनेसे अमूर्तीक पदार्थों का ज्ञान नहीं करा सक्का ? एवं सर्वकाल और सर्वक्षेत्रवर्ती पदार्थीको ज्ञान नहीं करा सका इसलिये इन्द्रिय-जनित ज्ञानमें कारण विपर्यासनादि त्रिप र्यासता अवश्य ही होती है । इसीलिये छद्मस्थ जीवोंको जितना परिज्ञान होता है वे उस ज्ञानसे पदार्थ के सत्य स्वरूपको प्रकट नहीं कर सके हैं । द्रव्य मिथ्यात्वकी उत्पत्ति इसी कारण से होती हैं। द्रव्य मिथ्यात्व के नॉकर्म यहा हुडावसर्पिणी कालमें चढ़ते रहते हैं इसीसे इससमय द्रव्य- मिथ्यात्व की वृद्धि शघ्र शीघ्र हो रही है, यह सब हुडावसर्पिणी काल काही दुर्निवार प्रभाव है । हुंडा सर्विणी कालके सिवाय अन्य कालमें प्राय: एक जैनधर्मही रहता है द्रव्य - मिथ्यात्वका वाह्यस्वरूप सर्वथा प्रकट नहीं होता है इसीलिये जैनधर्मको शाश्वत धर्म, सनातन धर्म, अनादिनिधन धर्म, माना है । जैनधर्मकी आदि नहीं है । जैनधर्म का अंत नहीं है ।
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जीव और कर्म विचार |
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विदेहादि क्षेत्रों में एक मात्र जैनधर्म ही अनादिकाल से अविच्छिन्न रूपसे चला आरहा है और अनंतकाल पर्यंत इसी प्रकार खला जायगा | विदेहक्षेत्र में जैनधर्मके आयतन अनादिकाल से हैं और अनतकाल पर्यंत रहेगें, किसी कालमें इनका अभाव नहीं होगा | जैन- गुरु, जैन-धर्म, जेन चैत्यालय, जैन- चैत्य और जैनागमका प्रभाव सर्वकालमें वहापर प्रकाशमान बना रहता है । व की प्रजा सर्वकाल मे एकमात्र जैनधर्मका ही सेवन करतो है अन्य धर्म का स्वरूप वहावर सर्वथा प्रकट नहीं होता है ।
विदेहक्षेन में ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, देवी-देवताओंके आयतन वे उनके उपासक सर्वया उत्पन्न नहीं होते हैं । कुशासनों का आगम व उनके गुरु नहीं होते है ।
वस्तु की परिस्थितिका विचार करनेसे यह सबको सहजमें विदित होना कि संसारका मूल कारण एक मिथ्यात्व है और मोक्षका मूलकारण एक सम्यक्त्व है ।
सम्यक्त्व वस्तु सत्य स्वरूपका प्रकाश करता है और मिथ्यात्य वस्तुके असत्य स्वरूपका प्रकाश करता है । सत्य स्वरूपकी प्राप्ति होनेसे जीवोंको हेयोपादेयका सत्य सत्य परिक्षान होता है । पर वस्तुमें उदासीनता प्रकट होती है और आत्मवस्तुकी चाहना होती है । इस प्रकारकं परिज्ञान से सम्यग्दी जीव अपने वर्तमान स्वरूप को विवारता है और आत्मा के वास्तविक स्वरूप को भी विचारता है ।
शुद्ध आत्मा और अशुद्ध आत्मा इस प्रकार आत्मा के दो भेद
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नीव और कर्म-विधार। है। संसारी जीवोंकी अशुद्ध मात्मा होती है और मोक्षके जीवोंकी शुद्ध मात्मा होती है।
शुद्ध आत्मा समस्त फर्मोसे रहित होती है इसलिये वह अम्. तीक, शुद्ध ज्ञान, शुद्ध-दर्शनमय, टंकोत्कीण ज्ञायक स्वभाव वाली है। अनंत सुख-संपन्न होती है, निईन्द्र होती है, उन्म मरण शोफ भय चिंता क्लश आदि उपद्रवोंसे रहित होती है, क्रोध-भान-माया लोभ, काम-धिकार और सब प्रकार की इच्छाओंसे रहित परमशांत, परम निभय,परम निराकुल, हाती है । शुद्ध आत्माके इन्द्रिय
और मन नहीं है। इसलिये शब्द, सश, रस, गंध आदि इन्द्रियों के विषयोंकी कामनासे रहित आत्मीक सुखमें मग्न होती है। __ संसारी आत्मा अशुद्ध आत्मा है, संसारी आत्माओंमें अशद्धता कोसे प्राप्त हुई है । कर्म अनादि हैं। आत्मा भी अनादि है। कोका संबंध संसारी अशुद्ध आत्माके साथ अनादिकालसे है। ___ असलमें संसारी अशुद्ध आत्मा स्वभावसे हो अशुद्ध है ऐसा नहीं है कि आत्मा प्रथम शुद्ध था फिर कोपाधि ले अशद्ध हो गया हो और न ऐसा भी है विशुद्ध अवस्थामें रहता हुआ यात्मा कर्मोपाधिसे अनेक प्रकार अशुद्ध दीखता हो। जिस प्रकार स्फटिक मणिके पीछे जैसे रंगका डाक (परदा ) लगा दिया जाय तो स्फटिक वैसा ही दीखने लगता है । स्फटिकमें अशुद्धता नहीं है संयोग से अशुद्धता प्रतीत होती हैं, ऐसेही जीवमें अशुद्धना नहीं है को। पाधिके संयोगसे अशुद्धता प्रतीत हो रही है।
ऐसा भी नहीं समझना चाहिये कि आत्मा अनादिकालसे
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न और कर्म- विचार ।
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मूक है। परंतु उस अमूर्तीक रूपमें हो कर्मको छाया आत्मापर पट रही है। जिस प्रकार अमूर्तीक आकाश पर अभ्रको छाया प ड़ती है ।
ऐसा भी नहीं समझना चाहिये कि आत्मा प्रथम बद्ध नहीं थी कमोंके संयोगसे पुन, बंधा हो गई। ऐना भी नहीं मानना चाहिये कि आत्मा प्रथम गुण रहिन था पीछेले कमोंके संयोगले सगुण बन गया है ।
आत्मा अनादि कालसे हो अशुद्ध है। अशुद्धताका कारण भात्माकी वैभाविक शक्ति है । समस्त द्रव्योंमें परिणमन होता है । परंतु अशुद्ध पुल और मशुद्ध जीवों का विभाव परिणमन होता है । घाकी द्रव्योंमें स्वभाव परिणमन ही होता है शुद्ध जीव में भी स्वभाव परिणमन होता है । जीव में विभाव-परिणमन अनादिकाल्से है इस विभाग परिणमनमे ही चौरासी लाख जातियोंमें जन्मता और मरता है।
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संसारी श्रात्माका स्वरूप और कर्म संबंध |
आत्मा अनादिकाल से ही शुद्ध है । जिम प्रकार सुवर्णकी मिट्टी में सुवर्ण अनादिकालते हो अशुद्ध अवस्था में है । ऐसा नहीं है कि सुवर्ण किसीने मिट्टी में मिला दिया हो । या प्रथम शुद्ध हो, मिट्टी में मिलने के बाद अशुद्ध होगया हो । परतु स्वभावरूपसे ही मिट्टी में सुवर्ण अपनी अशुद्ध अवस्थामें है । ठीक इसी प्रकार भरमा अनादि कालसे स्वयमेव स्वभावरूपसे अशुद्ध है । वह अशुद्धता आत्मामें भाविक शकिके कारणसे फर्मसंयोग रूप हो रही है। वैभाविक शक्तिके द्वारा आत्माका परिणमन विभावरूप
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1 जीव और कर्म - विचार ।
हो रहा है। उसके द्वारा यह आत्मा नवीन नवीन कर्म-वर्गणाओंको ग्रहण करता है ।
यद्यपि सुक्ष्मरूप से विचार किया जाय तो बंध अनादि और सादिके भेद से दो प्रकार है । मेरु पर्वत आदि पदार्थोंमें अनादि वंध और सादि दोनों प्रकारका बंध हैं। मेरुका आकार और उसका वध अनादि हैं। इसलिये मेरु नित्य है । परंतु समय समय पर बहुत से पुद्गल स्कन्ध उस मेरुमें सर्वद्धिन होते हैं और नि
रित भी होते हैं इसलिये उसमें (मेरुमें) कथंचित् लादि बंध भी है । परंतु मेरुमें अनादि बंध की ही मुख्यता है । इस प्रकार संसारी जीव में भी एक अनादि बंध मुख्य माना है ।
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जिस प्रकार बीज और वृक्ष परंपरा कारणसे अनादि हैं । वृक्षसे वीज और बीज वृक्ष जिस प्रकार अनादि संतति रूप होने से आदि रहित - अनादि है । ऐसा नहीं है कि वीज प्रथम स्वयं सिद्ध हो और किसी एक खास व्यक्तिने उस वीजसे वृश्च बनाया हो ऐसा भी नहीं है कि वृक्ष प्रथम था उसके वाद उस वृक्षमें बीज लगे । इस प्रकार दोनों में से एक को प्रथम मान लिया जाय तो वस्तु की नियामकता किसी प्रकार बन नहीं सक्ती है । इसलिये युक्ति और बुद्धि विचारसे वस्तुका स्वरूप वीज वृक्ष दोनोंको संगति रूप अनादि ही मानना पड़ेगा और है भी ऐसा ही । इसी प्रकार जीव पदार्थ में अनादि बंध कर्म- संततिरूप है ।
वैभाविक शक्तिके द्वारा आत्मा राग-द्वेषरूप अपने भावोंसे परिणमन करता है। रागद्वे पसे आत्माके परिणामोंमें कषायका
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जीव और कर्म विचार। उद्वेग सुदृढ रूपसे जागृत होता है, कषायोंसे परिणामोंमें साति. शय सचिक्कणता प्राप्त होती है और संतप्तता होती हैं । गर्म लोहा गर्म करनेपर पानीको सर्वतोभावसे आकर्षण घरता है उसी प्रकार आत्मा भी रागद्वेषसे कपाय रूप होता है और कषायोंसे नवीन नवीन कर्म-वर्गणाओंको ग्रहण करता है। ____ पर पदार्थोके निमित्तसे आत्मामें रागद्वेष जागृत होते हैं
और उसका द्वार (दरवाजा) मन-वचन-काय हैं, मन-वचन-कायके द्वारा आत्माके प्रदेशोंमें परिस्पंदना होनो है, क्रिया होती है। उसमें भी मुख्य कारण वही आत्माके रागढ़ प भाव हैं उन भावों में कपायोंकी तीव मद आदि विशेष शक्तिसे तीन मंद कर्म-वर्गणाओंमें रस-स्थिति रूप बंध होता है।
यद्यपि मन-वचन-कायके द्वारा ही नवीन कर्म-वर्गणाएं आ. त्माके साथ संबंधित होती हैं और उसमें रस और स्थितिका संबंध कपायोंके द्वारा होता है। ___ मन-वचन-कायकी प्राप्ति पूर्व कर्मों के द्वारा होती है । भावार्थमन-वचन-काय यह पूर्व सवधित फार्मोंका फल है। उन मन. पवन-कायके द्वारा कर्मबंध होता है।
रागद्ध पसे कर्मबंध । फर्मरंधले मन-वचन-काय । मन-वचनकायले रागद्वप और रागद्वषसे पुनः कर्मबंध । इस प्रकार फर्म संतति अनादिकालसे जीवकी हो रही है । इस संततिसे कर्म और आत्माका संबंध अनादि माना जाता है।
प्रथम ऐसा कोई भी समय नहीं था कि जिस समय आत्मा
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जीव और कर्म-विचार। कर्मवंधन रहित बना रहा हो । या रागद्वेष रूप न रहा हो। म. नादि कालसे हो आत्मामें रागद्वेष कर्मके संबंधसे है और उन रागद्वेपसे कर्मोंका संबंध भी अनादि रूप है ही।
यद्यपि प्रति समय आयु-क को छोड़कर अन्य सात फर्मोंका बंध और निर्जरा होती ही रहती है। नवीन कर्मों का वध सतत होता ही है और पूर्ववद्ध कर्मोकी निर्जरा भी सतत् होती रहती ही है। इस प्रकार आत्मा अनादिकालसे सतत् प्रवाह रूप कर्मवद्ध अवस्थामे अशुद्ध रूप ही है ।
समस्त कर्मों में से एक मोहनीय कर्म ऐसा है जिसके द्वारा आत्माकी परिणति किसी अवस्थामें हो ही नहीं सक्ती, अन्य ज्ञानावरण आदि कर्मों का फल (क्षमोपशम) अपने अपने अनुरूप होता है। परंतु एक मोहनीय कर्मका फल उन समस्त कर्म फलों में विपरोतता ला देता है। जिससे आत्माका ज्ञान विपरीत होता है, दर्शन विपरीत होता है । अघातिया कर्ममे मोहनीय कर्म विशेष कार्य नहीं करता है क्योंकि अघातिया कोसे आत्माके गुणोंका विशेष धात नहीं होता है। इसलिये उस पर विचार भी नहीं किया है।
मोहनीय कर्मके उदयसे जीवोंमें रोगषकी जागृति विशेष रूपसे बनी रहती है। जिससे पर-पदार्थ में अभिरुचि, विपरीत श्रद्धान, आत्मश्रद्धानका अभाव, असत्य पदार्थों में प्रमाणता और सत्य पदार्थमें अप्रामाणिकता होती है
इन्द्रिय जनित ज्ञानमें विपरीतता भी मोहनीय कर्मके उदयले
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जीव गौर फर्म-विवार ।
होती है इसलिये मोहनीय फर्मके उदयसे जीवका परिमान भी विपरीत-हानप या संशयरूप बना रहता है।
शन मोर बुद्धिको विपरीतता अथवा (अज्ञान जो मोहनीय कम के उससे हुआ है) भागों से बात्मा के परिणामोंमे रिशेपलप नात्रतम् सपायोका रस नितर भरा रहता है। जिससे मात्मा रागडेप फे अनिष्टानिष्ट विषयों में यात्म और भनात्म भावना वर पने मन पवन-कारसे हिंसादिका भयं कर कार्य करता है जिससे यह नसाय पुदगल वर्गणाओंको बज कर लेता है। अश्या भपने ज्ञान दर्शन गुणोंको घात कर भगान भारले असंख्य कामणिवर्गणाओंको सब पर लेना।
मोहनीर कर्म जोग साधनादिकाल सबधित हो रहा है संसारी जीवोंको अशुद्धनाका मूल कारण एक मदनीय कर्म है। मोहनीय कर्मसे जीव रागढ पना होता है। रागद्वे पसे आत्मीय गुणोंका घात करना , मात्मगुणोंका घात दोनेसे कर्मबंधरूप होता है अथवा अशुद्धरूप ढाता है ।
अशुद्ध अवस्थामे जावका स्वरुप शुद्ध स्वरूासे बिलकुल विपरीत होता है। शुद्ध अवस्थामें जीवका स्वहर अमूर्तीक है। अशुद्ध अवस्थामै जीवका स्वरूप मूर्तीक है (झाप, रस, गध, स्पश सहिन होता है ) शुद्ध अवस्थामे जीवका सारूप केवलज्ञान सहित प्रिलोकफा सानी ओर दृष्टा है। परंतु अशुद्ध अवस्था जात्रका झान मत्यंत स्वल्प और विपरीत हो जाता है धनहानि काय, पृथ्वी काय, यप काय, तेज फाय और घायु-कायके जीनोंका ज्ञान बिल. कुल नदी सा है।
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जीव और कर्म-विचार। निगोदिया जीवोंमें अक्षरके अनतर्वे भाग प्रमाण ही शान रह जाता है। यद्यपि ज्ञानका आभाव सर्वथा नहीं है नोभी यक्षरके अनंत भाग प्रमाण ज्ञानकी प्रतीति सर्व-साधारण, विवार. शील मनुष्योंको नहीं होती है दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय,चार इन्द्रिय जीवोंमें ज्ञानकी इतनी सदना है कि जो न कुछ के बराबर है। पंचेन्द्रिय जीघोंमें ज्ञानका प्रकर्प अधिक है।
सलारी जीवोंका परिज्ञान इन्द्रिय और मनके आधीन है इसलिये वह ज्ञान पराश्रित होनेसे अपरिपूर्ण है, अनंत पदार्थोक्रो एक साथ परिज्ञान नहीं करा सका है। इसलिये अशुद्ध संसारी जीवों की आत्मा कथंचित् अमूर्तीक पदार्थों के ज्ञान-रहित मूर्तीक ज्ञान-लहित है।
शुद्ध जीव तर्ना नहीं है न कर्मफलका भोका ही है। परंतु अशुद्ध जीव कर्मों का कर्ता है और उसके फलका भोक्ता भी है। अशुद्ध जीव कर्मों को नवीन रूपमे ग्रहण करता है और उसका फल इन्द्रिय, शरीर, आयु और श्वासोश्वास रूप प्राणोंको धारण करता है, जन्म-मरणको प्राप्त होता है। सुख-दुस रूप अवस्थाको प्राप्त होता है । नर-नारकादि पर्यायाँको धारण करता है। चाह्यमें धन धान्यादि रूप कुटंब परिवार आदि फलको प्राप्त होता है भोगने वाला होता है।
संसारमें जिनती वस्तुएं प्रत्यक्ष दीख रही हैं उन सबका भोका यह जीव है और इस जीवने ही अपने कर्मोंके फलसे उन वस्तुओंको प्राप्त किया है। जीवाने जैसा पाप या पुण्य
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जीव और फर्म रिचार।
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पा कार्य (भावरण) सपने मन-वचन-कायके द्वाग सपादन पिया है, अपने मन-वन फायके पर्तव्य द्वारा जो धर्म यात्माके साय बाध लिये हैं उनका फल बद अवश्य भोगता है।
शुद जीव अप्रतिरुद्ध है। परंतु संसारो जीवका स्वरूप प्रतिरुद्ध है, प्रनिन्दना गनियोंके भेदले भित्र २ का है। हाथोंके शरीरमें वही जीत है। वह वहासे निकल पर सहसा भाग क्यों नहीं जाना ? नरक पर्यायमें घोर दुग्नोको सहन करता है परंतु यहां उसका छुटकारा पायुकेर्ण किये बिना नहीं होता है। यह प्रनिरजना संसारी शुद्धजीवोंमें सतत बनी रहती है जय तफ कमानी सत्ता आत्मामें है।
चाहे हा के शरीरको धारण करने वाला जीव हो अथवा चीटीकी पायो धारण करनेवाला जीव हो। परंतु जीव छोटा घड़ा नहीं है । जितने शुद्ध जीवके प्रदेश है, उनने ही प्रदेश अशुद्ध संसारी जीव फे हे। नो भी अशुद्ध ससारी जीव फार्म के प्रभावले अपने समस्त असंन्यात प्रदेशोंको चींटी या हाथीके शरीर प्रमाण संशोव विस्तारप बना लेता है। परंतु शुद्ध जीवके आत्म. प्रदेशोंमें संगोत्र विस्तार नहीं है, अशुद्ध जीव अपने असं. एयात भात्मप्रदेशोंको इतना गहरा संकोच फरता है कि एक निगोत शरीरमें सिद्धराशि अनंत गुणे जीवोंका शरीर (जीवसहित भरीर ) रह जाता है।
इसी प्रकार अपने प्रदेशोंसो लोकाकाश पर्यंत विस्तार लेता है। जब तक शरीरका संबंध मात्मासे है तब तफ जी
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जीव और कर्म-विवार । ऐसा सकोच विस्तार करना ही पड़ता है परन्तु शुद्ध जीवोंमें ऐसा संकोच विस्तार नहीं है।
शुद्ध जीवके प्रदेशों में ऐसी विलक्षण शक्ति है कि एक शुद्धजीव की आकृतिमें अनंत-जीव सव्यावाध रूपमे रह सक्ने है ऐसा अवगाहन और अव्यावाधित गुण शुद्ध जीवमें है। परंतु शरीरी जीवोंके शरीरकी रुकावट होती है मनुप्यके शरीरको पर्वत, भित्ति आदि रोक सके हैं। परंतु शुद्ध जीवमें ऐसी बात नहीं है।
शुद्ध जीव अपनी पर्यायसे नित्य, हे कल्पातकाल व्यतीत होने पर शुद्ध जीवकी पर्यायमें विकृति नहीं होती है। चाहे त्रिलोफमें उथल-पथल हो जाय । चाहे समस्त संसार (लोक) का परिवर्तन हो जाय । चाहे समस्त संसार प्रलयको दुर्धर्ष अनिले भस्मीभूत हो जाय । चाहे संसारको उडा लेने वाला प्रलयकालका झावात समस्त संसारको उडा देवे। परन्तु शुद्ध जीबमे किसी प्रकार भी विकार नहीं होगा जो पर्याय प्राप्त की है वह उसी प्रकार वैसी ही शाश्वत रूपमें अधिनश्वर (नित्य ) बनी रहेगी। परंतु अशुद्ध जीव अपने कामोंकी पराधीनताले निरतर अगणित पर्यायोको धारण करता है। कभो मृग होता है, कभी गदहा होता है, कभी माजार होता है, कभी वृक्ष होता है, कभी ऊंट होता है, कमीत्री होताह कभी पुष होता है, कभी नपुंसक होता है, कभी पुत्र होता है, कभी पिता होता है, कभी देव होना हैं, कभी शूभर होता है, कभी काना होता है, कभी एक टागफा होता है, कभी तीन टागका होता है, इस प्रकार अगणित रूप अशुद्ध जीवके हो रहे हैं। इन
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जीप और कर्म-विचार |
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रूपाप धारण करते करते अनंतकाल हो गया । परन्तु कर्मोको सत्ता जीवके साथ होने से विभिन्न प्रकारको रूप धारण की अवस्था नहीं मिटती है । एक ओके आसुओंको एकत्रित किया जाय तो दिनने दो समुद्र भर सक्त है इसलिये आप अब अनुमान कीजिये कि एक जीवने कितने रूप धारण किये यह सब फल मका ही है ।
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शुद्ध जीवका स्वभाव भ्रमण करों से रहित है | परंतु अशुद्ध जीवया स्वभाव भ्रमण परनेफा है शुद्ध जीव ऊर्ध्वगति से जिस लोक के संभाग में विराजे हैं, वे वैसे ही सदैव के लिये स्थित रहेंगे परंतु अशुद्ध जीव विविध प्रकारके आहार-भय-मैथुन और परिग्रहके योगसे सर्वत्र भ्रमण करता है । निन्तर भ्रमण करना है । इस लेक्में भ्रमण करता है और फ्लोष में भी भ्रमण करता है । घूमना घूमना घूमना ही समान हो रहा है । धागमन करता है । संक्रमण करता है । एक शरीग्यो छोडकर दूसरे शरीर की प्राप्ति के लिये त्रिलोक मे सर्वत्र भ्रमण करता है । कर्मोकी परात्रीनता से जीवका भ्रमण करने का स्वभाव हो गया है ।
इसी प्रकार अशुद्ध जीव आहार-भय मैथुन और परिग्रह संज्ञाऑसे सदैव याफुटित दुःखी संवहन और पीडित हो रहा है । एक क्षण मात्र भी ज्ञात नहीं है I एक क्षणभर भी निराकुल नहीं है । एक क्षण मात्र अपने स्वरूपमें स्थित होकर परमानदमें निमग्न नहीं है, सतत ही संकुशित है, सतत पीड़ित है, सततही दुखी है, सतत चिन्तातुर है, सतत भयभीत है सात प्रकारके भयोसे क्लेदिन हैं ।
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१२]
जीव और कर्म- विचार |
सतत पर-पदार्थो की चाहना इच्छा और आशा में उदुभ्रमिन है । परंतु शुद्ध जीव लव शांत, परम आनंदमें निमग्न, परम संतोपसे परिपूर्ण, पराधीनताले रहित स्वतंत्र है । अशुद्ध जीवको परिग्रह तज्ञासे वात वातमें पराधीनता है । कर्मो की प्रवल सत्तासे पराधीनताका द्वंद्व इतना सुदृढ रूपसे लगा है कि एक क्षणमात्र भी अशुद्ध जीवोंको स्वाधीनता प्राप्त नहीं होती है ।
समरुन
यद्यपि शुद्ध जीवके इन्द्रिय और मनका सर्वथा अभाव है तथापि शुद्ध जीव खाधोन पूर्णरूपले स्वतंत्र होनेसे अपने अनंव आनंदमें निमग्न है, समहन लेगोले सर्वया रहित है । भयोंसे रहित हैं। समस्त प्रकारकी चिनासे रहित है । प्रकारकी इच्छाओंसे रहित है । समस्त प्रकारके कृत्योंसे रहित कृनकृत्य है । परंतु अशुद्ध जीवको अवस्था ठीक इससे विप रीत है। शोक, भय, चिंता, क्लेश, सना रहा है ।
समस्त
अशुद्ध जीव बालक वृद्ध होता है, क्षुवातुर होता है, विवासातुर होना है, रोगी होता है परंतु ये सब बातें शुद्दजीव में सर्वधा नहीं होती हैं ।
शुद्ध जीव और अशुद्ध जीवका भेद संक्षेपसे ऊपर दिग्दर्शन कराया है । यद्यपि द्रव्यकी अपेक्षा विचार किया जाय तो जो शक्ति शुद्ध जीव हैं, वही जीव और अशुद्ध जीव
शुद्ध •
शक्ति अशुद्ध जीव में है । मात्र भी भेद नहीं है। ही शुद्ध होना हैं । परन्तु फिर भी जो जो अवस्था भेद है वह सब फर्मोंके संयोग से है । जीव द्रव्यकी अपेक्षा भेद नहीं है ।
अशुद्ध
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जीव और कम विचार |
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धर्मोपाधि दूर होने पर अशुद्ध जीवही शुद्ध होकर पूर्ण ज्ञानी निराकुल- परमशान्त- परमआनंद मय और पूर्ण स्वतंत्र कृतकृत्य हो जाते है |
कर्मोपाधिले नवीन नवीन कर्मबंधका अंकुर उत्पन्न होता हो रहता है। फर्मोपाधि दूर होजाने पर नवीन कर्मों के अकुरकी उत्पत्ति न हो जाता है। जिस प्रकार चावल के धान्य परले कर्मोरावि रूप छिलका दूर कर देने पर चावलमे अकुरोत्पत्ति नष्ट हो जाती है । छिलका सहित धान्य निरन्तर अंकुरित होताही है । शरारके छूट जानेसे कर्मो राधि नहीं छूटती है, यह स्थूल शरीर अननपार छोडा । परन्तु कर्मो को सत्ता आत्मा पर पूर्ण होनेसे संसार के जन्म-मरणवश अंत नहीं होता है । पर्मोकी प्रवत्तासे एक शरीर छूटने पर दूसरा शरीर धारण करना पडता है । दूसरा छूटने पर तीसरा, तीसरा छूटने पर चौथा शरीर धारण करना पडता है, इस प्रकार जवतक कर्मों का आत्मा के साथ संबंध है तचतक निरंतर एक शरीरको छोडना और दूसरे नवीन शरीरको धारण करना यह व्यापार अशुद्ध जीवके साथ निश्तर लगा दी है। इसी संतति कहते हैं, जन्म मरणका चक पहते हैं, ससार कहते हैं ।
शुद्धजीव में फर्मो का संबंध सर्वया नष्ट हो गया है इसलिये जन्म मरणका चक्र सर्वधा नष्ट हो गया है। शुद्ध जीव जन्म-मरण को उपाधि से सर्वथा रहित है ।
एक शरीर छूटने पर दूसरे शरीरको धारण करनेके लिये
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जीव और कर्म विचार ।
कार्मण शरीर ( कर्मपिंड जो सूक्ष्मरूपले आत्माके साथ संबंधित है) आत्माको जबरन खींचकर ले जाता है। जिस प्रकार वेतार का तार आकर्षण किये हुए पुद्गल शब्द-वगणाओं को यथेष्ठ स्थान पर पहुंचा देता है, ठीक इसी प्रकार जीवको फार्मण शरीर दुसरे नवीन शरीरमें घर देता है।
एक शरीर छूटने पर ( मरने पर ) जोव कर्मरहित नहीं होता है। तु जीवने अपने कर्तव्योंके द्वारा जो पुण्य-पाप किया है तनुमार असंख्य कर्मोंको ( जो अत्यत सूक्ष्म है ) धारण किये रहता है । वह असंख्य कर्मोंका पिंड ही जीवोंको नवीन शरीर धारण करनेका कारण होता है ।
ससारी जीव अपने मन चचन काय द्वारा जो शुभाशुभ कर्म करते है । पुण्य और पापके आचरण करते हैं वे कर्म अपना फल प्रदान करने के लिये जीवको भले-बुरे शरीर में ले जाकर पटक देते हैं | यदि जीव अपने मन-वचन-काय द्वारा पाप, हिंसा, चोरी अन्याय, परधनहरण, परस्त्री हरण आदि मलिनाचरण करता हतो जीवको विवश होकर उन धर्मोका फल भोगने के लिये नरकादि दुर्गतिमें जाना पडता है। यदि जीवने अपने मन-वचन-काय द्वारा दान, पूजा, संयम, तप, भक्ति, दया आदि उत्तम कार्य किये हैं तो उसका फल भोगनेके लिये देवगति आदि उत्तम गति में जाना पडता है। परंतु जिस समय जीव ध्यान और उग्र तीव्र - तपके द्वारा समस्त शुभाशुभ कार्योंको भस्मीभूत कर देता है । मन-वचन कायके समस्त व्यापारोको रोक कर नवीन कर्म-बंधन
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___ बार और स्म-विचार। [१७ नहीं करता है और पूर्व सचित पामोको तप द्वारा जला देता है उस समय जन्म-मरणले संकुर रहित शुद्धजीव हो जाता है।
यद्यपि जोर-द्रव्य इन्द्रियगोवर नहीं है। नो भी कर्म सदित दोनेसे शरीराशनिमें दृष्टिगोचर होता है और स्वानुभव में प्रत्यक्ष है।
यी जीव-द्रव्य अजर अमर-मक्षय और अविनाशीक है, सदा अग्वट है, बभिन्न है, बक्षिन्न है, शाश्वत है, नित्य है। अग्नि इस जीवद्रव्यको भम्म नहीं कर सकी है। शल छेदन नहीं कर सके है, उल्कापात इसको पीडित नहीं पर सका है। वायु इसको उडा नहीं सकी है, जल प्रयाह इसको प्रवाहित नहीं कर सक्ता है, पृथ्वी अपने पेटमें घर नहीं सकी है, भ्रमंडल की ऐसी कोई जबर्दस्त शक्ति नहीं है जो इस भात्मा पर अपना अधिकार जमा सके । आत्माकी शक्ति सर्वोपरि है, आत्माका प्रभाव सर्वो. हए और सोंच है। मात्माका सल अपूर्व मोर त्रिलोकको मोम करने वाला है । यात्माका वीर्य तीन लोक और तीन काल के समस्त पदार्थों पर प्रभुत्व रखने वाला है। भात्माका साहस अदम्य है । आत्माका धेर्य अतुल्य है । मात्माको गति अवर्णनीय
है। एक समयमें बौदह राजप्रयंत गमन हो सका है। यात्माका - पराक्रम अनंत है; बद्र बादिको मी मेदन कर यपना कार्य करता
है। आत्माका तेज अपरंपार है;कोटि स्र्य भी ऐसा तेज प्रकट नहीं कर सके है । वह भी अक्षय और मनंत है। आत्माकी शाति सपूर्व है ऐसी शांति अन्य पदार्थमें सर्वथा नहीं है। आत्माका
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१८
जीव और कमे-विचार ।
साम्पमात्र लोकोत्तर है । तोन जगतके जीवोंको अभयदान एक समय मात्र में यह आत्मा प्रदान कर सक्ता है । जगतके समस्त जीवोंको शांति और परम-हर्ष के साथ परमानंद स्वरूप बना सता है। आत्मामें दानशक्ति अद्वितीय है । त्रिलोक का साम्राज्य प्रदान यह आत्मा अन्य आत्माको करा सका है। आत्माका ज्ञान सर्वगत है । आत्माका दर्शन सर्वव्याप्त है। आत्माका सुख सर्वश्रेष्ट और सर्वोत्कृट अक्षय अनंत है। आत्माको कोई भी स्पर्श नहीं कर लक्ता ? आत्माको कोई पकड़ नहीं सका | आत्मा को कोई नष्ट नहीं कर सक्ता १ सात्माको कोई दवा नहीं सका ! आत्मा अजेय है आत्मा अवद्ध है। आत्मा अखंड है। आत्मामें परम पुस्पार्थ पार्थ है । आत्मामें स्वतंत्रता है । मात्मामें सर्व मान्यता है । आत्मामें त्रिजगत पुज्यता है । आत्मामें अनंन और अक्षय ऐश्वर्य है। वह अपने रूपमे स्थित होने पर प्राप्त होता है । आत्मामें परम विभूति है । आत्मा निर्भय है । आत्मा ही बाह्य है । भात्मा ही सेवन करने योग्य है । आत्माही आदरणीय है । आत्माही भजनीय है । आत्मा ही उपादेय है । सर्व तत्त्वोंमें निर्विकार आत्मा है, सर्वतत्त्वों में परमपुनीत आत्मा है, सर्वतत्रों में आत्मा ही श्रेष्ट है । सर्व तत्त्वों में उत्कृष्टता आत्माकी है । सर्वतत्त्वोंमे सुख नहीं है; सुखमात्र एक आत्मामें ही हैं। ज्ञान आत्मामें है । वल दीर्घ आत्मा में है। जो जो उत्तमता और ग्राह्यता संसार के समस्त पदार्थोंमें हैं उससे भी उत्तरोत्तर उत्तमता और ग्राह्यता भरमा में है परंतु आत्माको यह सर्व संपत्ति कर्मी पराधीनता से
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जीव और फर्म-विवार।
विच्छिन्न होरही है। यदि स्वरूप विचार किया जाय तो जो आनंद भात्माके विवार करने में है वह आनंद और सुख संसारको चक्रवर्ती विभूति प्राप्त करने पर या इन्द्रको संपत्ति प्राप्त करने पर भी नहीं प्राप्त होती है।
मात्माके ध्यान करनेमें नो सुख प्राप्त होता है वैसा सुख त्रिलोकमें अत्यत्र नहीं है । आत्माको दया, अत्माकी क्षमा, आत्मा का सत्य धर्म, आत्माका निरभिमान, आत्माको निस्पृहता, आत्मा को निरभिकाक्षा, आत्माको उदारता, मात्माका परोपकार, आत्मा. का संयम, आत्माकी सरलता, आत्माका स्याग इत्यादि यात्माके किली कायका विचार किया जाय ? तो वो आनन्द आत्माके इन गुणोके विचार करने में प्राप्त होता है वह तीन लोकके राज्य मोगने में नहीं है। साधारण लोग सहज दान करने में आनन्द मानते है, जरासे भोगोंकी प्राप्तिमें हपित होते हैं, परंतु जिन जीवों ने आत्माके त्याग-धर्मका विचार किया है वे आत्माके त्यागधर्म में संसारके लमस्त जीवोंको वधु समझते हैं।
इसी प्रकार आत्माका ब्रह्मवर्य धर्म और आत्माके आकिंचन धर्मका विचार किया जाय तो इन दोनों धर्मके स्वरूप विचारमें जो अनुपम मानंद है वह आनंद अन्यत्र नहीं है। संसारकी समस्त वस्तुओंसे निर्मोह होकर खात्माके सतोन्द्रिय परमसुखमें जो सुख है वह सुख अन्यत्र नहीं है।
इस प्रकार आत्माके पिवारमें आत्माके, गुणोंके स्मरण चितन, मनन और ध्यानमें जो सुख है वह अवर्णनीय है।
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२] । जीव मौर कर्म-विचार । , परंतु मात्माके समस्त गुण प्रायः कर्मोंसे आच्छादित होरो हैं, विपरीत परिणमन हो रहे हैं। विभावरूप हो रहे हैं। अपने संभावसे विपरीत हो रहे हैं। अप्रत्यक्ष भोर अचिंतनीय हो रहे है। इसलिये अज्ञानी जीव अपने स्वरूपको भूल रहा है। अज्ञानी जीवों में आत्मस्वरूप की
अनभिज्ञता। शुद्ध जीय भौर अशुद्ध जीवका स्वरूप जब तक पृथक् पृथक सम्यक् प्रकारसे न जान लिया जाय तय तफ यह जीव अज्ञानी बना रहता है। न तो पुण्य-पापको ही मानता है और न परलोक को मानता है। न सदाचार और सच्चरित्रको श्रेष्ठ समझता है। इसीलिये असानी जीच शुद्ध-स्वरूपकी प्राप्तिमें अप्रयत्नशील रहता है, वस्तुजानसे रहित होता है या भ्रमात्मक होता है या विपरीत भावोको धारण करता है। इसलिये ही कर्म और कर्मफल का जान लेना परमावश्यक है। कर्म और कर्मफल इन दोनोंका सस्प जाने बिना किसी प्रकार मात्माका जानना नहीं हो सका। जिसने फर्म और कर्मफलको नहीं जाना है उसने मात्माको भी सर्वथा नहीं जाना है।
यसलमें कर्म और कर्मफल आने दिना कोई भी सत्त्व किसी प्रकार भी फैसे भी ज्ञात नहीं हो सका ? जीव द्रब्यका स्वरूप तो खासकर कर्म और कर्मफल जाने चिता सर्वथा भी जाना जा नही सत्ता ?
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ओव और कर्म विचार ।
1
[२१
जिन जिन जीपने भात्माको जाना है । उनने सबसे प्रथम कर्म और कर्मफलको प्रथम जान लिया है। वही विद्वान् है जिसने कर्म और धर्मफलको जान लिया है। यही सम्यग्दृष्टी है, वही मेद-विज्ञानी है, वही आत्मवित् है, वही तत्व है, वही पंडित है, वही परमात्मा है, वही शाता है और वहीं विवेकी है।
जिसने कर्म और कर्मफलको जान लिया उसने सर्व ज्ञान • लिया और जिसने कर्म और कर्मफल नहीं जाना उसने कुछ भी नहीं जाना है ।
जिसने फर्म और कर्मफलको देखा है उसने सब कुछ देख लिया, जिसने कर्म और कर्मफलका अनुभव किया है उसने समस्त जगतका अनुभव किया है। जिसने कर्म और कर्मफल पर विश्वास कर आत्मस्वरूपका अवलोकन किया है उसने जगतका भवलोकन कर लिया है । जिसने कर्म और कर्मफलके रुपको समझ लिया है उसने जगतके समस्त पदार्थों को समझ लिया है । जिसने कर्म और कर्मफल मान लिया है उसने परमात्माको मान लिया है।
जिसने कर्म और कर्मफलको तरफ दृष्टिपात और विचार किया है उसने पंच-परावर्तन स्वरूपका यथार्थ विचार कर लिया हैं। जिसने कर्म और कर्मफलको प्रमाणताको प्रगट कर दिया है उसने संसारके समस्ततत्वोंकी प्रमाणना प्रगट कर दी है ।
शुद्ध और यशुद्धीवंका यथार्थ बोध कर्म और कर्मफल जानने में है । मोक्षमार्गका प्रकाश कर्म और कर्मफलके परिज्ञानमें
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२२१ जोव और कर्म-विचार। है। वैराग्य भावना उसको ही प्राप्त होती है जो कर्म और कर्मफलको जानता है। संसारके स्वरूपको यथार्थमें यही समझा हुआ है कि जिलने कर्म और धर्मफलके स्वरूपको समझ लिया है। वही मुनिपदका अधिकारी है । वही श्रावक-धर्मका पालन करनेमें यथार्थ अधिकारी है जिसने कर्म और कर्मफलके स्वरूपको पहिचान लिया है। वह शीघ्रही बंधन मुक्त होने वाला है जिसने धर्म और कर्मफलको अपने स्वरूपसे भिन्न समझकर कर्माको नाश करनेका प्रमत्म किया है।
मोक्षकी प्राप्ति उन जीवोंको ही होती है। जिनने कर्म और कर्मफलसे अपनेको पृथक कर लिया है। कर्मोकी सत्ता जब तक सात्मा पर है तब तक संसार ही है। कोंके सर्वथा नाश होने पर जीवको मोक्ष होती है। - धर्म और मफलसे सर्वथा रहित आत्मा ही परमात्मा होती है। नो कर्म भौर कर्मफल सहित है वह संसारी आत्मा है। मशुद्ध थात्मा है, जन्म-मरणके चक्र में प्लालित आत्मा है।
जिस प्रकार सुवर्णमें जबतक मल मिट्टी और कीटका संबंध है तब तक वह शुद्ध सुवर्ण नहीं कहा जाता है । उसको सुवर्णका पापाण कहते हैं। जो सुवर्णकी कीमत है वह सुवर्ण पापाणकी नहीं है । जो रूप रंग और कोमलता, मनोहरता, स्निग्धता मादि सुवर्णमें गुण है वह सुवर्ण पापाणमें प्रत्यक्ष रूपसे व्यक नहीं है। परंतु जब वह मल मिट्टी सुवर्ण पाषाणसे दूर हो जाती है तब ही सुवर्ण अपने स्वरूपमें प्रकट होता है। फिर उस सुवर्णम
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man
जीव और कम बिचार। [२३ कालिमा-कोट-मल-मिट्टो फिसी प्रकार भी संवदिन नहीं होती है।
सुवर्णके समान जीवसे कर्ममल ध्यानरूपी अनिके द्वारा भस्मीभूत हो जाय तो फिर उस जीवात्मा पर किसी प्रकार भी कर्ममल प्राप्त नहीं हो सका है।
इसलिये कर्म-कर्मफल और कोके मोचनका परिज्ञान प्र. प्रत्येक जीवोंको अवश्य ही होना चाहिये।
फर्म-कर्मफलका स्वरूप यथार्थ जाने बिना ही अनंत मत म. तांतरोंकी उत्पत्ति हुई हैं। जीवके स्वरूप में ही समस्त मत-मतांतरोंका वाद विवाद है और जिसको अनभिज्ञता या अशान कहते हैं वह केवल जीवके स्वरूप नहीं जानने में ही है।
र्मका स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म है, फर्मका रूप अत्यंत परोक्ष है, अतीन्द्रिय है। इसलिये उसका पूर्ण प्रत्यक्ष एक सर्वज्ञ भगवानको ही होता है। अन्य छमस्थ जीवोंको कर्मके स्वरूपका प्रत्यक्ष परिज्ञान होना दुर्लभ है। कर्म आत्माके साथ संबंधित है । इसलिये स्थूल काँका फलरूप नो कर्म औदारिकादि शरीर फथंचित ज्ञात होता है। परंतु कामण पिंड अत्यंत सूक्ष्म होनेसे दृष्टिगोचर नहीं है। इसलिये संसारी व्यामोही उनस्थ जीवोंको न तो भामाका यथार्थ परिज्ञान है और न कर्मके स्वरूपका ही परिज्ञान है। इसीलिये जोवके स्वरूप मानने में अनेक प्रकारकी विभिन्नता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है।
जीचके स्वरूप मानने में कोई तो कारण-विपर्यासको धारण कर रहा है, कोई भेदाभेद-विपर्यालको धारण कर रहा है और कोई स्वरूपमें ही विपर्यासताको धारण कर रहा है।
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२४)
जीव और कर्म-विवार। कितने विचारशील जीव-पदार्थको ही नहीं मानते हैं। क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण जीवकी सत्ताको सिद्ध करने में असमर्थ हैं। जो जीवकी सत्ता प्रत्यक्ष सिद्ध होती तो सबको जीव-पदार्थ दृष्टि-गोचर होता। परतु भाज तक किसीने जीवको प्रत्यक्ष देखा नहीं है ? अनुमान प्रमाणसे भी जीव-पदाथकी सिद्धि वे नहीं मानते हैं । अनुमान प्रमाणको सत्यता (प्रमाणना) का विश्वासही फ्या है थे लोग यह भी कहते है कि नव प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे जीव नहीं है तव आगमसे मानमा फेवल बालकों का खेल है। मथवा भोले लोगोंको समझाना हैं।
जो यह मनुष्य पशु-पक्षी आदि प्राणियोंमें इलन-चलन, गमनागमन, खान-पान, भाषण आदि क्रिया हो रही है उससे शरीरमें जीवकी कल्पना कर ली जाय सो भी रोक नही है क्योंकि एक तो कल्पना करना ही मिथ्या है। दूसरे इस प्रकारको क्रियायें पंचभूत में होती हैं। परंतु पंचभूतको जीव नहीं माना जाता है। पंचभूत (मेटिरियल) भपनी उन्नति फरते करते गमना गमन, हलन चलन संभाषण मादि क्रियाखें फरने लग गये। इसलिये जीप-पदार्थकी कल्पना करना यह सब प्रकारले अज्ञान मालुम होता है।
जब जीव पदार्थ ही अपनी सत्तासे सिद्ध नहीं है। तय कर्म मौर कर्मफलको सिद्ध करनेकी क्या आवश्यकता है ? जच जीव पदार्थ ही नहीं है तब स्वर्ग-नरक मोक्ष जन्म-मरण आदिकी फल्प. ना करना मूलके विना शाखा फल-पुष्पकी कल्पना करना है । परंतु वह न्याय सप्रमाण सिद्ध है कि "मूलं नास्ति कुतो शासो"।
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जोध मौर कर्म-विवाद |
यद्यपि
यहा पर यहाँ विचार करना है कि जीव है या नहीं ? नौरोंको घट-पट - मठ के समान जीव प्रत्यक्ष ( इन्द्रियप्रत्यक्ष ) नहीं है । क्योंकि संसारो जीव कर्मसहित होने पर भी इन्द्रिय- गोवर नहीं होता है और शुद्ध-जीव तो भमूर्तिक होनेसे सर्वथा ही इन्द्रिय-गोचर हो नही सक्का ? परंतु स्वसंवेदन ज्ञानके द्वारा सबको प्रत्यक्ष होता है । शरोरसे भिन्न "मैं हु" इस प्रकार की प्रतीति सबको प्रत्यक्ष होती है । "मैं सुखी हैं, मैं दुखी हूं, मैं सूखा हूं, मैं पियासा हूं, मुझे पीडा है, मैं जानता हू" इत्यादि मनेकप्रकार आत्माका स्वसंवेदन करने वाला ज्ञान सबको प्रत्यक्ष होता है । जो शरीरसे भिन्न अन्य जीव पदार्थ नहीं होता तो उसका स्वसवेदन करानेवाला मान क्यों होता ! और स्वसवेदन ज्ञान सब को होता है । इस प्रकार स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा जीवकी कत्ता मनिवार्य सिद्ध होती है ।
[ ३५
में सुखी हूं, मैं जानता हूं में देखता है, इस प्रकार सुख ज्ञान और दर्शन गुणोंकी प्रतीति जड़पदार्थ में होती नहीं है । जानने रूप क्रिया या देखने रूप क्रिया यह आत्माका ही धर्म है । जट पदार्थों में (पंचभूनोंमें ) निमित्त संयोगसे गमना - गमम, इलनचलन और संभाषण आदि क्रियायें हो सक्ती है क्योंकि पुद्गल द्रव्यकी ये समस्त पर्याय हैं । अजीव पदार्थ में भी ऐसी शक्ति है जो एक समय में चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रमें गमन कर सक्ता है । नार या चे-तारके तार द्वारा जो गमन क्रिया जडपदार्थ की हो रही हैं, वह न कुछके बराबर है। परंतु इससे भी अनंतगुणी वेगवती
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२६1
। जीव और कम विचार।
क्रिया अजीव पदार्थमें है। तो भी अजीव पदार्थमे जाननेरूप क्रिया, देखनेरूप क्रिया, सुखके अनुभवन रूप क्रिया, संतोषकप क्रिया, हर्परूप क्रिया, उद्वेगरूप क्रिया इत्यादि प्रकारकी क्रियायें नीवमें ही होती हैं। इस प्रकारकी चैतन्य क्रियाओका स्वामी जीवनामा पदार्थ है । जीव सिवाय जद ( अजीव ) पदार्थमे इस प्रकारकी क्रियाओंका होना असंभव है।।
चैतन्यशक्ति जीव पदार्थ में ही है। जीवका चैतन्य लक्षण है। ज्ञान-दर्शनरूप क्रियाको चैतन्य कहते हैं । ज्ञान दर्शन ये दोनों पर्याय चैतन्यस्वरूप जीवद्रव्यमें ही होती हैं। अजीव द्रव्यमें नहीं होती हैं।
यदि अजीव द्रव्यमें संयोगसे चैतन्य-शक्तिमान ली जाय तो अजीव-द्रव्य ( पंचभून, पृथ्वी, जल, वायु, तेज, और आकाश) के मूलरूप परमाणुमें वह शक्ति माननी पड़ेगी । पंचभूनके परमाणु. थों (जिनके मिलने पर स्कंध महास्कन्ध और समस्त जगतकी रचना होती है ) मैं चैतन्यशक्ति माननी पडेगी। क्योंकि पर. माणुओंमें जंव तक चैतन्य-शक्ति (ज्ञान दर्शन) की सत्ता सिद्ध न हो जाय तब तक परमाणुओंसे होनेवाले स्कंध शरीर और महां स्कंधोमें चैतन्यशक्ति कहाले आ सकी है ? ___ जैसा बीज होगा वैसा ही वृक्ष होगा। मूल पदार्थमें जो गुण है वे गुण ही तो उसके कार्यमें प्रकट होंगे। ऐसा नहीं होता है कि मूलपदार्थमें गुण नहीं हों और उस मूलसे उत्पन्न होने वाले पदार्थ, घे गुण आ जायं ? जो ऐसा होता हो तो ममूर्तीक से मूर्तीक उत्पन्न होने लगेगा, तो समस्त पदार्थों की
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२८]
जीव और फर्म-विचार। मायगी, जो प्रत्यक्ष प्रमाणसे वाधित है। प्रत्यक्ष प्रमाणसे एक शरीरमें एक हो जीवद्रव्य प्रतीति होती है और एक शरीरका स्वामी एक नीच है। __ कदाचित् अनंत चैतन्य ( जोन ) का एकरूप समन्वय कार्य, मानें तो भी पक शरीरमें अनंत-चैतन्यकी सत्ता किमी प्रकार सिद्ध नहीं होता है और न अनन चैतन्य मिलकर समस्त पदार्थों का अनुभव एक साथ प्रकट कर सके हैं।
जब परमाणुमें चैतन्य है तो मरण फिसीका नहीं होना वाहिये क्योंकि परमाणुमसे चैतन्यशक्तिका अभाव हो नहीं सका। शरारको छिन्न-भिन्न करने पर, शरीरको जलाने पर भी चैतन्य. शक्तिका नाश नहीं हो सका। क्योंकि परमाणुमें चैतन्य समाय रूपसे माननी पड़ेगी। नित्यरूप और अभिनय माननी पड़ेगी। ____ कदाचित् परमाणुमे चतन्य कभी रहती है भोर कमी नहीं रहती है। कभी चैतन्यशक्ति परमाणुसे भिन्न रहती है भोर कभी भभिन्न रहती है ? ऐसा कहना मी चन नहीं सक्ता हैं ? क्योंकि परमाणुमें (जो मूल कारण पदार्थों की उत्पत्तिका है) नित्य और अनित्य, भिन्न भभिन्नकी कपना करने पर परमाणुमें वन्यशर्षि हो नहीं ठहर सक्ती है। क्योंकि मूल-पदार्थ में भावात्मक भौर . भावात्मक दोनों परस्पर विरुद्ध धर्म ठहर नहीं सक्त है। __ एक समयमें परमाणुमें चतन्य है तो दूसरे समयमें चैतन्य नहीं है ? ऐसा होना असंभव है। क्योंकि प्रथम क्षणमे चैतन्य शक्ति उत्पन्न होनेका कारण क्या ? परमाणुमे नवीन चैतन्यशकि उत्पन्न होनेका कारण मानने पर असत् पदार्थसे प्रादुभाव मानना
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जीव और कर्म-विचार ।
[ २६ पड़ेगा, कारण विना कार्य मानना पडेगा । पदार्थोंमें नवीन नवीन गुणों की उत्पत्ति माननेसे पदार्थों की स्थिति नहीं हो सकेगी। दूसरे मूल पदार्थ परमाणुमें दूसरे क्षण में चैतन्यका मभाव मानना असंभव होगा क्योंकि वस्तुका त्याग (अभाव) होना दुर्घटनीय है ।
इसी प्रकार परमाणुसे चैतन्य शक्ति भिन्न हैं तो परमाणुकी वह शक्ति नहीं है । यदि अभिन्न है तो उसका नाश ( अभाव ) होना असंभव है ।
परमाणुमें चेतन्य माननेमें एक यह भी विचार है कि जलके परमाणुमे चैतन्यशक्ति जलरूप होगी और अनिके परमाणुमे तन्य शक्ति अग्निरूप होगी तो फिर इससे चैतन्यशक्तिमें विभिन्नता प्राप्त होगी । एक द्रव्यमें इस प्रकार विभिन्नता मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध है, परस्पर विरोध धर्म एक साथ एक समयमें एक नृय रह नहीं सके हैं ?
भिन्न २ परमाणुमें चंतन्यता मानने पर अनेक परमाणुओंसे मिलकर बने हुये एक शरीरमें मनेक चैतन्य (जीवको) रखना किस प्रकार संभावित होगा । लोकमें एक शरीरमें एकही चैतन्य रहता है । समस्त चैतन्य परस्पर मिल नहीं सके हैं। जीव राशि अनंत हैं। परंतु प्रत्येक जीवके प्रदेश जुदे जुदे हैं। एक जीवके प्रदेश दूसरे नावके प्रदेशमें मिल नहीं सके ? यदि मिल जाय तो द्रव्ध अपनी शक्तिले रहित होकर एक ही हो जायगी ।
परमाणुमें जो चेतनता है जीव है उसको मिलाकर एक शरीराकार घनानेवाला कौन है ? जो स्वयं मानेंगे तो सब जीव परस्पर एक किस प्रकार मिल गये ? जो दूसरे किसीने मिला दिये
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जीव और का-विचार। तो भी एक जीवको दूसरे जीव में मिल जानेकी शक्ति कैसे प्रकट हुई ? परमाणुमें चेतनता मनादि रूपसे हैं या सादि रूप है । जो अ. नादि माने तो जीवको निराकार निरंजन किस प्रकार कह सकेंगे। क्योकि परमाणु मूर्तीक होनेसे उसका कार्य भी मूर्तीक होगा ? जो परमाणुमें चेतनता सादि है तो वह किस कारणसे कब उत्पन्न हुई ? __ इस प्रकार विचार करनेसे परमाणुमें जीव मानना युक्ति और तर्कसे किसी प्रकार भा सिद्ध नहीं हो सका है।
जय परमाणु ही जीव मान लिया जाय तो समस्त सृष्टि अनादि माननी पडेगी? क्योंकि आकाशादि परमाणु सर्वथा नित्य हैं। जन्म-मरणको कल्पना भी नहीं हो सकेगी ? · .
जो लोग परमाणुमें जीव न मानकर जीवकी सत्ताको सर्वथा मानते हैं। उनको चैतन्यशक्ति ( जान दर्शन ) शरीरमें जीबके बिना किस प्रकार होती है यह सुनिश्चिन प्रमाण द्वारा निर्धारित करना ही होगा। अन्यथा बस्तुकी सिद्धि नहीं होगी।
चैतन्यशक्ति आत्माको छोडकर अन्य पदार्थमें सर्वथा नहीं रहती है और न किसी प्रकार उत्पन्न हो सक्तो है । जो अन्य पदार्थ में चैतन्यशक्ति माने तो अजीव पदार्थका अभाव होगा। जो अजीव पदार्थ में चैतन्यशक्ति मिलने पर उत्पन्न होती है ऐसा मार्ने तो अलत्से प्रादुर्भाव मानना पड़ेगा और कारण विना मी कार्य का होना मातना पड़ेगा। समस्त वस्तु शून्य व एक रूप मनना पडेगी। सो प्रत्यक्ष और युक्ति दोनों प्रमाणोंसे वाधिन है
यदि जीव-पदार्थ सर्वथा नहीं है ? ऐसा माना जाय तो, प.
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जीव और कर्म-विवार [३२ संवेदन धानका अभाव होगा, जो सब जीवोंको होता है । जो स्वसवेदन ज्ञानको अभाव मान लिया जाय तो जगतके समस्त पदा. थोंके ममात्र माननेमे क्या आपत्ति है ? स्वसंवेदनता प्रत्यक्ष सिद्ध है। सब जीवोंके अनुभवमें हैं। उसका अभाव किस प्रकार माना ना सका है ?
सुख दुःखका अनुमव जोवको ही होता है। जो जीव पदार्थ नहीं माना जाय तो सुख दुःखका अनुभव नहीं होना चाहिये। यंत्र आदिमें गमनागमन करनेको शक्ति प्रकट होजाती है; बोलनेकी शक्ति प्रकट हा सका है। परंतु सुख दुःखके अनुभव करनेकी शक्ति किसी भी यंत्रों उत्पन्न नहीं हुई ? विद्युत् अथवा मशीन मादिके द्वारा पंचभूतोको एकत्र करने पर भी किसी एक इंजन या भाष्पयंत्रमें सुग्न दुःखको अनुभव करनेकी शक्ति नहीं है और न उत्पन्न हो सका है। इससे मालुम होता है कि शरीरके माभ्यंतर सुख दु.खको अनुभव रखने वाला और चैतन्य शक्तिके द्वारा अपना स्वरूप व्यक्त करने वाला शरीरसे भिन्न कोई अन्य मीय पदार्थ है।" जिसका स्वसंवेदन सबको होता है। अन्यथा में हं, मैं सुखी हूं, मैं जाननेवाला हूं, मैं क्षुधातुर हूं, मैं पिपासातुर हूं इत्यादि अनेक प्रकारका स्वसवेदन ज्ञान सबको कैसे होता है?
कदाचित् ऐसी शक्ति इनद्रियोंमें मान ली जाय ? तो फिर यही एक प्रक्ष रहेगा कि इन्द्रिया जड (अजीव ) हैं या चैतन्य जो इन्द्रियोंको ( अजीब ) माना जाय तो जड पदार्थ में चैतन्यशक्ति का अभाव होनेसे इंद्रियों में ज्ञान दर्शन का अभाव होगा सौर ज्ञान
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३२]
जीव और कर्म विचार दर्शनके अभावसे सुख दुःखका अनुभव इन्द्रियोंको कैसे हो सका है ! जो इन्द्रियोंको चैतन्य (जीव ) रूप माना जाय तो जीवकी सत्ता स्वीकार करनी पडेगी।
वास्तधिक इन्द्रियां जड़ (अजीय) हैं उनमें नान दर्शन शक्ति नहीं है। परंतु इन्द्रियोंके द्वारा पदार्थोका परिज्ञान होता है। मानने और देखने की क्रिया मात्र इन्द्रियोंके द्वारा होती है। जानने और देखनेका मार्ग इन्द्रिया है, इन्द्रियोंमें स्वयं जानने और देखने की शक्ति नहीं है। जिस प्रकार पटलोई में (वर्तनमें) पाचन शक्ति स्वयं नहीं है। पाचन शक्ति तो अग्निमें है। परंतु दालका पाचन-कर्म चटलोईके द्वाराही होता है, ऐसे जाननेकी देखने की शक्ति जीवमें है। परंतु उमस्थ जीवोंको जाननेजी देखनेकी शक्ति इंद्रियों द्वारा ही होती है।
इन्द्रियां पांच है। फिसोहमत, दश इन्द्रिया मानी है। इसलिये प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि स्पर्शन आदि इन्द्रियोंमें पृथक पृथक जीव है या समस्त इन्द्रियोंमें एक ही जीव है। जो पृथक् पृथक इंद्रियोंमें भिन्न भिन्न जीवोंकी सत्ता मानी जाय तो एक शरीरमें अनेक जीवोंकी सत्ता माननी पडेगी। इन्द्रियोंको जीव मानने से सबसे भयंकर यह आपत्ति होगी कि जिस शरीरम एक ही इन्द्रिय है उसमें एक जीव मानना पडेगा। जिस शरीरमें दो इन्द्रिय है उस में दो जीव मानना पड़ेंगे । इसीप्रकार एक शरीरमें अनेक जीवोंकी 'सत्ता मानना पडेगी। एक शरीर में पृथक् २ इन्द्रियोंमें भिन्न भिन्न जीन माना जाय तो एक शरीरमें समस्त जीवोंको कार्य एक साथ
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नीच और फम विचार। [३३ होगा, प्रत्येक समयर्म समस्त इंद्रियों का स्वाद सबको होना चाहिये सो कदापि नहीं होता है। एक समयमै समस्त इन्द्रियां अपना कार्य एक साथ नहीं करती हैं।
मृत्युके पधात् शरीरमें इन्द्रिया नष्ट नहीं हो जाती हैं किंतु जीवके परलोक गमन करनेसे इंद्रियोंसे देखने जानने की शक्ति नष्ट हो जाती है । इसलिये मालुम पड़ता है इंद्रियोंमें ज्ञान-दर्शनशक्ति नहीं है। किंतु इद्रियोंसे व्यतिरिक्त किसी अन्य पदार्थमं मानदर्शन शक्ति है वह जीव है। इसीलिये इंद्रियोंको जानने देखनेको शकिका मार्ग माना है।
इंद्रियों में जायकी सत्ता प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है। इन्द्रियों में जीवका वास है। जीवके प्रदेश इन्द्रियोंमें रहते हैं परंतु इन्द्रियां स्वयं जीवरूप नहीं हैं।
इन्द्रियां मूनिरूप हैं, जीव-पदार्थ अमूर्तिक है। जो इन्द्रियोंको ही जीव मान लिया जाय तो मुर्तिक पदार्थसे अमूर्तिक जीय-पदार्थ की उत्पत्ति मानना असतो प्रादुर्भाव मानना पडेगा। इसलिये इन्द्रिया जोवरूप नहीं हो सकी हैं।
इन्द्रियोंको जीव इसलिये भी नहीं मान सक है कि इन्द्रियों का विषय मूर्तिमान है परंतु ज्ञान-दर्शन अमूनिक पदार्थोंको भी विषयाधीन करता है।
इंद्रियोंको जीव माननेमें आगम-विरोध हैं । आगममें इन्द्रिया जडरूप वनलाई है और आत्माको मान-दर्शनमय बतलाया है। शरीर और इन्द्रियोंमें भेद नहीं है। शरीर वही इन्द्रिय रूप है'
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जीव और फर्म-पिचार । और इंद्रियां शरीरमय है । शरीरको छोडकर इंद्रियां अन्य नहीं हैं और इद्रियको छोड़फर शरीर कोई दूसरी चीज नहीं है। इसलिये शरीरको आत्मा मानना सर्वथा असंगत है, प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणसे बाधित है। नब शरीर मात्मा नहीं है तब इंद्रियोंको जीव मानना भी प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणसे बाधित मानना पड़ेगा।
इंद्रियोंमें जीव नहीं माने और मनको जीव माने तो फिर या हानि ? मनके दो भेद है-द्रव्य मन और भाव मन । द्रव्यमन-अष्ट कमलके आकार का जो पुद्गलकमौकी रचना रूप शरीरमें आकार है वह द्रव्यमन है। यदि द्रव्यमनको जीव मान लिया जाय तो शरीरको ही जीव मानना पडेगा। वह प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से सर्वथा वाधित है। __ भाव-मन जीवके ज्ञानादिक परिणाम हैं । मनका कार्य विचाररूप है, हेयोपादेय वस्तुका विचार करना है, हिता-हित मार्गका जान लेना है । उस ज्ञानमें विचारात्मक शक्ति, मननरूप शक्ति, निदध्यासनरूप शक्ति मनले हो होती है। यह ज्ञानका कार्य है। मनको झानसे भिन्न मामा जावे या अभिन्न माना जावे ? जो मनको ज्ञानसे भिन्न माना जाय तो मनको शानसे पृथक् घस्तु मानना पड़ेगा। इसलिये मनको जीव नहीं मान सक और न मनमें चैतन्यशक्ति मान सके हैं। कदाचित् मनको ज्ञानसे अभिन्न माना जावे तो मन कोई पदार्थ नहीं ठहरेगा ! क्योंकि ज्ञानको ही मन माननेसे ज्ञानसे भिन्न मन अन्य कोई वस्तु नहीं है। ऐसा सुतरां सिद्ध हो जाता है।
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नीष और कर्म विचार
मनकी सत्ता पचेन्द्रिय जीवोंमें ही होती है। यदि मनको __ ही जीव मान लिया जाय तो एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय
चार इन्द्रिय जीवोंको मनका अभाव होनेसे जीव नहीं मानना पडेगा। जिन पंचेन्द्रिय जीवोंके मन है वे ही जीव होंगे और जिन जीवोंको मन नहीं है उनको जीव नहीं मानना पडेगा। इसलिये मनको जीव मानना सर्वथा विरुद्ध है।
मनको मूर्तीक माननेसे आत्माकी कल्पना नहीं हो सकी है। यदि मनको अमूर्तिक मान लिया जाय तो वह जीवरूप स्वतंत्र वस्तु मानना पडेगी।
असल में इन्द्रियोंके समान मनको जीव माननेमें अनेक प्रकारकी बाधा उपस्थित होती है। इसलिये मनको जीव सर्वथा मान नहीं सके हैं।
आत्माको नहीं मानने वालोंकी जड़-पदार्थमें आत्म-कल्पना सिद्ध नहीं हो सकती है। फिर भी प्रश्न यह होता है कि शरीरमें आत्मा है या नहीं ? इस विषयमें पूर्व यह बतलाया है कि शरीरमें शरीरसे भिन्न आत्मा है। क्योंकि आत्माका अनुभव स्वसंवेदनज्ञानसे सयको होता है। ज्ञान-दर्शनकी शक्ति आत्मामें हो है शरीरमें नहीं है । सुख दुखका अनुभव आत्माकी सत्ताको सिद्ध करता है इस प्रकार अनुमान प्रमाण यात्माको सिद्ध करता है। ___ यदि शरीरमें आत्मा न माना जाय तो कृतकोंका फल कौन भोगता है ? यह वात प्रत्यक्ष सिद्ध है कि प्रत्येक जीवको अपने कृतकौंका फल भोगना पड़ता है। यदि शरीरमें जीवकी
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३६ ]
जीव और कर्म विचार ।
सच्चा न मानी जाय तो कृतकर्मों का फल भोगनेवालेका अभाव सिद्ध होगा, सो वन नहीं सका है ।
हिंसादि पंन्त्र भयंकर पापोंको गुप्तरूपसे करनेवाले जीवको उन पापका फल मिलना चाहिये या नहीं ? जो मिलना चाहिये ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाय तो उसका फल इस लोकमें प्राप्त होता है या परलोकमं ? जो पापका फल इस ही लोकमें प्राप्त हो जाता है ऐसा मानलिया जाय ? तो गुप्तरूप कार्यको राजा प्रजाआदि किसीको भी उन पापका परिज्ञान नहीं होनेसे दंड कौन प्रदान करेगा ? राजा प्रकट पापोंका दंड देता है । परंतु अप्रन्ट पापका दंड किस प्रकार दिया जा सकता है ? मानसीक दुष्कमोंका दंड कौन देगा ? क्योंकि मानसीक दुष्कर्म सर्वथा ही अप्रकट होते हैं ।
इसी प्रकार मानसीक कार्यके द्वारा जय करना, भले कार्यो का चितवन करना, मनसे देवके गुणोंका स्मरण करना, मनसे जगतके दुखी प्राणियोंके उद्धार होनेके विचार प्रकट करना, मनसे प्रभुका ध्यान रखना आदि मानसिक व्यापारके द्वारा होने वाले पुण्य कर्मों का फल आत्माके बिना कौन भोग सक्ता है ? शरीरादि इस पुण्य फलको भोगने में असमर्थ है ।
यदि शुभाशुभ कर्मो का फल अवश्य ही प्राप्त होता है ? तो वह जीवके माने विना किसको प्राप्त होगा ? जिन कसका फल इस लोक में प्राप्त नहीं हुआ है और कर्म अतिशय तीव्र किये हैं तो उसका फल प्राप्त होगा या नहीं ? यदि कृत कर्मों
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जो ओर कम विचार ।
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का फल अवश्य ही प्राप्त होता है तो शरीर मृत्यु के बाद नष्ट हो जाने पर उस फलको फोन भोगेगा ? यदि भोगने वाला नहीं माना जाय तो कृनकर्मो का फल नहीं प्राप्त होता है ऐसा मानना पढ़ेगा सो युक्ति और भागमसे सिद्ध नहीं होता है । जो कृत- फर्मो का फल प्राप्त नहीं होता है ऐसा ही मान लिया जाय तो ईश्वरका भजन, दान, जप, तप, संयम, दया आदि कर्म क्यों किये जायं ? क्योंकि उनका फल कौन भोगेगा
संसारमें एक रोगी, एक दुखी, एक सुखी, एक दीन, एक विडरूपी, एक सुन्दर, एक जन्माध, एक जन्मसे ही कुबड़ा, एक जन्म से विकलाग इत्यादि प्रकारके भेद देखने में आते हैं सो यह किसका फल है ? और उस फलको भोगने वाला कोन है ? वे कर्म किस समय किसने किये हैं ?
एक मनुष्यको विना श्रम किये हो षकायक ( अचानक ) अपरंपार धन प्राप्त हो जाता है । एक मनुष्य जंगलमें से लाकर मचानक राज्यपद पर स्थापित कर दिया जाता है । इस प्रकार बिना कारणके यह फल कौन से कर्मसे हुआ ? यदि भाग्यसे माना जाय तो भाग्य जीव माने बिना किसका समझा जाय ? यदि पुरुषार्थसे प्राप्त किया ऐसा माना जाय तो यहां पर अचानक धन प्राप्त करनेमें या राज्यपद प्राप्त करनेमें पुरुषार्थ कुछ भी किया हो ऐसा दीखता नहीं है ? तो बिना पुरुषार्थ के होने वाली अचानक धनकी प्राप्ति या राज्यपद यह पूर्वभवके शुभ कार्योंका फल माने विना सिद्ध नहीं होता है कारण विना
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जीव और कर्म-विचार।
कार्य कैसे हो? पूर्वभवमें शुभ कार्य किये उसका फल गज्यपद
और अचानक धनप्राप्ति है परन्तु जीवको माने विना पूर्वभवमें फर्म किसने किये?
कृतकोंका फल अवश्य ही प्राप्त होता है जो जैपा कर्म करता है वह वैसा ही फल प्राप्त करता है । यह नीति और प्रत्यक्ष शुभाशुभ कर्मोंके फलको प्रकट करनेवाली युक्तिको जीव-पदार्थ माने बिना किस प्रकार संघटित कर सके हैं। . कृतकोका फल अवश्य ही भोगना पडता है, चाहे वह राजा हो, चाहे वह रड्डू हो, विद्वान् हो और चाहे वह मूर्ख अ. ज्ञानी हो। अपने अपने किये शुभाशुभ काँका फल अवश्व ही सवको भोगना पडेगा। चाहे इसलोकमें भोगो और चाहे परलोक. में भोगो। परंतु कृतकोका फल अवश्य ही भोगना पड़ेगा।
जीव-पदार्थ प्रत्यक्ष इन्द्रियोंसे दृष्टिगोचर नहीं है इसलिये नहीं है ऐसाही मान लिया जाय तो परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ भी इन्द्रियगोचर नहीं होने से माने नहीं जा सके हैं। परन्तु जिस प्रकार परमाणुओंका कार्य (फल) स्कवादि प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होनेसे परमाणुको अगत्या अवश्य मानना पडता है, क्योंकि कारण विना कोई भी कार्य नहीं होता है। इसी प्रकार यद्यपि जीव-पदार्थ अतिशय सूक्ष्म होनेसे इन्द्रिय दृष्टिगोचर नहीं है तो भी जीवके किये हुचे शुभाशुभ कार्योका फल ( कृतको का फल) प्रत्यक्ष दीखता है। इसलिये मालूम होता है कि जोव-पदार्थ अवश्य है अन्यथा कारण विना कार्य कैसे हुआ?
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नाव भोर कर्म-विवार।
यदि थोड़ेसे समयके लिये ऐसाही मान लिया जाय कि जीव नहीं है ? तो शरीरमें ज्ञानादिकक्रिया जीवके बिना कैसे होती है।
शराब (मद्य ) बोतलमें रखी हुई अपना असर कुछ नहीं करती है क्योंकि अचेतन पदार्थमें विकृति देखने में नहीं आती है। परंतु वही मदिरा शरीरके भीतर जाने पर विकृति करती है। इससे मालुम होता है कि वह विकृति शरीरको नहीं है। शरीर. को होती तो अन्य अचेतन पदार्थमें भी वह मदिरा अपना फल (असर ) दिखलाती या मृतक शरीरमें भी विकृति होने लगती सोतो होती नहीं है। मदिरापानसे जो विकृति होती है वह जीव को ही होती है और उसका व्यंजक शरीर है। क्योंकि हर्ष विशाद शोक मुर्छा संतोष तृप्ति सुख आदि जितने विकृतिके कार्य दीखते हैं वे सब एक मात्र जीवके कार्य है। जीवके विना हर्ष शोक विषाद आदि कार्य अचेतन पदार्थमें हो नहीं सक्त हैं । . यद्यपि जीव-पदार्थ प्रत्यक्ष इन्द्रिय-गोवर नहीं है तोमी भूतप्रेत-पिशाच और उनके द्वारा होने वाले कार्यसे जीवकी सत्ता अबाधित रूपसे सिद्ध हो जाती है । भूत-प्रेतोंका प्रत्यक्ष कभी कभी सर्वत्र सर्वकालमें होता है। जो जीवको नहीं मानते हैं; उनको भी कभी कभी भूत-प्रेतादिकोंके कार्य देखनेमें आते हैं। अगतिगत्या उनको जीव अवश्य ही मानना पड़ता है। क्योंकि भूत-प्रेतादिकको अकांडव कार्य अमानुषोक और अप्रतिरोध होते हैं। उनका शोधन मनुष्यकी बुद्धिसे परातीत है। इसलिये जीवको माने बिना सिद्धि नहीं होती है।
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नीवं और कर्म-विचार।
जीवकी प्रत्यक्षता कभी कभी जातिस्मरणके द्वारा अनेक जीवोंको सर्वत्र सर्व कालमें होती रहती है। ऐसे अनेक उदाहरण प्रत्येक समय सर्व देशोंमें द्रष्टिगोचर होते हैं कि कितने ही बालक अपने पूर्व भवका स्वरूप प्रगट करते हैं। वे खुलेरूपमें स्पष्ट बतलाते हैं कि मैं यहा पर कैसे आगया, मेरा घर तो अमुक स्थानमें है और मैं अमुक व्यक्ति हूं। वह चालक अपने पूर्वभवकी पृथ्वीमें गढी हुई संपत्ति और अज्ञात विषयोंका दिग्दर्शन कराता है । जिसकी परीक्षा गवर्नमेंट द्वारा भी की जाती है और बड़े २ विद्वान करते हैं और जो जो बातें अपने जातिस्मरण की बालक बतलाता वह ज्योंकी त्यों नियमसे प्रमाणित होती हैं। __ ऐसे वालकोंकी जन्मातरोंकी उनके बतलाये कार्योंकी कथा समय समय पर सप्रमाण प्रकाशित होती है जो शोधकर्ताओंकी गहरी शोध सहित जगतको साक्षी बतलाती है कि शरीरमें जीव नामा पदार्थ अवश्य है और वह अपने अपने कर्मानुसार जन्म. जन्मातरको प्रकट करता है। ___ बनारसके एक वालककी जन्मातर की कथा लोगोंको उसके पूर्वभवमें किये हुये कर्मोके चमत्कारिक फलको साक्षात प्रकट करती है जिसको पढ़कर कर्म और फर्मोका फल एवं जीवके अस्तित्यका ही विश्वास नहीं होता है किंतु यह सुनिश्चित धोरणा होती है कि शुभकर्मो का फल जीवोंको अपूर्व सुख-संपतिका प्रदा. न करनेवाला और समस्त प्रकारकी विघ्नबाधाओंको अवश्य ही दूर करने वाला है। यह बालक पहले घरेलीमें एक अनपढ बढ़ई
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"जीव और कर्म- विचार ।
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2
( सुतार ) था । एक सम्य इस सुतारने एक गाय को जो कुआ - में ( कूपमें) गिरने को तैयार होरही थी । उस गायको ऐसी कष्टदशामें देखकर उसको बचाने के लिये वह दौडा और उस गायको बचाने के बदले स्वयं वह कूपमें गिर गया और गिर कर प्राणांत हो गया, वही वालक वनारसमें एक श्रीमान् धनसंपन्न कुलीन ब्राह्मण के घर पर उत्पन्न हुआ। उस बालकने अपने तृतीय वर्षमें ही पूर्वभवकी सर्व कथा चतलाई । वह कूआ बतलाया । अपने स्त्री माता पिताका नाम बतलाया और अपने घरकी अनेक अप्रष्ट चातें वतलाई ।
इसी प्रकार आडके एक बालककी जन्मातरकी कथा से कर्म और कर्मों की फलप्राप्तिकी आश्चर्यरूप घटना पर सबको चमत्कार हुये बिना नहीं रहना है । जन्मांतरकी कथा वालकने अपने चतुर्थ वर्ष में समस्त लोगोंके सामने अपने माता पिताको वार चार कही प्रथम तो माता पिताका उस कथा को 'सुनकर विश्वास नहीं हुआ किंतु यह समझा कि वालकके मस्तक में विगाड हो गया है । या माई डमें गर्मी बढ़ गई दिखलाती है । इसलिये इसका अच्छा इलाज करना चाहिये। यह विचार बढे बढे प्रसिद्ध डाक्टरोंको कहा परन्तु उस बालक के मस्तककी परीक्षा यंत्र तंत्र और विज्ञान से पूर्ण की गई। सव डाक्टरोंने एक मतसे यही वतलाया कि वालकका मस्तक पूर्णरूपसे शुद्ध और निर्विकार है । इस बालकका जैसा उत्तम मस्तक है, वैसा अन्य चालकोंका कम होता है। माता पिताने सब प्रकारसे कई अन्य उपाय किये
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जीव और कम-विवार।
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परंतु एक भी कार्यमें सफलता प्राप्त नहीं हुई। लाचार हाकर माता पिताने वालकके कहे अनुसार उसके जन्मातरके माता पिताका शोध कराया । उस बालकने अपने माता पिना कक्ष ( काठिया. वाड ) देश में राजकोटके पास एक प्राममें बतलाया। भारत गवर्नमेंटके द्वारा यह शोध की गई तो उसके माता पिता आदिका नाम उस बालकके मरने की तारीख उसने बतलाये हुये भरके कार्य सय ज्योंके त्यों मिल गये। मरणके दा साढे आठ महीने बाद उस बालकने जन्म लिया । मरण समय उस बालकके जीवने एक पडोसी बुढिया की रूग्णावस्थामें सेवा की थी। और गरीव लोगोंको वस्त्र प्रदान किये थे। उन वलोंमें एक सर्प बैठा था जिसके दंशसे यह मरकर आयले डमें एक करोडपनिफे यहां उत्पन हुआ । इसी प्रकार ग्वालियर राज्यमें एक डाकूको पानी पीते हुए एक सिपाहीने मार दिया था, वह मरकर उसी राज्यमें उत्पन हुआ। वाल्यावस्थामें ही लडकोंको उस सिपाहाका नाम लेकर उसे मारनेके लिये करता था पीछे उसने सब कथा सुनाई और महाराजने उसे बुलाया, सिपाहोको पहचान करके वालकने उसे क्षमा प्रदान को, महाराजने बहुन द्रव्य दिया। यह कथा १५ वर्ष को है। । उपर्युक्त घटनाओंले कर्म कर्मफल और जीव-पद र्थका सुनिश्चित प्रमाण मिलता है।
यदि बास्तविक जीवका अभाव होता तो ऐसी अनेक नन्मातर की घटनायं जो प्रत्यक्ष होती हैं। कैसे सत्यरूप प्रमाणित होती?
जीवकी सिद्धि में कितने ही ग्रन्थकारोंने अनुमान प्रमाण बत
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जीव और कर्म-विचार।
प्रसिद्ध प्रोफेसरोंसे निर्णीत न हो सके उसका निर्णय वह बालक फरता था। इस प्रकार विना शिक्षा प्राप्त किये गणितका चम. त्कार घतलाना और गणितके तत्वोंकोसांगोपांग जान लेना पूर्वभवके शुभ संस्कारोंका ही फल समझना चाहिये? इसीलिये कहना पड़ता है कि ऐसे संस्कार जीवको ही सिद्ध नहीं करते है किंतु कर्म और फर्म-फलका प्रमाण प्रत्यक्ष प्रकट करते हैं।
इस प्रकार जीय-पदार्थको नहीं माननेवालोंके लिये प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाणसे जीवकी सत्ता स्वयमेव सिद्ध होती है। मागम प्रमाणसे भी जीव सत्ता लिरावाध सिद्ध हैं। गुक्ति और तर्कफे द्वारा भी नीवकी सत्ता पूर्णरूपसे निर्धारित होती है।
अवधिज्ञानी और मनापर्ययक्षानी मुभि ( योगी ) आत्माका साक्षात् अनुभव फरते है, योगियोंके शाममे मात्माका ससाव प्रत्यक्ष रूपसे प्रतीत होता है। इतना ही नहीं किंतु निमित्त-ज्ञानी भी जीधफे सद्धावको अपने ज्ञानके द्वारा प्रकट करते हैं। कर्म और कर्मका फल भी ज्योतिपके द्वारा प्रकट होता है। जीवके विना फर्म और फर्मफल किसको प्रकट होगा?
शरीरमें जीव नहीं माना जाय तो स्वतंत्रता पूर्वक होनेवाल ज्ञान-क्रियाओंका अभाव हो जायगा। जिससे एक भी क्रिया ज्ञानपूर्वक नहीं होगी। यत्र आदिसे जो क्रिया होती है वह ज्ञान-पूर्वक स्वतंत्र रूपसे नहीं होती हैं। किसी न किसी रूपमें पराधीनताका आश्रय ग्रहण करना पड़ता है परंतु सचेतन पदार्थों में क्रिया निराधय होती हैं। इसलिये मालुम पड़ता हैं कि जीव-पदार्थ इस
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नीत्र भोर कर्म-विवार। [४५ शरीरफे अभ्यंतर अवश्य है उसके निमित्तसे समस्त कार्य ज्ञानपूर्वक स्वतंत्ररूपसे निरतंर होते रहते हैं। मृत्युफे पश्चात् वे कार्य चंद हो जाते हैं। इस प्रकारकी क्रियाओंसे भी जीय-पदार्थकी सिद्धि होती है।
जवकि सिद्धि के लिये कमी कभी मंत्रशास्त्र सटिशष्ट फल प्रदर्शित करता है। फिनने ही मंत्रवादी सर्पके द्वारा इंश किये हुये मनुष्यका वैरभाघ कारण प्रकट कराते हैं। उसमेंसे कितनेही पूर्वभय (जन्मांतर) के वैरभाषसे सर्पने दंश फिया और उसका अमुक प्रमाण है ऐसा स्पष्ट पतलाते हैं। कितने ही सर्व धनके स्थान पर घास करते है और धन न ग्रहण करनेके लिये जन्मांतरफा कारण स्पष्ट बतलाते हैं।
कितने ही मनवादी मंत्र द्वारा देव देवीके द्वारा पूर्वभवका संबंध उपकार प्रत्युपकार और अनुग्रह प्रगट करते हैं।
कितने ही मंत्रवादी रोगादि शमन करनेके लिये दान पुण्य फराते हैं। परमात्माफा जप, ध्यान, पूजन और भक्ति स्नपनादि फराते है और पूर्वभवके अशुभ कार्योंके प्रपल उदयको इस प्रकार ज्ञात करते हैं।
यह सब तब,ही बन सकता है जबकि जीव-पदार्थ और कर्म एवं कर्मफलको मान लिया जाय। अन्यथा तत्काल विनाशवंत क्षणिक पदार्थो में ऐसी :घटना किसी प्रकार भी संभावित नहीं हो सकी हैं।
इस प्रकार जीव-पदार्थकी सिद्धि प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणसे
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जीप और फर्म-विचार। निरावाय प्रमाणित होरही है। स्वलंघेदनहान द्वारा सबको व्यक्त हो रही है। सयके अनुभवमें भा रही है।
चार्वाक और नास्तिक नीव-पदार्थको नहीं मानते हैं ? जीव-पदार्थ के नहीं माननेले संसारमें मन्याय अत्याचार और सुल्मोंकी मात्रा मर्यादातीत हो जाती है। किसी भी पापकर्मसे उनकोभय नहीं होता है और न पापकार्योंका विचार ही उन को उत्पन्न होता है, पिशाब फर्म, पाशविर और घोर निर्लजताके भयंकर र्म नास्तिक लोग करने में जरा भी नहीं हिचकते है।
नास्तिक लोग पाप और पुण्यको भी नहीं मानते हैं, जब जीवपदार्थ ही स्वीकार नहीं है तव पुण्य और पाप क्यों मानने लगे। फल यह होता है कि हिसा, झूठ, चोरी, दुर्व्यसन आदि भयंकर मलितावरणले नास्तिक लोगोंका जीवन व्यतीत होता है।
नास्तिक लोगोंका सिद्धान्त वही है उनने अपना ध्येय भी इसी प्रकार माना है । यथा
पावनीवं सुखात् जीवेत् शृणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥१॥ अर्थ-जव तक जीवन है तब तक अपने शरीरको खूब सुखी बनाये रखे । यदि अपने पाल सुख-सामग्री न हो तो मृण कर सुन-लामो [घृत यादि सुख सामग्री ] को एकत्र करे, ऋण करनेसे पुत्र और स्वयं अपनेको दुःख होगा ऐसा विचार नहीं करना चाहिये क्योंकि देहवे. सत्मीभूत होने पर फिर कौन आता है । पुनर्जन्म किला होता है जो इसका फल भोगे।
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जोर मोर धर्म-विचार
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भावार्य-वाहे संसारका भले ही नाश हो और उस नाम करने में अन्यान्य अत्याचार और लय प्रचार जुल्म करने पड़े, सिा भूल चोरी पापाना बयनिवार आदि मलिनावरण करने पड़े तो मी उनी उरा भी परवाह न घरके सरनी मोजमजा मस्न रह कर सुखी रहना चाहिये, पापरे भयले मोजमजा भोग. लिस जग भी विन्न नहीं डालना चाहिये क्योंकि मरन्चे बाद याप और पुपरत पल किसको मिलेगा। जर जीव-पदार्थ और पर्माल्को माना जाय तो पापकमासे निवृत्ति नहीं होती है। मनमें ग्लानि नहीं होती है । पापोंने मय नहीं होता है।
लो जीव-पदार्य और पुण्य-पाप मानता है वही पार-धों से यवनेचा प्रयत्न करना है। समम्न जादोती च्या पालन करता है, इद और दीन प्राणियोंको मो अपना वधु मानता है, उनके साथ निष्कपट भावले सदाचारका व्यवहार करता है। सबकी रक्षा करता है। अन्याय करने में भयभीत होता है किसी भी प्राणी पर सत्याचार करनेकी उसकी भावना नहीं होती है। वह अन्य प्रापियों पर जुल्म करनेने हदयसे पिन होना है। हिंसा-झुठ-पापावरण चोग-व्यभिचार यार दुर्व्यसनोंसे किसी नीरको भी नहीं सदाना चाहता है। _वह विचार करना है कि जो मैं अपनी स्वार्थसिद्धिके लिये सत्य जीदारे साथ अन्याय पतंगा तो मुझे उसका फल इस -लोपः तया परोको आवश्य ही भोगना पडेगा। हत-कर्मोदा फरत अवश्य ही सबको नियमले प्राप्त होता है। वाहे राजा हो।
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४८ ]
जीव और कर्म- विचार
I
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चाहे रक हो । चाहे दोन चाहे समर्थ हो । चाहे बलवान हो । चाहे विद्वान् हो । चाहे मूर्ख हो अज्ञानी हो । चाहे धनवान हो । चाहे गरीब हो, चाहे चींटी जैमा अत्यंत क्षुद्र जंतु हो- निगोदिया जैसा स्वल्पतम क्षुद्र जंतु हो । चाहे पृथ्वीकाय हो । चाहे वायुकाय या वनस्पतिकाय हो । चाहे हाथी हो किसी प्रकारका प्राणी क्यों न हो परंतु अपने कृत कर्मो का फल सबको भोगना ही पडेगा । जो यलवान मनुष्य अपनी स्वार्थसिद्धिसे अन्या वनकर दूसरे असमर्थ दीन और क्षुद्रजंतुओं को सताता है उसका फल उसको अवश्य ही भोगना पडेगा । अरे! अपने मनमें भी किसी दीन 1 प्राणीको कष्ट पहुंचानेका इरादा किया जाय, किसीकी हानिका विचार मात्र किया जाय, किसी ज वको नाश करनेकी भावना की जाय या मलिनावरण व्यभिचार (विधवाविाह आदिके द्वारा) करनेका मनमें सकल्प या विचार किया जाय तो भी उसका भयंकर फल भोगना ही पडेगा । अवश्यही भोगना पड़ेगा । कृत कर्मों का फल भोगे बिना कर्मों की निर्जरा होती है ।
जीव कर्म और कर्मफल की श्रद्धा करनेवाले भव्यजीव के आचरण व्यापार और दैनिक चर्या परम विशुद्ध और परम पवित्र ' होती है । वह विचारता है कि मेरे किसी भी कर्तव्यसे किसीजीवको कष्ट न हो, मलिन पदार्थ के भक्षणसे मेरी बुद्धि भ्रष्ट न हो, मलिन रज वीर्य से मेरी संतानका पिंड (शरीर) मलिन न हो, मलिन स्पर्शास्पर्शसे मेरी मति गति मलिन न हो, मेरे व्यापारमे, अनीति और अन्याय न हो, मेरे धनका समागम जोर-जुल्म पूर्वक
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जीव और कम-दिवार। [४६. न हो। मेरी भोगॉनी वासना असदाचार-पूण नीति रहिन दुर्व्यसनरूप न हो । मेरा ए भी ऐसा वर्तव्य न हो जिसले मुझे परलोक और इहलोप में शुम पल मिले। इसीलिये यह दान, पूजा व्रत, प. दप, संयम, ब्रह्मचर्य नादि धार्मिक पुण्यकार्यों भक्ति-पूर्वक विशुद्धपनले क्रता है. निष्कपटमाबाले निरभिनान पर्व पता है।
वह राज्यका पालन इस प्रकार करता है कि जिससे प्रजाम सनीति अन्याय व्यसन और पाप क्मोंकी वृद्धि न हो । दुर्जनों पो (बर्नति करनेवालॉको) वह दंड देता है। सजनकी रक्षा. धर्मरक्षा, ननिरक्षा और स्वावारी मर्यादाकी रक्षाकल्येि करता है परंतु जिसदेशमें जीव-कर्म और कर्मफल नहीं मानते हैं वहीं परं प्रजा-पीडन अन्याय, अत्याचार, जुल्म-पूर्वक क्येि जाते हैं। अपने मोद-मजाके लिये निरपराध लैक्टों लाखों प्राणियोंके भारन्में दया नहीं जाती है। बच्ले आम द्वारा गांव गांव जला दिये जाते हैं। बम सादि विषैले पदार्थोलें दीन प्राणियों का एक्ताय बहार पिया जाता है । व्यभिचारमें धर्म मान लिया जाता है। झुठ बोलनेमें पाप नहीं माना जाता है। न्यायात्यों में मोन्यायके करने के लिये दिनदहा को सत्य और सत्यको ड्रडा सारित किया जाता है। बात बातमें धूसरे द्वारा गुपचुप त चोरियां की जाती है। श्रोता वृद्ध दुआ कि उसको गोलीके द्वारा समाप्त कर दिया जाता है। धन क्मानेके लिये क. साईखाने खोले जाते हैं। पशु-पक्षी आदि सुद तुमोको मार. पर अपना स्वार्य सिद्ध किया जाता है।
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जीवकर्म और कर्मफलकी प्राप्ति माने विना सदाचार के पवि
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जीव और कम विचार 1,
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न भाचरण सर्वथा नहीं हो सक्त, वास्तविक दयाका स्वरूप
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प्रकट नहीं होता । परिणामोंमें उतनी विशुद्धि ही नहीं है न अंतः करण में ऐसे दयाद्रभावोंके, विचार ही उत्पन्न होते हैं, न सन्नीति, और सदाचार, पालन करने के भाव होते हैं । नास्तिक भावोंकी, वासनासे विचार और भावोंमें तीव्रतर निष्ठुरता प्रत्यक्ष मूर्तिमान. स्वरूप धारण कर मा धमकती है । इसलिये बात-बात में अपने ' स्वार्थसिद्धि मोजमजा भोगविलालों की प्राप्ति के लिये द्र नगति से दौड लगाता है। इस प्रकारकी क्षैड धूपमें नीति और सदाचारका विचार नष्ट होजाता है। किसी भी प्रकारसे मुझे भोगविलास और मोजमजाकी प्राप्ति हो । चाहे उसकी प्राप्तिमें संसार का नाश होता
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हो, तो भले ही हो, अन्य असमर्थ और दीन प्राणियोंकी हिंसा,
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हो तो भले ही हो इसमें मेरी क्या हानि ? मुझे तो मेरे प्यारे भोगादि पदार्थों की प्राप्ति होना चाहिये ? मेरा जीवन भोगों की प्राप्ति में है और मेरा मरण भोगों की अप्राप्ति में है । मेरा सुख इन्मेंही है । यदि मुझे
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किसी भी प्रकार ( नीति अनीति पूर्वक) भोग्रोंकी प्राप्ति हो गई तो. स्वर्ग और मोक्षसुख प्राप्त हो गया । इसके सिवाय स्वर्ग और मोक्ष., सुख, नहीं हैं और भोगोपभोगसंपदा का नहीं मिलना, ही दुःख है, नरकका गम है । संसारमें ही स्वर्ग नरक है । इस प्रकार भोगविलासों की प्राप्तिमें ही मोक्षसुख माननेवाले नास्तिक लोग पापकरने में जरा भी नहीं डरते हैं, अनीति अत्याचार और जुल्म करने
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मैं भयभीत नहीं होते हैं। हिसा झु उ चोरी और नित्य कार्यों के
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___ जीव और कर्म विचार । [५१६ सेवन करनेमें ग्लानि नहीं करते है। वरिक हिंसादि: पाप. फर्गेमें धर्म मानते हैं। स्वार्थसिद्धि होना ही धर्म है। अपने स्वार्य के लिये गोवध धर्म मानते हैं; मांस मदिरा सेवनकरनेमें धर्म मानते हैं। स्वस्त्री, परस्त्री, सधवा, विधवा, बहिन, कन्या आदि सब प्रकार की स्त्रियोंके साथ खुले रूपम व्यभिचार करते हैं। यदि सर्कारी कानून न हो तो मनुष्य। मनु. प्यफा भक्षण करने लग जाय तो इसमें कुछ भी आधर्य नहीं है। यों तो धनसंपनोंकी नीति है कि गरीवोंके हम । सत्ताधिकारी है। मालिक है चाहें उनका जीवन अपने स्वार्यके लिये रहने दे। चाहे अपने स्वार्थ के लिये उनका जीवन नाश करें।
पश्चिम देशमें नास्तिकता व्याप्त है, परिपूर्ण रूपसे नास्तिकता का वहां पर साम्राज्य है, तो वहाकी परिस्थिति केसी चारित्र विहीन, नीति रहित, दया रहित, स्वार्थसे भरी हुई- अतिशय निकृष्ट मलिनावरण परिपूर्ण है। पाप, और पुण्य न मानने वाले पश्चिमदेशका सदाचार कितना पतित है इसकी तुलना अधम, दशाको प्राप्त हुये इस भारतसे की जाय तो पश्चिम देशको दुराचार और दुर्व्यसनोंकी राजधानी कहने में जरा भी अतिश' योक्ति नहीं है। वहांकी समर्थ प्रजा अपने आधीनस्थ प्रजाको चाटने में जरा भी कोर कसर नहीं रखती है। - हिंसाके व्यापारमें धर्म मानती है। मायाचार , और विश्वासघातको नीति मानती है। इसी प्रकारकी शिक्षा भी सबको दी जाती है। यह सब जीवकर्म और कर्मफल नहीं माननेका ही दुष्परिणम है।
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५२. ] !
पश्चिम, देश के, बातावरण शिक्षाके द्वारा धार्मिक और अस्ति : कत्ता से परिपूर्ण भारतवर्ष में भी द्रनगति व्यामोहके जालमें बढ़ते चले आ रहे हैं इस प्रकार धीरे धीरे भारतवर्षका पवित्र गौरव - पूर्व लदाचार, नीति और दयापूर्ण धर्म नष्ट होता चला जा रहा है और
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उसके स्थान में, दुराचार, दुर्व्यसन, कपटपटुता, विश्वासघाय
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आन्याय, अधर्म और मलिनाचार घेढता चला मारहा है ।
वर्तमानकी शिक्षा धर्म-कर्म पुण्य और पापको नहीं मानती है इसीलिये पापाचार में अधर्म नही मानती है, दुर्नीतिको दुर्नीति नहीं : समझती । - न्यायालय में, सत्यको मिथ्या और मिथ्याको सत्य.. सावित करने में अधर्म नहीं मानती है, यह सब पाप और पुण्य एवं जीव नहीं मानने का ही दुष्परिणाम है।
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'जीव मात्रका हित जीव, पुण्य और पापके मानने से ही होगा । जीव माने बिना, या कर्म कर्मफल माने बिना कोई भी. मनुष्य और उत्तम सदाचार सका है । -
उत्तम सदाचारको पालन नहीं कर सका !
पाले बिना आत्माका हित सर्वथा नहीं हो
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.. जिन लोगों को संसारके विपम दारुण, दुःखोंसे भय है जन्म मरणकी, दुस्सह, पीडाको नाश करनेके जिनके भात्र हो, गये हैं । जो, क्षुधा तृषा- कामः क्रोध-मान: साया-लोभः मत्सर- द्वेष- रोग, और, समस्त प्रकारकी प्रपंचना भगाना चाहते हैं । जो आत्मीय अक्षय अनंत सुखको प्राप्त करना चाहते हैं । जो, समस्त जीवों पर : दया पालन - चाहते हैं । जो पापोंसे बचना चाहते हैं उनको 'सबसे, प्रथम जीवकर्म और कर्मफल, पर श्रद्धा रखनी चाहिये ।
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जीव और फर्म- विचार ।
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जीव और कर्म विचार ।
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जिनको स्वर्ग नरक की श्रद्धा नहीं है । उनको पुण्य की भी श्रद्धा नहीं है, जीवको भी श्रद्धा नहीं हैं। हिंसा झूठ चोरी आदि पापोंसे बचनेके लिये क्यों प्रयत्न करेंगे ? 'उनके विचारोंमें बुरे फर्मो का फल बुरा होता है और अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है यह बात प्रमाणित किस प्रकार दो
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सकी है ।
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[ ५३
पाप और
वे लोग
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" जो जैसा करेगा वह वैसा फल पायेगा” इस प्रकारकी धारणा और ऐसे विचार जीव धर्म और कर्मफल नहीं मानते वालों के कैसे हो सक हैं ? उनके हृदयमें नास्तिकता की दुर्गंध ऐसे विचारोंको किसी भी समय अंकुरित नहीं होने देती हैं । 'वे • समझते हैं जबकि जीव ही नहीं है तब पापकर्मो का फल कौन - भोगेगा ? और स्वर्ग नरफ हैं कहां ? यह सब लोगोंको एक प्रकार की डरावनी है जिस प्रकार बालकको दऊआका भय बतलाकर अपना मतलव बना लिया जाता है । उसी प्रकार पापका भय बतलाकर जनताको डराया जाता है ?-- वस इस प्रकारके उच्छृंखल विचारोंसे मस्तक में दुर्वासना भर जाती है ।
"
- इस प्रकार उच्छृंखल विचारोंले मनुष्यों के कार्य स्वच्छन्दता से अनाति पूर्ण निंद्य हो जाते हैं । पापकर्मोके करने में जरा भी संकोच या लज्ञा प्राप्त नहीं होती हैं । नास्तिक शिक्षासे दीक्षित नवयुवक इसी प्रकार हो स्वच्छंदता से उद्धत और निद्यकर्म-निष्ट हो जाते हैं ।
समस्त मलिन वित्राका साम्राज्य, जीव, कर्म, कर्मफल नहीं
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४]]
air कर्म-विचार |
मानसे तत्काल ही होता है । यह बात इतिहास, प्रत्यक्ष प्रमाण
और युक्तिसे निराबाध सिद्ध होती है ।
आत्मवल्याण करनेवाले भव्यजीवोंको सन्मार्ग पर चलनेके ( लिये सबसे प्रथम जीवकर्म और कर्मफल पर पूर्ण श्रद्धान रखना चाहिये।"
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जीवकी सिद्धि ऊपर अनेक प्रमाणोंसे की जा चुकी है। और कर्म तथा कर्म फल जीवके साथ किस प्रकार संबंध रखते हैं जीवको कर्मोने किस प्रकार अपने स्वाधीन परतंत्र कर रखा है दिग्दर्शन मांगे किया जायगा परंतु अभी हमें जीवके स्वरूप 'में जो भॉति है वह जानलेना परमावश्यक है । : f कितने ही विचारशील महाशय ! जीवको मानते हैं परंतु - उसको कूटस्थ नित्य मानते हैं। जीवको कूटस्थनित्य मानना या नहीं इसी वातका विचार सामने रखते हैं। कूटस्थनित्य शब्द के दो अर्थ होते हैं ।
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( १ ) जिस वस्तु के कारण कलापोंको न मान कर वस्तु अनादिकाल से स्वयं सिद्ध सर्वथा अपरिवर्तनशील सर्वथा नित्य अधिकारी मानना यह कूटस्थनित्य है । ( २ ) जो वस्तु अपने स्वभावसे च्युत हो वह भी कूटस्थनित्य कहलाता है ।
यदि कूटस्थ नित्य जीव पदार्थ मान लिया जाय तो वस्तुका स्वरूप कभी किसी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सका है । समस्त पदार्थ अपने गुणपर्यायोंसे भिन्न भिन्न अवस्थाको धारण कर रहे है ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है कि जिसमें समय समय पर उत्पाद
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जोध और कर्म-विचार व्यय और धोव्य नहीं रहना हो। सर्वथा अपरिवर्तनशील, सर्वथा नित्य, ' सर्वथा अपरिणमनशोल कोई भी पदार्थ नहीं है। 'सर्वधा अपरिणमनशील पदार्थ मान लिया जाय तो पदार्थोकी दृश्यमान होने वाली पर्यायोंका (जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है) सर्वथा अभाव हो जायगा ।
प्रत्यक्ष होनेवाली पर्यायोंका अभाव माननेसे वस्तुका ही सं. वथा अभाव होता है । द्रव्य अपना स्वरूप धारण कर नहीं सक्ती है। संसारी जीवोंकी प्रत्यक्षमें होनेवालो नर-नारकादि पर्यायोंको नहीं माननेसे जीवपदार्थ नहीं माना ऐसा कहने में किसी भी प्रकारकी अतिशयोक्ति नहीं है।
यदि जीव कूटस्थ नित्य है तो नर-नारकादि होनेवाली पर्याय जीवकी है या नहीं ? यदि जीवकी है तो फिर कूटस्थनित्य किसप्रकार माना जाय । क्योंकि नर-नरकादि पर्याय क्षणस्थायी है। क्षणक्षणमें नवीन नवीन पर्याय अपने अपने कमोसे जीवमें 'उत्पन्न होती है और विलीन हो जाती हैं।
जीवकी अशुद्धता है तो केवल नर-नरकादि पर्यायकी दृष्टिसे 'हो होती है । फर्मोदयसे जीव 'नरकादि पर्यायोंको धारण करता है । इसलिये जीवको सर्वथा नित्य मान नहीं सके हैं।
सर्वथा नित्य माननेसे पदार्थों में क्रियाकारक्त्वका अभाव होगा। अर्थक्रियाकारक प्रभाव होनेसे संसारके समस्त व्यापार नष्ट हो जायगे । सर्वथा नित्य माननेसे द्रव्यका सद्भाव नहीं ठहर सका है।
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५] जीप और फर्म-विचार ___ जो जोव-पदार्थको सर्वथा अपरिणामो मान लिया जाय तो शालक-वृद्ध-युवा आदि दशाओंका यभाव मानना पडेगा परंतु बालक-वृद्ध-युवा आदि पर्याय निरंतर उत्पन्न होती हो रहती हैं। तथा व्यवहारका लोप मानना पडेगा।, ..
व्यवहारमें नवीन घट-पटादिको उत्पत्ति निरंतर होती ही र. हती है । वनस्पति निरंतर अकुरित होतो है, मेव वृष्टि होती है, क्षणस्थायी विद्युत अपना चमत्कार बतलाती हो है इसप्रकार त्यवहारमें गृहादि समस्त पदार्थों में विनाश और उत्पाद प्रकर हो रहा है । जीव पदार्थ भी मरणको प्राप्त होता है। अपनी शरीर. पर्यायको छोडता है। जीव पदार्थ जन्मको प्राप्त होता है अपने कर्मोदयानुसार नवीन पर्याय धारण करता है यदि सर्वथा अप. रिणामी मान लिया जाय तो उपर्युक्त व्यवहारका सर्वथा लोप होगा। . . .".शरीरमें रोग होता है शरीरमें बल, वीर्य, तेज, - कानि वढती घटती है । जो जोच पदार्थ नित्य माना जाय तो उपर्युक्त क्रियाओं का अभाव हो जायगा। .. एक हो जीवको - एकसमय क्रोध होता है तो दूसरे समय उसी जीवको हर्ष होता है तीसरे समय शोक होता है चौथे समय उद्वेग होता है पाचवे समय संताप होता हैं छठे समयमें आनंदित होता है । इसप्रकार जीवमें क्षण क्षण नवीन पर्याय उत्पन्न होती हैं जो जीवको सर्वथा अपरिणामो मान लिया जाय तो ये पर्याय कैसे उत्वन्न हुई ? सर्वथा अपरिणामी वस्तुमें परिणमनः
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जीव और कर्म पिचार। [.५० (उत्पाद) होता नहीं हैं मोर उत्पाद प्रत्यक्ष दीख रहा है तो फिर जीव-द्रव्यको सर्वथा नित्य किस प्रकार मान लिया जाय ? , --
क्रोध हर्प शोक संताप सुख-आनंद और उद्वेगादिक पर्याय अजीवको (शरीर) कह नहीं सके हैं, क्योंकि हर्प आदि गुण जीवके विभाव-परिणाम है। यदि अजीवके होते तो इन गुणोंमें झानका उद्भोस प्रतीत नहीं होता। शरीरमें ये गुण माने तो मृतक शरीरमें भी ये गुण व्यक होने चाहिये। अजीव-पदार्थमें ये उप. र्यक गुण माननेसे जोवाजीवका भेद लोप होगा इसलिये जीवको सर्वथा नित्य मानना अपरिणमनशील मानना प्रत्यक्ष प्रमाणसे विरुद्ध है।
एक जीवमें प्रथम समयमें ज्ञान कम है। यालक प्रथम समय में कम मान रखता है अथवा बालरको स्वल्पज्ञान होता हैं परंतु घही यालक युवा होनेपर अतिशय प्रज्ञावान समस्त शास्त्रोंका वेत्ता हो जाता है । इस प्रकार एक जीवमें ज्ञानकी तर-तम अवस्था (न्यूनाधिकता) जोव-पदार्थको सर्वथा अपरिणामी माननेसे हो नहीं सकी है। - ज्ञान गुण आत्माका ही है जो आत्मामें ज्ञानको तरतमता कालके व्यवधानसे होती है वह शरीर आदि जड़ पदार्थकी नहीं है यद्यपि जीव सहित शरीरको ही जीव व्यवहारसे कहते हैं। जिसमें इन्द्रिय-आयु-श्वासोश्वास और काय ये चार बातें हों वही जीव है। मनुष्य शरीरमें उक्त-चारों,वाते दृष्टिगोचर हो रही है इसलिये मनुष्यका शरीर हो कथंचित मनुष्य जीव है। तो भी ज्ञानगुण
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AAVAL
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जॉब और कर्म विचार । यह तो नत्माको ही धर्म है । शानमें न्यूनाधिताका होनी जीव को पर्यायको अनित्य सिद्ध करता है इसीलिये यह तो मान नहीं सक्त कि जोव सर्वथा हो अपरिणामी है । एकांतसे सर्वथा अपरिणामी मानना व्यवहार दृष्टि से अशुद्ध जीवका लोप करना है, फर्म और फर्मफलका लोप करना है। अशुद्ध जीवका लोप करने से शुद्ध जीवको भी लोप हो जायेगा।
यदि जीवको कटस्थ नित्य मान लिया जाय और नर-नारकादि पर्याय जीवकी नहीं मानी जायं तो नरकादि पर्याय जीवको छोडकर किसकी मानी जायं? अजीवकी या किसी क्षणस्थायी जीवकी ? दोनों पक्षमें दूपण है । जो नर-नरकादि पर्यायोंको अजोध की पर्याय मान लिया जाय तो मजीव-पदार्थ में ज्ञान, 'दर्शन, सुख, 'अनुभव'आदि जीवके गुण अवश्य हो 'मानने पहेंगे फिर जीवपदार्थ ही नहीं ठहरता हैं और जीव-पदार्थ मानते हो तो ये दोनों 'चा परस्पर विरुद्ध किसंप्रकार मान्य और प्रमाणित हो सकी है। '. यदि जीवको क्षणस्थायी मानते हैं तो प्रतिज्ञाकी हानि होगी कि जीव कूटस्थ नित्य है । कूटस्थ-नित्य मान फर फिर क्षण. 'स्थायी मानना यह सर्वथा विरुद्ध है 'अज्ञानता है। पवनकी नियामकता नहीं है । मनकी स्थिरता नहीं है और तत्वको सुनि'श्चिलता निराशाच प्रमाण नहीं है।
यदि कूटस्धनित्यका अर्थ सर्वथा अपरिणामी ने मान कर 'यपने स्वभावले च्युत नहीं माना जाय (जो कि प्रारंभमें दो प्रकार की व्याख्या कूटस्थ-नित्य शब्दकी है ) तो उसमें भी दो विकल्प
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जीप और कर्म-विचार।
होता है। परंतु गुणोंमें परिणमन अवश्य होता है। आममें हरा रंग था ( हरा यह पुद्गलफा गुण ) संतु धाडेसे.समय बाद पोला होगया। इस प्रकार गुणोंमें परिणमन निरन्तर होता ही रहता है। इसलिये कूटस्थनित्यका अर्थ स्वभावच्युतिका नहीं होना मानकर गुणोंमें परिणमन नहीं माना जाय तो घस्तु अपना स्वरूप धारण कर नहीं सक्तो है। कूटस्थ नित्यका अर्थ खभावसे अच्युति भले ही मान लिया जाय परतु गुणोंमें परिणमन अवश्य हो मानना पडेगा। कूटस्थनित्यका अर्थ खमारसे अच्युति और अपरिणामी मानेंगे तो वस्तु कभी भी अपनी सत्ताको धारण नहीं कर सकेगो तथा भेद व्यवहार नहीं होगा। अर्थमें क्रियाकारकका अभाव मा जायगा। - गुणोंके परिणमनसे द्रव्यमें भी परिणमन निरंतर होता ही रहता है । क्योंकि गुणोंका समुदाय ही द्रव्य है। जो गुणोंमें परिणमन अप्रतिहत है तो द्रव्यका. परिणमन भी निरायाध सिद्ध है । आममें प्रथम खट्टा रस था परंतु पकने पर मीठा रस होगया यह गुण परिणमन होने पर द्रव्य ( आमद्रव्य ) में परिणमन हुआ कठिनसे नरम और मृद होगया। शून्यताका प्रसग आजायगा। गुणोंका अभाव हो नहीं सका है वस्तु अपने अस्तित्वको गुणोंसे ही धारण करती है। गुणोंका अभाव होनेपर शून्य भावको धारण करेगी। . . . . __ जो लोग मोक्षमे द्रव्य और गुणोंका अभाव मानते हैं वे 'अविचार है।
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जीव और फर्म विचार
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• इस प्रकार इत्याही गुणोंसे स्वभाव च्युति नहीं होती है परतु गुण और मून्य में परिणमन अवश्य ही होता है। फुटस्थनित्यका अर्ध द्रव्य लाने गुणोंको नहीं छोडती हैं एतायन्मान माननेसे विशेष हानि नहीं है। किंतु प्राय और गुणोंमें परिणमन अवश्य' ही मानना पडेगा
व्य और गुणोंमें परिणमन प्रत्यक्ष दृष्टि गोचर हो रहा है। यदि जीवद्रव्य मोर जीरद्रव्यके गुणोंमे परिणमन नहीं माना जाय तो जोवद्रव्यशी अनादिकालसे जो अशद्ध अवस्था पर्मोदयके कारणसे हो रही है यह नही मानी जायगी । फर्म और कर्मफलका स्वरूप नहीं बनेगा । साथ २ में जांघद्रव्यका पूर्ण स्वरूप निश्चित नहीं हो सकेगा।
छन्योंमें मगुरुलघु नामका एक गुण है जो ट्रन्योंमें निरंतर परिणमन फरानेमें सहकारी होता है। अनंतगुण हानि वृद्धि पटम्यानोंके द्वारा द्रव्यमें यह अगुस्लघु निरंतर कंगना ही रहता . है। जिसमे द्रव्य और गुण दोनोंमें निरनर परिणमन समय समय पर होता रहता है समय यद्यपि अत्यन्त सूक्ष्म हैं और - अगुल्लघु गुणके द्वारा अनंतगुण वृद्धि तथा अनंतगण हानि . आदि जो क्रियात्मक कार्य निरंतर होता है उससे वस्तु और वस्तुके स्वभाव (गुण ) में परिणमन होता ही रहना है। .
· द्रव्यको चाहे अशुद्ध अवस्था हो अथवा शुद्ध यवस्था हो परंतु द्रव्य अपने मगुरुलघु गुणके द्वारा अनंतभोग वृद्धि अथवा हानि
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६२. जीव और कर्म विचार। सपाष्ट्रस्थान रूप अवश्य होती ही रहेगी। एक परमाणु जो अत्यन्त सक्षम हैं नेत्र इन्द्रियके गोचर नहीं है। इससे सूक्ष्म घस्तुकाः रूप नहीं है। परंतु , उस परमाणुके गुणोंमें, अगुरुलघुगुण द्वारा परिणमन होगा ही। परमाणुके (एक तप या गंध आदि किसी गुणको ले लीजिये) रूपगुणमें जो असंख्यात अविभागी प्रतिच्छेद हैं उन अविभागी प्रतिच्छेदोंमें अनंतमाग वृद्धि या हानि पट रूप होगी ही। जो द्रव्यके मूलरूप परमाणुमें और परमाणुके गुणों, में इसप्रकार परिणमन माना जाय तो परमाणुओंके बंध रूप, स्कंधमें अर्थक्रियाका अभाव होगा। शुद्ध जीव द्रव्य (सिद्ध, परमात्मा) के द्वारा निरंतर परिणमन होता है।
' द्रव्यमै उत्पाद व्यय और ध्रौव्यका विचार किया जाय तो. उसका मल कारण सत्तागुण और सहकारी कारण द्रव्यत्व आदि गुण हैं। आभ्यंतर कारण द्रव्यको सत्ता शक्ति है और उस शक्तिमें सहायक द्रव्यत्व और अगुरु लघु गुण है । जो द्रव्यमें उ. त्पाद होने की शक्ति ही नहीं हो तो द्रव्यमें परिणमन हो नहीं' सका। इसलिये समस्त द्रव्योंमें स्वभावतया परिणमन होनेकी - शक्ति है। तय ही तो द्रव्यमें परिणमन होता है उत्पाद व्यय और ध्रौव्यपना होता है । परिणमन होते हुये भी द्रव्य अपने २ गुणको' अपने अपने स्वरूपको सर्वथा नहीं छोडती है गुणोंका नाश नहीं होता है । और गुणोंका नाश नहीं होनेसे द्रव्यंका नाश नहीं होता है। इसीलिये उत्पाद और-व्यय होतेपर भी द्रव्यमें नौव्यता नियमित रूपसे, बनी रहती है।
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जीव और कर्म-विवार
[ ६३
जल्में तरंग स्वभावरूपसे निरंतर होती है द्रव्यमें भी खभायरूप परिणमन होता है। शुद्ध द्रव्यमें स्वभावपरिणमन होता है । अशुद्ध द्रव्यमें विभावपरिणमन होता है । जीव और पुद्गल य दृष्य ये शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकारकी है।
अशुद्ध द्रव्यमें परिणमन वाह्यकारण-कलापोंके निमित्तसे और आभ्यंतर द्रव्यकी शक्तिसे होता है । परंतु शुद्ध द्रव्यमें परिणमन होनेमें वाह्यकारणकी विशेष आवश्यकता नहीं है । प्रतीतिरूप कार्य वाह्यनिमित्तके द्वारा हो मानना पडेगा जैसे केवलज्ञान में समस्त परिणमनशील पदार्थोंको ज्ञायकतामें कथंचित् उत्पाद व्यय विशिष्ट पदार्थ कारणभूत है ।
आकाशादिक नित्य द्रव्योंमें भी परिणमन होता है । परंतु स्वभावरूप हो होता है । यदि उत्पाद और व्ययको स्व-परप्रत्यय माने तो नित्य द्रव्यमें भी उभय रूप कथंचित् उत्पाद और व्यय रूप परिणमन मानना पडेगा । इस प्रकार आकाशादि नित्य द्रव्यमें भी परिणमन होता है । तो द्रव्यको कूटस्थनित्य मानना वस्तुके स्वरूपको नहीं जानना है । फुटस्थ नित्य कोई भी द्रव्य किसी प्रकार किसी अवस्थामें हो नहीं सक्ती । हां अपेक्षासे (द्रव्यार्थिक नय से ) द्रव्यको कथंत्रित नित्य कह सके हैं। कूटस्थ नित्य तो किसी रूपमें नहीं कह सके क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे सभी द्रव्य समय समय पर परिणमन करती है ।
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द्रव्यका लक्षण ही उत्पाद व्यय और श्रीव्य रूप माना हैं यदि द्रव्य में से उत्पाद और व्यय नहीं मानकर केवल एक धौन्य
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६४]
जीव और कर्म-विचार। रुप ही मान लिया जाय तो द्रव्यका लक्षण निर्दोषं रूपसे सिद्ध नहीं हो सका हैं। अव्याप्ति अतिव्याप्ति दूषणोंले ग्रसित हो जायगा। समय समयमें होने वाली घटमें कुशलादि-कालादि पर्याये कूटस्थनित्यका अभाव प्रत्यक्ष सिद्ध करती हैं।
खान-पान हलन-चलन संभाषण सचितवन गमनागमन आदि समस्त क्रियाओंका लोप जीवको कूटस्थनित्य माननेसे मानना पडेगा क्योंकि कूटस्थनित्य वस्तुमें किसी प्रकारकी क्रिया मानी नहीं जायगी। जो कूटस्थनित्य वस्तुमें क्रिया भानी जाय तो वह कटस्थनित्य हो नहीं सका। जो वस्तु परिणमनशील है उसीमें क्रियाकारत्व विधि युक्तिपूर्वक सिद्ध होती हैं। परिणमन रहितमें क्रिया मानें तो वह अपरिणमन किस प्रकार कहा जाय।
इस प्रकारकी कल्पनासे न तो शुद्ध जीवका • यथार्थ स्वरूप सिद्ध होता है और अशुद्ध जीवको स्वरूप भी सर्वथा सिद्ध होता ही नहीं। क्योंकि अशुद्ध जीप कर्मोदयसे समय समयमें नवीन नवीन पर्याय धारण करता है, जन्म-मरण करता है, वालक वृद्ध होता है। फिर भी प्रत्यक्षमें व्यवहारका सर्वथा अभाव (लोप) कर और प्रत्यक्षमें होनेवाले कार्योंका लोप कर पदार्थोंको कूटस्थ नित्य मानना किसी प्रकार युक्तिसिद्ध नहीं हैं। ___ जो जीवको कूटस्थनित्य मान लिया तो फिर कोई भी पोप कैसाही भयंकर क्यों न करे. उसका फल जीवको नहीं होगा क्योंकि जीव नित्य है उसमें किसी प्रकारका परिणाम नहीं हो सकता है । पाप और पुण्य-कर्मका लोप करनेके लिये हो जीवको
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जीव और कर्म-विवार। [६५ नित्य माना है क्योंकि नित्य घस्तुका जन्म मरण नहीं हो सकता है और जन्म-मरणके विना परलोक नरक स्वर्ग आदि माने नहीं जा सके।नरक स्वर्ग माने बिना कर्म और कर्मफल क्यों माना जायगा? फर्म और कर्मफल नहीं माना जाय तव हो मनमाने पापकर्म अन्याय और भोगविलास-मोज मजा होगी। क्योंकि नित्य वस्तुमें कर्मफल भोगनेकी शक्ति नहीं है।
इस प्रकार धर्म-कर्म पाप-पुण्य और जप दानादिक उत्तम कमोंका लोप करनेके लिये वस्तुको कूटस्थनित्य मान लेना सबसे अच्छा उपाय है । न जन्म काडर है और न मरणका ही कुछ भय है। सब प्रकारसे मनमाने कार्य करो नीति और न्यायको भलेही खुटी पर धर दो सदाचारको भले ही मदिरा वनमेकी भट्ठोमें भस्म कर दो। चाहे सो करो।
क्षणिक जीव-विचार कितने ही विचारशील मनुष्य जीवको क्षणिक मानते हैं। जीवको क्षणिक मानना भी युक्ति और आगमसे सर्वथा विरुद्ध है।
जीवका स्वरूप क्षणिक किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता है। बौद्ध आदि कितने ही मतवादी जीवको समय-समयमें नवीन नवीन उत्पन्न हुआ मानते हैं। एक मनुष्य-शरीरमें अनंत जीव क्षण-क्षणमें उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार एक पर्यायमें क्षण-क्षणमें अनंत जीवोंकी उत्पत्ति मानना यह प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणसे सर्वथा विरुद्ध है।
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जीव और कर्म - विचार |
यदि जीवकी क्षण-क्षणमें नवीन उत्पत्ति मान ली जाय तो प्रत्यभिज्ञानका सर्वथा लोप मानना पडेगा । प्रत्येक मनुष्यको प्रत्यभिज्ञान होता है जिससे संसार के समस्त व्यवहार निरंतर होते हैं वे सर्व नष्ट हो जायेंगे । प्रत्यभिज्ञानका स्वरूप शास्त्रों में यह बतलाया है कि- पूर्वमें अनुभवित किये हुए पदार्थका स्मरण और वर्तमान समयका जोड़ रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।एक सेठने एक मनुष्यको एक लाख रुपया उधार (ऋण) दिये तो वे रुपया किससे वसूल किये जांय ? क्योंकि जिसने रुपया ऋण लिये हैं बह जीव ही नहीं रहा और नवीन जीव ओ गया क्योंकि क्षण क्षण में नवीन जीवकी उत्पत्ति माननेसे लेने वाला नष्ट होगया और दूसरा जीव आ गया इस प्रकार प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे सर्व व्यवहार नष्ट हो जायेगा ।
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जीवको क्षणस्थायी मान लेवें तो कर्मफलका मानना सर्वथा सिद्ध नहीं होगा। क्योंकि एक जीवने हिंसा की उस हिंसाका फल उस जीवको इस लोक और परलोक में कैसे प्राप्त होगा ! क्योंकि हिसा करनेवाला जीवको क्षणस्थायी मानने से वह नष्ट होगया तो हिंसाका फल भोगनेवाला कौन होगा ! अन्य जीव भोगेगा ऐसा मानें तो नवीन निरपराधी जीवको फल भोगना पढ़ेगा और आपराध करने वाले जीवको अपराधका फल नहीं मिलेगा ? तो यह न्याय संगत नहीं हो सका है ।
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जीव और फर्म- विचार ।
[ ६, नष्ट हो गया और नवीन जीव आस्वाद करनेवाला आ जानेसे स्वाद करना नहीं बनेगा ।
जीवको क्षणिक माननेसे गुण-गुणियों का संबंध नहीं वन सकेगा। गुण-गुणियाँका सबंध नित्य नहीं मानने से पदार्धकी सत्ता किसी प्रकार भी स्थिर नहीं रह सकी है ।
सभी पदार्थ क्षणिक माननेसे आकाशादि पदार्थों की नित्यनाका अभाव मानना पडेगा । वस्तु क्षणिकरूप मानने से महासत्ताका अभाव मानना पडेगा और अत्रांतर सत्ताका भी ( गुण गुणियों का सर्वथा नाश मानने से ) अमाव मानना पडेगा । इस प्रकार वस्तुको क्षणिक माननेसे वस्तुकी स्थिरता किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकी है । वस्तु अपना अस्तित्व गुण-गुणियों का नित्य सबंध मानने से ही हो सकेगा ।
इस प्रकार वस्तुको क्षणिक माननेसे कर्म और कर्मफल सिद्धान्त सर्वथा नहीं होगा । इसलिये क्षणिक पदार्थ मानना यह युक्ति और आगमसे सर्वधा विरुद्ध है और प्रत्यक्ष प्रमाणसे भौ विरुद्ध है। क्योंकि एक मनुष्य पचास साठ वर्षपर्यंत अपना जीवन व्यतीत करता है और अपनी दश वर्षको आयुका सब स्मरण
बतलाता है इससे मालुम होता है कि जीव क्षणिक होता तो इस प्रकारका स्मरणज्ञान नहीं होना । इसलिये पदार्थ क्षणिक नहीं है ।
* बौद्ध मत वाले इसलिये मांसभक्षण करनेमें पाप नहीं मानते हैं इसी प्रकार अन्य पापके करने के लिये भी कोई वाध्यता नहीं है ।
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६८ जीव और कर्म-विचार।
जीवका अकर्तावाद कितनेही मतवाले जीवको अमर्त्ता मानते हैं। उनका मानना भी कर्म और कर्म-फलको नहीं माननेके समान है, जीवको अकर्ता माननेसे जीवको कर्म और कर्मफलका कर्ता और भोका नहीं होगा, जब जीव कोका कर्ता ही नहीं है तो जीवके द्वारा होने वाला पाप और मलिनाचरणोंका फल कैसे प्राप्त होगा। अकर्ता माननेसे जप-तप-पूजा आदिका करना निरर्थक होगा। , एक मनुष्य चोरी या अन्याय कर रहा हैं यदि जीवको अकर्ता माना जाय तो चोरी या अन्यायका करनेवाला कौन है ? यदि ईश्वरको कर्त्ता माना जाय तो वोरी करनेवाले एक साधारण मनुष्यको ईश्वर माना जाय क्या ? यदि ईश्वरने अन्त:करणमें प्रेरणा की और ईश्वरकी प्रेरणासे एक साधारण मनुष्यने चोरी या अन्याय किया तो उसका फल ईश्वरको होना चाहिये परंतु न्ययालय (कोट) ईश्वरको दंड नहीं देता है किंतु उस व्यक्तिको ही दंड देता है जिसने कि चोरी या अन्याय किया है। इसलिये ईश्वरकी प्रेरणासे अन्याय यो चोरी आदि कार्य हुए ऐसा मानना बन नहीं सकेगा। दूसरी बात एक यह भी है कि जीवको अकर्ता मानलिया जाय तो वेश्यागमन बोरी अन्याय दुराचार आदि पाप कर्मोको क्या ईश्वरने कराया ? यदि ईश्वर अन्याय चोरी दुराचार करावे तो वह ईश्वर ही क्यों माना जाय? दूसरे प्रत्यक्षमें कार्य तो ईश्वर कर्ता नही है। साधारण व्यक्ति ही कर्ता है तो फिर जीवको अकर्ता किस प्रकार माना जाय?"
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जोच और कर्म-विचार।
जीवको अकर्ता मान लिया जाय तो संसारके समस्त व्यवहार लोप हो जायगे तथा प्रत्यक्षमें होनेवाले कार्योंका लोप मानना पडेगा। ___ यदि जीवको अकर्ता माना जाय और उसमें ईश्वरको तटस्थ रखा जाय तो खान पान व्यवहार नहीं हो सकेंगे। तथा कर्म और कर्मफलको प्राप्ति नहीं हो सकेगी एवं जीवको अकिंचित्कर मानना
पडेगा।
जीव प्रत्यक्षमें समस्त कार्य करते दीख रहे हैं जीवको अकर्ता माननेसे जीवका हलन चलन गमनागमन आदि समस्त व्यापार वंद हो नायगे। यह बात सबको प्रत्यक्ष है कि जीव समस्त कार्य फरते हैं। ईश्वर कर्ता सिद्ध भी नहीं हो सकता, कारण जगतमें जितने भी कर्ता पाये जाते हैं वे सव इच्छावाले है, शरीरवाले हैं, इष्टा-निष्टा वुद्धि रखने वाले हैं परंतु ईश्वरके इच्छा भी नहीं है और इष्टानिष्टा वुद्धि भी नहीं है ऐसी अवस्थामें वीतरागी अशरीरी अमूर्त ईश्वर जगतकी रचना करने में सर्वथा असमर्थ है। फिर ईश्वर जगत् वनानेमे, उपादान कारण है या निमित्त कारण है इत्यादि विचार करनेले भी वह जगतकर्ता किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता है।
कितने ही मतवादी जीव-पदार्थ मानते हैं परंतु जीव-द्रव्य. को क्रिया रहित मानते हैं। प्रकृति ही सब कुछ क्रिया करती है ऐसा मानते हैं। पुरुष निर्लेप रहता है प्रकृति समस्त कार्य करती है। प्रकृति में समस्त की शक्ति है पुरुष प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न
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७० ]
जीव और कर्म- विचार ।
हैं । पुरुषको आत्मा कहते हैं । प्रकृतिको कर्म या माया कह
सक्के हैं ।
पुरुषको गुणोंसे निर्लेप मानना और प्रकृतिको शक्तिशालिनी मानना, बुद्धि आदि गुण विशिष्ट मानना यह सर्वथा प्रमाणसे विरुद्ध है ।
यदि पुरुषको गुणोंसे सर्वथा निर्लेप मानलिया जाय तो आत्मा गुण रहित होनेसे शून्य हो जायगा । पुरुष आदि है या प्रकृति ? जो प्रथम पुरुषको मानें तो पीछेसे प्रकृति कहांसे आगई ? और आदि पुरुष निर्गुण रहा या सगुण ? जो निर्गुण था तो वह पुरुष क्योंकर हो सक्ता है ? जो पुरुष प्रथमसे ही गुण सहित था तो पीछेसे प्रकृतिने मिल कर क्या काम किया ?
जो प्रकृति और पुरुष एक साथ उत्पन्न हुऐ तो प्रकृतिसे पुरुष भिन्न है या अभिन ? जो प्रकृतिले पुरुष भिन्न है तो प्रकृतिले भिन्न पुरुष क्या कार्य करता है ? और पुरुष (आत्मा) गुण रहित प्रकृति में भिन्न होकर कैसे मिलगया ( संबंधित होगया ) जो स्वयं तो बिना कारण बंध नहीं होता है ? जो ईश्वरने पुरुषको प्रकृति से मिला दिया तो सगुण प्रकृतिमें निर्गुण पुरुषको ईश्वरने कैसे मिला दिया ?
जो प्रकृति से पुरुष अभिन्न है तो फिर प्रकृति और पुरुषमें क्या भेद है । प्रकृति और पुरुष इस प्रकार दो पदार्थ मानने से क्या लाभ ? एक ही माननेसे कार्य सिद्ध हो सका है।
सांख्यमतवादी पुरुष और प्रकृतिको भिन्न भिन्न पदार्थ
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जीप और कर्म विवार ।
[७१ मानते हैं । पुरुष ( आत्मा) को सर्वथा निर्गुण मानते हैं। परंतु प्रकृति जड है उसे निष्क्रिय भी मानते हैं ऐसी दशा में वह कुछ भी नहीं कर सकी है, और प्रतिफा सबंध होनेपर पुरुपमें यदि कुछ भी विकार नहीं होता है तो फिर ससार और मुक्त जीवमें भेद ही क्या रहेगा? इसलिये साल्पमतका निरूपण संगत नहीं है।
क्तिने ही मतवादी जीवात्मा और परमात्माको एक ही मानते हैं। उनका कहना है कि "एकमेव परब्रह्म नेह नानास्ति किंचल।" एकही परमात्मा है अन्य दूसरा कोई नहीं है। यह ब्रह्मातवाद है ब्रह्मको छोडकर और सब कुछ मिथ्या है
यहां पर विचारशील विज्ञपुल्योंको विचार करना चाहिये कि समस्न संसारमे एकही परमात्मा है अन्य कोई जीवात्मा नहीं है? समस्त नोवोंमें परमात्मा छायारूप रहता है या तत्त्वरूप जो समस्त संसारी जीवोंमे एकही परमात्मा रहता है जैसे एक चंद्रमाकी छाया समस्त पानीके वर्तनमें पडती है नो समस्त पानीके घर्तनोंमें चंद्रमा छायारूपमें दृष्टिगोचर होता है । अथवा एक मनुष्यका चित्र अनेक दर्पणमें प्रतिविदित होता है। ऐसे ही एक परमात्मा समस्त । संसारी जीवोंमें छाया रूपसे रहता है। तो समस्तसंसारी जीवोंमें एक परमात्माकी छाया माननेसे समस्त जीवोंमें एकरूप क्रिया होगी। समस्त जीवोंमें एकरूप क्रिया माननेसे समस्त व्यवहारका लोप होजायगा। और समस्त प्रकारकी क्रिया एकरूप माननेसे समस्त जीशंका खानपान रोग शोक हर्प विपाद आदि समस्त किया एकसी होना चाहिये, एक रोगीको भूख लगी तो
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७२]
जीव और कर्म-विचार। समस्त जीवोंको भूख लगना चाहिये । इस प्रकार समस्त जीवोंकी. एकरूप क्रिया माननेसे समस्त व्यवहार लोप हो जायंगे।
यदि समस्त जीवोंमें परमात्मा तत्त्वरूपसे वास करता है छाया रूप नहीं? तो समस्त जीव ही परमात्मा कहे जायगे। समस्त जीवोंमें अधिकाश जीव चोरी व्यभिचार और अन्याय आदि पाप करते हैं तो वे समस्त पाप परमात्मा कृत माने जायंगे जो परमात्माके लिये दूषणास्पद है।।
जो समस्त जीवों में परमात्मा तत्त्व रूपसे रहता है तो परमा. त्माको जन्म-मरण आदि संसारकी समस्त उपाधि साननी पड़ेंगी क्योंकि समस्त संसारी जीवोंमें जन्म मरण आदि समस्त प्रकार. की उपाधि लग रही है और जो समस्त जीवात्मा है वह एक परमात्माका रूप माननेसे परमात्मामें जन्म मरणकी समस्त उपाधि अनिवार्य रूप माननी हो पड़ेगी।
कदाचित् ऐसा माना जाय कि समस्त जीवोंमें एक परमा. त्मा ही है जीव पदार्थ कोई अन्य नहीं है मायासे भ्रांति रूप ऐसा ज्ञान हो रहा है। परंतु मायासे इस प्रकारके ज्ञानको सत्य माने या मिथ्या ( असत्य )? जो भ्राति रूप ज्ञान ( जो मायासे परमा. त्माका रूप जीवात्मा रूप दीखरहा हैं ) सत्य है तो सत्यज्ञानको भ्रांति रूप किस प्रकार कह सके हैं। संशय या अनध्यवसाय रूप ज्ञानमें ही भ्रांति होती है सो सत्यज्ञानको भ्राति रूप माने तो वह संशयात्मक होनेसे प्रामाणिक रूप नहीं होगा। दूसरे अनेक विरुद्ध कोटिमें रहने वाले अनिश्चयात्मक
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जीव और कर्म विचार ।
[ ov ज्ञानको संशयज्ञान कहने तो यहां पर परमात्मा और जीवात्मामें गवयात्मक ज्ञान नहीं है इसलिये सशय नहीं कह सक है ? न सन्ध्यवसाय ही कह सकेंगे क्योंकि अनध्यवसाय धानको एक प्रकार से अज्ञान कहते है। जो भ्राति रूप ज्ञान सत्य प्रमाणित हो रहा है उसको भमान किस प्रकार कहे हैं ।
जो संसारी समस्त जीवोंमें मायासे परमात्मा दीख रहा है वह मिध्या है । तो संसारी जीवोंमें परमात्मा मानना भी मिथ्या ही टहरा । यदि मात्रा ब्रह्मले भिन्न है तब तो हैत सिद्धि हो जाती हैं और यदि माया उसने अभिन्न है तो वह मिथ्या नही किंतु वास्तविक सिद्ध हो जाती है।
"एकमेव पर नेह नानास्ति किचन" ऐसा सिद्धांत युक्ति और प्रमाणसे ग्रान्य होने पर स्वीकार कर लिया जाय तो पाप-पुण्य जप-तप आदि समस्त उत्कृष्ट सदाचरण व्यर्थ होंगे। धर्म सेवन करना भी निष्काम होगा, दीक्षा धारण करना भी निष्फल होगा। क्योंकि समस्त जीव एक परमात्मा है तब दीक्षा धारण करना या जप तप आदि पुण्य कार्य करने की क्या आवश्यकता ? तथा मोक्ष और संसारका भेद उठ जायगा । बंघ और
कारण मोक्ष और मोक्षकारण मानना व्यर्थ हो जायगा । तथा परमात्माको समस्त जीवात्मामें मानने से परमात्माकी स्थिति टहर नहीं सकी है इस प्रकार परमात्माको ही जीवात्मा मानने से अनेक दूषण प्राप्त होंगे ?
एक बात यह भी है कि समस्त जीवात्माओं में परमात्मा एक
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जीव और कर्म-विचार।
रूपसे रहता है या तारतम्य अवस्थास? समस्त जीवात्माओंकी शक्ति गुण प्रदेशप्रवय और द्रव्य एक समान है या न्यूनाधिक हे १ समस्त संसारी जीवात्माओंको अपने २ कर्तव्योंसा फल प्राप्त है या नहीं ? जो समस्त जीवोंमें परमात्मा एक समान ( एक परिमाण-तोल और एक शकिकी एक समानताले) रहता है तो समस्त जीव एक समान होने चाहिये ? यदि तारतम्य अवस्थासे परमात्मा रहता है तो परमात्मामें रागद्वप मानना पडेगा। जो समस्त जीवात्माकी शक्ति गुण प्रदेशप्रचय और समस्त जीवोंका द्रव्य एक समान है नो जीवात्माओंमें भेदभाव क्ष्यों दृष्टिगोचर हो रहा है। जब सबमें परमात्मा एकसमान और जीवद्रव्य एकसमान है तब भेदभाव क्यों ? जो जीवात्मामें एक जीवसे दुसरे सीवकी अपेक्षा शक्ति-गुण-प्रदेश और द्रव्य न्यूनाधिक है तो इसका कारण क्या है ? जो परमात्मा ही इसका कारण मानें तो परमात्मा रागी द्वेषी होगा। जो कर्म इसका कारण माने तो परमात्मासे कर्म वलवान मानने पड़ेंगे। जो समस्त संसारी जीवोंको अपने अपने कर्तव्यका फल प्राप्त होता है ऐसा माने तो समस्त संसारी जीवोंमें । परमात्मा रहनेस कोका फल परमात्माको भोगना पड़ेगा। और जब समस्त जीवोंको अपने कर्तव्योंका फल प्राप्त होता है तो फिर जीवात्मामें परमात्मा माननेकी जरूरत नहीं है । जो जीवोंको अपनेर कर्मोका फल प्राप्त नहीं होता है ऐसा मान लिया जाय तो चोरी करनेवालेको दंड क्यों दिया जाय ? जो समस्त जीवोंमें एक ही परमात्मा है तो वह दंड परमात्माको मिला ऐसा मानो जायगा?
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जीव और कर्म विचार ।
[ ७५
"एकमेव परंब्रह्म नेह नानास्ति किंचन" इसप्रकारका सिद्धांत किसी प्रकार भी युक्ति और प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता है । भागमकी विरोधता प्रत्यक्ष है। तथा कर्म और कर्मका सिद्धांत किसी प्रकार नहीं बनेगा तथा परमात्माको रागी द्वेषी सदोष मानना पडेगा ।
कितने ही मतवादी जीवात्मा और परमात्माको पृथक् पृथक् मानते हैं । परन्तु परमात्माको जीवात्माका कर्ता सुख दुःख प्रदान करनेवाला ( सृष्टि कर्ता ) मानते हैं । परमात्माको वे दित्य निरंजन व्यापक निराकार और सर्वशक्तिमान मानते हैं । और जीवात्माको परमात्माके आधीन अकिंचकर मानते हैं ।
·
इस प्रकार माननेमें वस्तुका स्वरूप सत्य और प्रमाणित रूपसे किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सका है। न जीवात्माका ही स्वरूप सिद्ध हो सका है और न परमात्माका ही रूप सिद्ध होता है दोनों के लक्षणमें मनंत दूषण प्राप्त होते हैं । प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से विरोध होता है । इसका विवेचन एक स्वतंत्र रूपसे स्पष्ट किया जा सका है । परन्तु ऐसा करने में सप्रसगता होती है इसलिये संक्षेपमें यहां पर दिग्दर्शन कराते हैं ।
ईश्वर व्यापक होकर समस्त सृष्टिको बनाता है ऐसा माना जाय तो व्यापक वस्तुमें किसी प्रकारकी क्रिया नहीं हो सक्ती है क्योंकि एक देशसे देशांतर होना ही क्रियाका अर्थ है । व्यापक वस्तु देशले देशांतर होनेकी शक्ति नहीं है । जो व्यापक वस्तु में
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देशसे देशांतर होने की शक्ति मानी जाय ? तो वह व्यापक नहीं
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जीव और कर्म-विचार।
हो सका ? क्योंकि व्यापक सर्व क्षेत्रमें व्याप्त है उससे कोई भी क्षेत्र अवशेष नहीं रहता है जिसमें किया हो सके। क्रियाके बिना सृष्टिकी रचना नहीं हो सकी है। जो ईश्वरको व्यापक नहीं माना जाय तो सिद्धांतका घात होता है ख वचन विरोध होता है। और ईश्वरको व्यापक माने विना सर्वक्षेत्रकी क्रियायें नहीं हो सकेगी।
जो ईश्वरको नित्य माना जाय तो नित्य वस्तुमें क्रियाका अभाव होनेसे आकाशके समान ईश्वरको निष्क्रिय मानना पडेगा। निष्क्रिय वस्तुसे सृष्टि उत्पन्न नहीं हो सकी है।
जो ईश्वरको अनित्य मान लिया जाय तो सर्वकालको सर्व क्रिया सर्व कालमें नहीं हो सकेगी?
जो ईश्वरको निरंजन [शरीर रहित ] माना जाय तो शरीर -रहित ईश्वरसे शरीरसहित कार्य उत्पन्न नहीं हो सकेंगे। क्योंकि अमूर्तीक पदार्थसे मृर्तीक पदाधे कभी भी उत्पन्न नहीं हो सका है। जो अमूर्तीकस मृतक पदार्थ उत्पन्न हुआ मान लिया जाय तो अमूर्तिक आकाशसे मूर्तीक पदार्थ उत्पन्न होने लगेंगे। मसत्. से सत् पदार्थकी उत्पति हो जायगी। __ जो ईश्वरको शरीर सहित मान लिया जाय तो ईश्वर सबको दीखना चाहिये और उसको निरंजन नहीं कहना चाहिये?
जो ईश्वरको निराकार मान लिया जाय तो निराकारसे साकार वस्तु उत्पन नहीं हो सकी है ? और ईश्वरको लाकार माननेसे प्रत्यक्ष दर्शन ईश्वरको होना चाहिये।
जो ईश्वरको सर्वशक्ति मान लिया जाय तो सर्वजीवोंको सुखी
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जीव और धर्म-विवार।
धन सपन्न-नीरोग-एक समान सुन्दर बनाना चाहिये परन्तु एक जीव रोगी-एक जीव दरिद्र-एक जीव विद्वान्-एक जीव सुखी, एक समृद्धिशालो-एक हाथो और एक मनुष्य इस प्रकार जीव क्यों उत्पन्न किये ? जो ऐसा कहा जाय कि ईश्वरने एकसमान ही सव जीव निर्माक्ति किये परन्तु यपने अपने कार्योंसे ऐसे विभिन्न रूप हो गये तो कर्म बलयान हुआ और ईश्वरको सर्वशक्तिमान मानना नहीं हो सकेगा। जो ईश्वरको सर्वशक्तिमान न माने तो एक परमात्मासे समस्त सृष्टि नहीं हो सकी?
यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो वेश्या चोर क्यों बनाये। जिससे जनताको पापाचरण करना पड़े ?
सृष्टि धनानेके प्रथम संसारमें कुछ पदार्थ थे या नहीं जो पदार्थ थे तो ईश्वरने क्या यनाया? जो पदार्थ नहीं थे तो बिना पदार्थों के सृष्टि कैसे बनाई ? आकाश-परमाणु यादि पदार्थ सष्टिके प्रथम माननेसे सर्वशक्तिमानका लोप होता है।।
सटिके प्रथम ईश्वर था या नहीं ? जो था ईश्वरको किसने पनाया ? जो स्वयं मानें तो समस्त सृष्टिको स्वयं माननेमें क्या हानि? जो ईश्वरको किसी दूसरेने बनाया तो उसको किसने बनाया इस प्रकार अनवस्था दूपण प्राप्त होता है।
ईश्वरने सृष्टि क्यों बनाई ? लीलासे ? जो लीलासे सृष्टि बनाई -मानी जाय तो लीला तो अन्नानी प्राणियोंमें होती है और लोला करनेका कारण हो क्या ? जो इच्छा मार्ने ? ईश्वरको सृष्टि कर. नेको इच्छा हुई तो इच्छो राग-द्वपके विना नहीं हो सकी है। ईश्वरको रागी द्वे पो माननेसे अनेक दूषण मा,धमकेंगे। . -
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८०] जीव और कर्म-विचारः । कोंके फलसे इन्द्रिय शरीर आयु और श्वासोश्वास कार्य होते ह, काके फलसे ही फोघ-मान-माया-लोम होते हैं कौके फलसे ही आहार मय मेथुन और परिग्रह संज्ञां प्राप्त होती है। फर्मोके प्रतिफलसे गृह-पुत्र-धन-संपत्तिका समागम होता है फोके फलसे ही. स्वर्ग नरक आदि कुगति सुगति प्राप्त होती है। फोंके फलसे हो जीवोंको संसारका सुख दुःख प्राप्त होता है। ""फोके फलसे ही शरीरफी' रचना होती हैं। ऊद, हाथी घोड़ा, बकरी, सिंह, सर्प, वृक्ष, मनुष्य आदि पर्याय प्राप्त होती है। फोसे ही भंगी चमार खटीक, ढेड, आदि नीच जातिमें जीवं उत्पन्न होता है। कोके फलसे ही क्षत्रियः ब्राह्मण चैश्य आदि उत्तम वर्ण और जातिमें उत्पन्न होते हैं। जिसमें श्री जिनेन्द्र की दीक्षा प्राप्त हो सकती है। .
.. । कर्मोंके फलसे ही रोगी, शोकी, पीडित, संबलेशी, दरिद्र, पंगु, काणा, अन्धा, वधिर, कुवडा, कोढी, गलित्त शरीर, आदि उपाधिको प्राप्त होता है। कर्मोके फलसे सुन्दर-स्वरूपवान, नयनोको प्रिय होता है । सुन्दर वचनोंका प्रतिपादक होता है। . ___ कोके फलसेही स्त्री होता है पुरुष होता है नपुंसक होता है। कोंके फलसे ही शतवर्घजीवी होता है और पोंके फलसे ही स्वल्पायुवाला होता है-एक श्वासोश्वासमें १८ बार जन्म-मरण प्रहण करनेबाला होता है। ___ कर्मों के फलसे राजा होता है, श्रीमान् होता है, वुद्धिशाली होता है, लोकपूज्य होता है, कीर्तिमान होता है, देव होता है, इन्द्र
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जीव और कर्म-विचार
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होता है, विद्याधर होता है, चक्रवर्ती, तीर्थकर, मआदि उत्तम पदको प्राप्त होता है। पोके फलसे ही पशु, पक्षी, जलचर थलचर होता है, एकेन्द्रिय होता है, द्वीन्द्रिय होता है तीन इन्द्रिय होता है चार इन्दिय होता है, पचेन्द्रिय होता है। कभी कमी इन्द्रियोंकी पूर्णता प्राप्त नहीं होती है। गर्भ में कभी कमी मरण होता है।
इस प्रकार फोसे जीवोंको अनेक प्रकारकी उपाधि प्राप्त होता है । जीवोंके मेद भी कमों की अपेक्षासे है। इस स्थावर भेद से जीवोंके दो भेद हैं, चारगतिकी अपेक्षा जीवोंके चार भेद हैंनरकजीव, तिर्यंचजीव, मनुष्यजीव, देवजीव । इन्द्रियके भेदसे जीवोंक पाव भेद है। प्रल और पाच स्थावर भेदसे जीवके छह मेद है। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय दो इन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इसप्रकार नौवके नव भेद है। रथूलयनस्पति, सूक्ष्मयनस्पतिकाय, सूक्ष्मपृथ्वीकाय, यादर पृथ्वीफाय, सक्ष्मअपकार, वादरमपकाय, सक्षमतेजकाय, पादर तेजकाय, सूक्ष्मवायुकाय, वादरवायुकाय, विकलत्रय, संतो पंचे. न्द्रिय, असंही पचेन्द्रियजीव इसकार तेरह जीवके भेद है। चौदह जीव समासके भेदसे जीवोंके चौदह भेद हैं।
वनस्पतिमायके साधारण और प्रत्येक ऐसे दो भेद है। साधारण जीव दो प्रकारसे होते हैं। एक जीवके शरीर में अनेक जीवोंका आहार, जन्म-मरण आदि क्रिया एक साथ हो तो उसको साधारण जीव कहते हैं। वनस्पतिकायमें निगोदरीशि रहती है, एफ निगोदिया जीवके शरीरमें सिद्धराशिसे अनंतवें भाग और
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जीव और कर्म-विवार । मभव्यले अनंतगुणे जीव रहते हैं। निगोदशीर साधारण वनस्पति में माना गया है। एकतो साधारण वनस्पति वह जो प्रवाल, अंडर आदिके स्वरूप में है। जिसको तोडनेपर समान भंग हो तो वहां यहां तक वह वनस्पति साधारण है फिर वही प्रत्येक रूप हो जाती है। अथवा पत्ता (पत्र) आदिमें जव तक रेखा या नसकी उत्पत्ति'स्पष्टरूपसे नहीं है तब तक वह साधारण है। । दशकंदमें सदैव साधारणही संज्ञा है वह प्रत्येक किसी भवस्था नहीं होता हैं इसीलिये कंदको, खाना या गर्मकर सेवन करना भी सर्वथा विरुद्ध है।
जिस प्रकार अन्य प्रत्येक वनस्पति प्रासुकाकरने पर सेवनीय हो जाती है उस प्रकार साधारण वनस्पति शुद्ध नही होती है इस लिये पकाकर या सुखा (शुष्क ) कर छेदन भेदनकरके भी कंदका सेवन नहीं करना चाहिये। ऐसे नहीं सेवन करने योग्य कंद आल भरई गाजर मूली आदि है। " ..
समस्तजीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद है। एफेन्द्रिय घादर, एकेन्द्रिय सूक्ष्म, दो इन्द्रिय, तीनइन्द्रिय चार इंद्रिय, । ५ असंज्ञो पचेन्द्रिय, संज्ञोपवेन्द्रिय ये सातों पर्याप्त और अपर्याप्त भेदसे जीवोंके चौदह भेद होते हैं।- - . - मार्गणा (गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, पाय, ज्ञान, संयम दर्शन, लेण्या, स्म्यक, भव्यत्व, संज्ञो, आहार ) :इस प्रकार मार्गणा भेदसे जीवोंके वौदह मेद होते हैं। " --
इसी प्रकार गुणस्थान भेदसे भी जीवोंके १४ भेद है। अनं
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जीव और धर्म विचार ।
[ ८३ तानंत जीवराशिका संक्षेपसे अंतर्भाव इस रूपमें किया है । अर्थात् अंतरंगभावों की अपेक्षा जीवके गुणस्थान कहे जाते हैं और क्मों से होनेवाली जीवकी शरीरादि विशिष्ट स्थूल भवस्थाको मार्गणा कहते हैं, संसारी सबजीव इन्हींमें गर्मित होते हैं । विशेष-कुल और जानिके भेदोंसे जीवके असंख्य भेद होते हैं ।
जीवों के उत्पत्ति स्थान सवित्त १, अवित्त २, सवित्तावित्त ३, शीत ४, उष्ण ५, शीतोष्ण ६, संवृत्त 9, विवृत्त ८, वृत्तविवृत ६ इसप्रकार न भेद है । परन्तु उत्तर भेद असंख्य हैं ।
जीवके जन्म, संमूर्छन, गर्भ, उत्पाद इसप्रकार तीन प्रक र है । संमूर्छन जन्म यह है कि माता पिताके रजवीजे विना निमित्त संयोग मिलने पर जीवों का जन्म हो जाना हो जैसे केंचुआ बिच्छू ज्यू खटमल वृक्ष आदि जीवोंका जन्म वाह्य साधनो के निमित्तसे होता है ।
जो माता पिनाके रजवीर्यसे जन्म दो वह गर्भ कहलाता है जैसे पुरुष स्त्री घोड़ा गौ बन्दर आदि - नीवोंका जन्म गर्म जन्म है ।
गर्म साधारण तीन भेद है। जरायुज, मडज, पोत, जो जीव अपने जन्म के समय अपने शरीर के साथ एक थैली (कोथरी) सहित जन्म ग्रहण करे उसको जरायुज जन्म कहते हैं । जैसे मनुष्यका जन्म गौका जन्म यह जन्म जरायुज है । जो अंडामें उत्पन्न हो वह अंडज जन्म है जैसे कबूतरका जन्म, मयूरका जन्म।"
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८४ ]
जीव और कर्म- विचार ।
यो जन्म होते ही दौडनेकी या भागने की क्रिया कर सके उसे पोत जन्म कहते हैं ।
जीवभेद
पृथ्वी काय के भेद-सूक्ष्म पृथ्वीकार्य, चादर पृथ्वीकाय । सूक्ष्म पृथ्वीकायके भेद - पर्याप्तक, अपर्याप्तक, लव्धअपर्याप्तक । वादर पृथ्वीकायके भेद - पर्याप्तक, अपर्याप्तक, लव्ध अपर्याप्तक इस प्रकार पृथ्वोकायके जीवोंके सामान्य द्द भेद हैं ।
2 इसी प्रकार अपकाय, तेजकाय, घायुकायके जीवोंके छंद छह भेद होते हैं ।
अवकायके भेद-मुक्ष्म अपकाथ, बाद अपकाय, सूक्ष्म और बादर अपका प्रत्येक भेदके पर्याप्तक १, अपर्याप्तक २, लब्ध अपर्याप्त इस प्रकार छह भेद हैं। तेजकायके सूक्ष्म वादर और दोनोंके पर्याप्त अपर्याप्तक लव्धअपर्याप्तक इसप्रकार छंद मेद हैं ।
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वायुकाय के भेद - सुक्ष्म वायुकाय, चादर वायुकाय । सूक्ष्मवायुके भेद - पर्याप्तक, अपर्याप्त, लब्ध अपर्याप्तक वादर वायुकाय के भेद - पर्याप्त, अपर्याप्तक, लव्ध अपर्याप्त इस प्रकार पृथ्वीकाय अपकाय तेजकाय और बायुकायके भेद २४ हैं । • वनस्पतिकायके भेद - साधारण वनस्पति, प्रत्येक वनस्पति । साधारण । धनस्पतिके दो भेद नित्य निगोद, इतर निगोद । साधारण सूक्ष्म निस्यतिगोद वनस्पतिकाय के भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त, लग्ध अपर्याप्त सूक्ष्म साधारण इतर के भेद - पर्याप्त, अपर्याप्त, लधअपर्याप्त
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वनस्पतिकाय इस प्रकार
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जीव और कर्म-विवार। [८५ साधारण सक्षम बनस्पतिकाय ६ भेद हैं। वादर साधारण नित्यर निगोदके भेद-पर्याप्तक, अपर्याप्तक, लब्ध अ० बादर साधारण इतर निगौदके भेद-पर्याप्तक, अपर्याप्तक, लब्ध
इस प्रकार साधारण बनस्पतिकायके १२ भेद हैं। प्रत्येक यनस्पनिकायके भेद-प्रतिष्ठिन अप्रतिष्ठित दोनोंके (प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित) पर्या० अपर्या० ल०६ भेद इसप्रकार बनस्पतिकायके ४२ भेद है।
नारकी जीवोंके भेद-पर्याप्तक, अपर्याप्तक। देवके भेदपर्याप्तक १ अपर्याप्तक २। पंचेन्द्रिय तियरभेद-जलचर, नभवर तीनोंके ( गभज ? संमूर्छन ) दो भेद । ____सबके पर्या०, अपर्याप्तक, लब्ध अ० इस प्रकार असंझी पंचे. द्रिय जीवोंके भद १२। - - - ___ भोगभूमि तिर्यम्मेद-जलवर १ स्यलचर २ दोनोंके (भोग. भूमि जलचर और स्थलचर ) के 46 अ० ल६। दो इन्द्रिय जीवोंके मेद-पर्याप्तक अपर्याप्तक २, लब्ध ०३तीन इन्द्रिय जीवोंके मेद-पर्यातक अपर्याप्तक लाचार इन्द्रिय जीवोंके मेद. पर्याप्तक-अपर्याप्तक ल । - मनुष्यके, भेद-भोगभूमि पर्याप्तकअपर्याप्तक । कुभोगमूमि-पर्याप्तक अपर्याप्तक । म्लेक्षखंड-पर्याप्तक अपर्याप्तक । आर्यमांड-पर्याप्तक अपर्याप्तक।
आतिकी अपेक्षा भेदपृर्वीकार्य लाख, लाख, तेजकाय ला०, वायुकाय ला, नित्यः निगोद ७ लाख, इतरनिगोद ७ लाख,
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८६ ]
प्रत्येक वनस्पति १० ला०, दो इन्द्रिथ २ ला०, तीन इन्द्रिय २ ला०, वार इन्द्रिय : २ ला०, पंचेन्द्रिय, पशु ४ ला०, मेनुष्य १४ लाख, : नरक ४ ला०; देव ४ लाख, इस प्रकार ८४ लाख भेद हैं।
. कुलकी, अपेक्षा जीवोंके भेद
२२ लाख कुल कोडि
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पृथ्वीकाय)
7 जलकाय - .
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41
वायुकाय
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" वनस्पत्तिकाय
दो इन्द्रिय ... तीन इन्द्रिय
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मनुष्य
नारक देव
जीव और कर्म- विचार ।
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• पंचेन्द्रिय जलवर
पंचेन्द्रिय नभचर
7. पंचेन्द्रि स्थलचर सर्प
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- १६६लांस फुल फोट
. जीव के परिणामोंकी पहिचान गुणस्थानोंकी परिपाटीले जानी'
जाती हैं। जीवोंके परिणाम ही गुणस्थान है । गुणस्थानके
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जीव और कर्म विचार। [८७ चौदह भेद है। इसलिये अनंतानंत समस्त संसारी जीवोंका अंतर्भाव चौदह गुणस्थानों में होजाता है। गुणस्थानोंका संक्षिप्त स्वरूप यह है (१)मध्यात्वगुणस्थान, २ सासादनगुणस्थान ३ मिश्रगुणस्थान, ४ अविरत सम्यक्त्वगुणस्थान, ५ देशविरत ६ प्रमत्तगुणस्यान ७ अप्रमत्त गुणस्थान ८ अपूर्वकरण अनिव्रत. परण १० सूक्ष्मसापराय ११ उपशांतमोह १२ क्षीणमोह १३ स. योग केवलो १४ अयोगकेवली।
१ मिथ्यात्वगुणस्थान-दर्शनमोहके उदयसे जिसका अतत्वप्रधान हो या विपरीत ध्रधान हो उसको मिथ्यात्व गुणस्थान महते है। - २लासादनगुणस्थान-यानंतानुबंधी पायमेंसे (क्रोधमान माया व लोम) विसी फपायके उदयले सम्यक्त्वका तो नाश कर दिया हो परन्तु मिथ्यात्वगुणस्थानतक नहीं पहुवा हो ऐसे समय जो जीवोंके मांव होते है उसको सासादनगुणस्थान कहते है।
मिश्रगुणस्थान-सम्यत्व मिथ्यात्व , नामक दर्शनमोहनी कमकी प्रकृतिके उदयसे जीवोंके परिणाम न तो तत्व-ध्रधान रूप हों और न मतत्वश्रद्धान संप हों किंतु दही गुणके समान मिश्रित हों। मिथ्यामविकप यह गुणस्थान होता है.) उसको मिश्रगुणगान कहते हैं।
- . . ' ' : -४ अविरतगुणम्यान-अतंतानुबंधी कपाय-क्रोध मान माया लोमे और मिथ्यात्वं दर्शन-मोहनीवर्गको-मिथ्यात्व सम्यगनिध्यारस तथा सम्यक्त्वं प्रकृतिक क्षय क्षयोपशम और उपाशमं होनेसे जी
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८८ । जीव और कम-विवार । परिणामोंमें विशुद्धता होती है. उसे अविरतगुगस्थान कहते हैं। इस चतुर्थ गुणस्थानमें जोधके-सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है और उस स्वामाविक परिणामके प्रगट होनेसे जीव तत्वोंका यथार्थ श्रद्धान करता है।
.५ देशविरत गुणस्थान-अप्रत्याख्यान' कषायके उपशमसे गृहस्थोंके योग्य चारित्र धारणकर. परिणामोंकी विशेष विशुद्धि होना सो देशविरतगुणस्थान है। • ६ प्रमत्तगुणस्थान-प्रत्याख्यान कषायक उपशमसे मुनिव्रतके वारित्रको (अठाईस मूलगुणोंको) धारण कर परिणामोंकी अत्यंत विशुद्धता होना सो प्रेमत्त गुणस्थान है। । ७ अप्रमत्तगुणस्थान-संचलनकषायके अतिशय मंदोदयसे चारित्र समिति और लामायिकादि कर्मोमें प्रमाद नहीं लगाना और उससे परिणामोंकी बिशुद्धि करना सो अप्रमत्तगुणस्थान है। । ८ अपूर्वफरण-यहांसे सम्यक्त और चारित्रके भेदसे ग्यारहवं गुणस्थानपर्यंत दो 'विभाग होते हैं क्षपकश्रेणी-उपशमश्रेणी २॥ जिस जीवको क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त है। जिसके परिणामति शय विशुद्धताको वृद्धिात होरहे हैं।जिसको उत्तमसिंहनन प्राप्त है जो शुक्लध्यानके प्रथम भेदको लेकर अपने परिणामोंमें विशुद्धताकी प्रकर्षता समय समय बढ़ा रहा है। जो सर्वधाती कर्म मोहनीकर्म की सत्ताको क्षीणकरनेकी शक्ति और अप्रमितवीर्य प्रकट करने की योग्यता जिसमें प्रकट होगई हो ऐसे परिणामोंकी विशुद्धि को क्षयकश्रेणि वाला अपूर्वकरण गुणस्धान कहते हैं, और चाहे
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जीव और कम-विवार। [८ क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो चाहे द्वितीयोपशम सम्बग्दृष्टि हो, जो कमों को सपनो शिद्धिसे उपशमना जाता है ति उनका क्षय करनेने असमर्थ है उसे उपशम श्रेणीयाला अपूर्वपरणगुणस्थान बहते हैं । इस गुणस्थानमें जीव नोनकरण ( परिणाम विशुद्धि) धारण करता है जिससे मात्मीयविशेष विशुद्धिसे स्थितिखंडन अनुभागखंडन आदि करने में समर्थ होता है।
१ सनिवृत्तकरण-गुणस्थानमें एक ऐसा पिशुद्धभाव उत्पन्न दोजाता है जो उस गुणस्थानवी सत्र जीयोंके समान होता है , इस नौवं गुणस्थान भी उपशम या क्षपण किया जाता है। . १०-दश गुणस्थान केवल सूश्मनोभका उदय मात्र रहजाता है इसलिये उसका नाम सूक्ष्म लोम बहा गया है। इसमें उपशम भी करता है यदि क्षपर श्रेणी माढे तो सर्वमोहनीयका इसी गुणस्थानके अंतमें क्षय करदेता है।
.. ११ टपशांतमोह-यह गुणस्थान उपशमश्रेणी माढ़नेवालेकी स्पेशाले कहा गया है। इस गुणस्थानमें चारित्रमोहको जागृति होजाती है । इसलिये यहांसे जीव परिणामोंकी अपेक्षा गिर जाता है और कम २ से दशवे नौवें आदि गुणस्थानोंको प्राप्त होजाता है यदि मरण होजाय तो एक्दम चोथे गुणस्थानमें पहुंच जाता है। - १२क्षीणमोह-सगुणस्थानमे-मोहका सर्वथा विनाश होजानेके पश्चात ज्ञानावर्ण आदि प्रकृतियोंका विनाश होता है।-बाना. चरणकी पांच, अंतरायकी पान और दर्शनापरणकी चार ऐसे २४ प्रकृतियोंका सर्वथा नाश इसी गुणस्थानमें जीव करदेता है।
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६० ]
'जीव और फर्म- विचार ।
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१३ सयोगकेवली - चार अनंत चतुष्टयको प्राप्त समोसरण लक्ष्मी विभूषित केवलज्ञानमंडित आत्माको सयोगकेवली कहते हैं इस तेरहवें गुणस्थानमें जीव चार घातिया कर्मोंके नष्ट होनेसे परम वीतराग, सर्वज्ञ अहंप्रभु बन जाता है ।' यही जीवन्मुक्त परमात्मा कहलाता है ।
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१४ अयोगकेवली - समस्त कर्मों का नाश करना सो अयोगकेवटी गुणस्थान है । इस चौदहवें गुणस्थान में समस्त अघातिया कर्म और शरीरका भी नाश आत्मा कर देता है । यह कार्य शुक्लध्यानके अंतिम पाये से (व्युपरत क्रिया निवृति ध्यानसे) होता है । इंस गुणस्थानके समाप्त होने पर आत्मा सिद्धालय में विजिमान हो जाता है फिर वहासे लौटकर कभी भी संसार में नहीं आता हैं । उसी सिद्धावस्थाको 'जीनकी मोक्ष; अमूर्तस्वभावे आदि कहते हैं ।
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कमों में मोहनी कर्म की प्रधानता गुणस्थानोंके स्वरूपसे मालूम होता है कि समस्त कर्मों में
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मोहनी कर्म प्रधान है उसका कारण यह है कि ।
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'घातिया' समस्त कर्म अपना रसं 'मोहनी' धर्मके उदय विपरीत अनुभव कराते हैं जैसे ज्ञानावरणीके क्षयोपशमसे 'शान' होता है । यदि उस ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम के साथ २ मोहनीफर्मका उदय है तो वह ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होनेवाला' ज्ञान - अज्ञान रूप" भ्रांति रूप; विपरीत रूप और, अन्यथा रूप
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होगा। यदि ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमके साथ मोहनी कर्मका
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जोव और कर्म-विचार ।
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क्षयोपशम है तो ही ज्ञान सम्यग् तत्वज्ञान करायेगा । इसीलिये मोहनीय मनन संसारका कारण है ।
मोहनी फर्मके उदयमें ही आत्मवीर्य प्रकट नहीं होता है । कर्मबंध में विशेषता इसलिये निरंतर बनी रहती है । स्वघातसंबंधी दिसा मोहनी के उदयसे जीवों को होती ही रहती है और परघात संबंधी हिला भी मोनीष र्मके उदय में तीव्रतर रहती है ।
इसीलिये जिन जीवोंके मोहनीर का उदय है उनके चारित्र हिंसा रूप ससारको बढ़ानेवाला ही होता है। किसी प्रकार योग ( दीक्षा ) धारण करती जाय तो भी उस दीक्षाका फल यथेष्ट प्राप्त नहीं होता है ।
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मोहनके उदय में इस प्रकार सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सत्यवाग्यि ये तीनों हो गुण प्रकट नहीं होते हैं इसलिये मोहनी धर्म पलवान है |
कर्म अपना प्रभाव जीवोंपर पूर्णरूपले प्रकट करते है जीवका स्वरूप कके उदयसे स्पष्ट रूप से हासित नहीं होता है । कोई भी जो अपनी तंत्रनाको नष्ट नहीं करना चाहता है परंतु ' मोंके उदयसे जीवों को स्वतंत्रता नष्ट हो गई है ।
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जीन संसारचक्रमें फर्मोके निमित्तसेही घूम रहे हैं। निरंतर जन्म मरण दुःखों को यमके निमित्तसे भोगते हैं कर्मोकी सत्ता, जब तक जीवों पर है य जीवोंकी स्वतंत्रता कभी भी प्राप्तनहीं हो लकी हूँ इसलिये स्वतंत्रता प्राप्त परनेने लिये कर्मोंकां स्वरूप जान लेना और उन्हें दूर करना परमावश्यक है ।
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१२] । जीव और कर्म-विचार । - जीवोंके प्राचीन वधे हुए (प्राकवद्ध) कमोके निमित्तसे जीवोंके भावोंमें विलक्षण परिणमन होता है। जिससे जीवोंकी नवीन २ इच्छायें प्रकट होती रहती हैं उन इच्छाओंकी सिद्धि जीव अपने मन चवन कायके द्वारा करता है इसलिये मन वचन कायके व्यापारसे आत्माके प्रदेशोंमें भी सकंप अवस्था होती है। जिस समय आत्माके प्रदेशों में भी सकंप अवस्था होती है। जिस उसी समय संसारमें सवत्र भरे कर्मवर्गणाओंको और बिखतो. पवयको जीप चारों तरफसे अपनी तरफ खोव लेता है बस इसी निमित्तसे कर्मोका संवत्र आत्माके साथ हो जाता है।। .
कभी कभी नवीन निमित्त कारणोंस जीवोके भावों में परिणमना होता है। उस परिणमनमें जीवोंका अज्ञान भाव-(मिथ्यात्य) यदि निशेष सहायक हो- अर्थात् मिथ्यात्वका रस विशेषरूपसे हो तो जीव कोको सुगढ वाचता है-पायोंके निमित्तसे भी जीवोंके भावोंमे विशेष आकुलता होती है। परन्तु सबसे अधिक
- मिथ्यात्वके निमित्तसे होती है । कषायोंमें मिथ्यात्वकायोग हो तो तीव्र रस प्रदान करनेवाले पुद्गल परमाणु ओंका वध, होता है।
“संसारको बढानेवाले पुद्गलोंका संवध जीवको मिथ्यात्वके निमित्तसे ही होता है। जोष अपनी इच्छाको सिद्ध करने के लिये.. मन बचन कायके द्वारा व्यापार करता है वह व्यापार शुभाशुम दोनों ही होता है। परन्तु मोहनीयके निमित्तसे प्रायः अनी व्यापार होता है । हिंखा झूठ-चोरी-कुशील
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जीव और फर्म- विचार |
परिणामोंमें विशेष अज्ञान ही होता है जिससे तीव्रतर कथायोंकी परणति विशेषरूपसे जागृत हो । नित्यनिगोटिया लध्व अपर्याप्तक जीवके वाह्य कारण ऐसे नहीं है कि जिससे वह एक श्वासो श्वासमें अठारह चार जन्ममरणको ग्रहण करे परन्तु निगोदिया जीवके मिथ्यात्वभावसे ऐसा घोर अज्ञानभाव होता है कि उसके कृष्णलेखा और कपाय भावोंकी सानिशय तीव्रता परिणामों में निरंतर बनी ही रहती है। जिसके फलसे वह एक श्वासोश्वास में अठारह वार जन्म-मरण ग्रहण करता है ।
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तदुल मत्सकी बाह्य चेष्टा हिंसादि रूप विशेष नहीं होती है क्योंकि उसके शरीरकी अवगाहना सूक्ष्म है जिससे वह दिसादिक अशुभ व्यापार नहीं कर सक्ता है तो भी मिध्यात्वादिक कपाय भावोंसे उसके मावोंकी चेष्टा मलिन - हिंसादिरूप -- अज्ञानरूप - कषायरूप - आर्चरौद्र रूप होनेसे - अनंत, संसारका बंध करता है । जीवोंको सबसे प्रथम अपने भावोंकी बहुत ही संभाल रखनी
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चाहिये - मिथ्यात्वादिक दुष्ट भावोंका गुरु सगति से प्रत्यागः करना चाहिये। गुरु विना भावोंकी शुद्धि करनेवाला और मिथ्यात्व का परित्याग करानेवाला अन्य कोई नहीं है ।
मिथ्यात्वका परित्याग किये बिना कितने ही शुभ कार्य किये जायं भावोंको विशुद्ध करनेके लिये कितना हो अनुप्रान जपः तपध्यान संयम आदि क्रिया की जाय तो भी वह संसारको बढाने वाली ही होती है। मिथ्यात्वभावले आश्रव हीँ होता है संवर निर्जरा नहीं होती है। इसलिये सद्गुरुके समीप अपने भावोंकों
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जीव मोर कर्म विचार।
निर बनानेका प्रपत्ल करना चाहिये। मिप्यात्वा परित्याग करना चाहिये । भयवा स्वाध्यायके द्वारा शालगुरुको पूर्ण श्रद्धा रखकर मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिये जब तक शास्त्रको पूर्ण श्रद्धा नहीं है तब तक मिथ्यात्वका त्याग नहीं है । जो मुधारक प्रथमानुयोग और फरणानुयोगको असत्य यनलाते है. मौर वरणानुयोगको माहाको अबहेलनाकर विधवाविवाहक द्वारा व्यभिचार फ्लाते हैं। वे प्रकद तोत्र मिप्यावो हैं जन कुलमें उत्पन्न होने मात्रसे जैना नहीं होते है।
गुरु सेवा जिनपूजन शास्त्र स्वाध्याय उसी मनुष्यका ठीक है। जिमकी जिनागम, पूर्ण श्रद्धा है। जिनागमका श्रद्धान किये विना निध्यात्वा परित्याग नहीं होसका है।
मावोंकी विशुद्धता मिथ्यात्वरे त्याग बिना नहीं होती हैं' भावोंकी संभाल रखनेवालोंको मिथ्यात्वका त्याग अवश्य ही करना चाहिये।
राग-द्वेप आत्माके विकृत-भाव है जिन राग-द्वपमें मिथ्यात्व का योग होता है चे ही रागद्वेष क्रोध मान माया लोम काय मत्सर या प्रपंच बलस्पट हिंसा झूठ चोरी कुशील आशा और गृद्ध तृपयाझे कारणभूत होते है। इसलिये रागद्वेपको घटानेके लिये सबसे प्रथम मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिये।
का संबंध यद्यपि योगोंसे अधिक है तो भी योग भाकि बिना अपने अपने कार्य करने में असमर्थ हैं। कर्मका विचार करने. वालेमानी पुत्सोको मिध्यात्वादि दुर्भावोंका परित्याग करना चाहिये।
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'जीव और कर्म विचार |
कर्मोके भेद व स्वरूप
कर्मके मुख्य तो दो भेद हैं। घातिया कर्म और मघांतिया फर्म 'जो कर्म जीवके स्वरूप ( जीवके गुणोंका ) घात करे
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उसको घातिया कर्म कहते हैं। घातिया कर्मके मुख्य तो तीन भेद है । ज्ञानावरण १, दर्शनावरण २, और मोहनी । परंतु
का अनुजीवीगुण वीर्यको अन्तराय कर्म प्रच्छादित करता है इसलिये अतरायको भी घातियाकर्म कहते हैं । भवशेष चार वेदनी - आयु- नाम और गोत्रकर्मको अघातिया कर्म कहते हैं ।
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इनसे मात्माका गुण घात नहीं होता है । अरहंत अवस्था इनके सद्भावमें प्रकट होजाती हैं तो भी अमूर्तत्व गुणादिक कितने ही शरीर के अभाव से प्रकट होनेवाले गुण अवश्य ही माच्छादित हो रहे हैं। पूर्ण स्वतंत्रता अघातिया कर्मोंके नाश होनेपरही जीवको प्रकट होती है।
इसलिये घातिया और अघातिया कर्मके
भेद अवश्य
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हो जान लेना चाहिये ।
कर्मके स्वरूप जानने के लिये आचार्योंने कमके चार भेद बत
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लाये हैं । प्रकृति- स्थिति अनुभाग और प्रदेश ४ |
प्रकृतिका अर्थ स्वाभाव होता है। जो जो धर्म प्रतिफलस्वरूप वस्तुमें रहते हैं। वही वस्तुकी प्रकृति कहलाती है । जैसे नीत्रकी, प्रकृति कटुक होती है। नीवका स्वाद कटुक है ।,
की प्रकृति मधुर होती है । इक्षुका स्वाद मधुर होता है । नीबूफी प्रकृति सट्टी है। यद्यपि नीबू नीव और तीनोंमें पानी पक्ष
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जीव और धर्म- विचार
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[ ७ एक-स्वरूप ही प्राप्त हुआ है परंतु अपने अपने स्वभावसे अपनी अपनी प्रकृति (धर्म) से कटुक-मधुर-स्वट्टा स्वरूप प्रकट करता है । इसी प्रकार समस्त कमेर्गणायकों प्रकृति आठ प्रकारकी होती है । कर्मों को जैसी २ प्रकृति होती है, कर्मों का फल भी वैसा ही प्रकृति के अनुसार होता है । उस कर्मका आस्वाद वैसाही प्राप्त होता है । कर्मों की प्रकृतिके मूल आठ भेद हैं।
जिस प्रकार अन्नको भक्षण करनेपर अनका परिणमन भिन्न २ 'प्रकारसे होता है । जो अन्न मुनके द्वारा वर्वण होकर खर-भागको प्राप्त होकर आमाशय में जानेके प्रथम हा उसके रस उपरस धातु- उपधातु, रक्त, माल, मेदा आदि अनेक विभागों में बिसत होता है । उसी प्रकार कामंणवर्गणाओं जो समय प्रद्धके द्वारा वित्रोपचयके द्वारा कर्मकर मासे सब घिन होते हैं। जीवके मन वचन काय द्वारा जो फर्मों का संबंध होना है । उसका खर भाग होता है । उसमें खर भागके अनेक विभाग होते हैं।
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कर्मधर्मणायें एक प्रकारसे सर्वत्र लोकाकाशमें पूर्णरूपसे वाखच भरी हुई हैं । पुव्यकी जो सूक्ष्म सुदन अवस्था है ( जो अत्यंत सूक्ष्म अतन्द्रिय है ) उस अवस्थामें स्थित पुद्गल परमाणुओंके पिंड (विस्र पचय) में जीवोंके भावोंसे ऐसी एक विलक्षणशक्ति उत्पन्न होती है कि जिससे उनमें ज्ञानावरगादि कर्मप्रकृति अवस्था हो जाती है जैसे अन्नके पाककी रस
उपरस रूप अग्रस्था
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पुलोंके प्रचयको जो जीव प्रतिसमय अपने मन बचन
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८ ]
जीव और कर्म विचार ।
काय द्वारा निरंतर संग्रहीत करता है। उनमें भिन्न भिन्न फी शक्ति आत्मप्रदेशोंके साथ संबंध होनेपरही होने लगती है । कमोंके संबंधका कारण
जीव अनादिकालले कर्मसे संबंधित है । उन कमौ के निमित्तसे जीवोंके भावों में विलक्षण परिणमन होता है । पूर्व संवद्धित कर्मोके निमित्तसे रागद्वेषरूप जीवोंकी नवीन नवीन उत्पन्न होती हैं उन इच्छाओं की पूर्ति के लिये जीर अपने मन बचन काय द्वारा आत्मप्रदेशों में परिस्पंद (एक प्रकारकी क्रिया सकंप अवस्था ) क्रिया करता है । उस क्रिया के निमित्तसे लोकाकाशमें भरे हुये पुद्गल प्रवयोंको ( कार्मण धर्मणाओं को ग्रहण कर लेता है ।
जिस प्रकार लोहा गरम होजानेपर पानीको खींच लेता है उसी प्रकार जीव कर्मोंको अपने मन बचन कायके द्वारा और अपने भावों द्वारा खींच लेता है ।
जिस प्रकार सूर्य की गर्मीको वनस्पति चारोंतरफले आत्मसात करती है। उसी प्रकार आत्मा भी रूपायोंके निमित्तसे वित्रोपचयको ग्रहण कर लेता है ।
प्राचीन कर्मोंके निमित्तले जिस प्रकार कर्मो के बंध करनेके भाव होते हैं उसी प्रकार नवीन वाह्य निमित्तों से भी जीवोंके भाव नवीन कर्मके कारण होते हैं ।
कर्मके संबंध होने में यद्यपि आत्मा ही उपादान है। आत्माके ही भाव कर्मोके संबंध कराने में मूल कारण होते हैं । तो भी
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जीव और कर्म-विवार। [६ मात्मामें और आत्माके भावोंमें ऐसा परिणमन पयों होता है। यदि इस प्रस्नपर विचार किया जाय तो आत्माकी वैमाविक शक्ति ही आत्माफा परिणमन कराने में मूल कारणभून है। जब तक बाब निमित्त (प्राबद्ध कर्मोका संस्कार) आत्माके साथ संवदित है तब तक पैमाविक शकि मात्माको विभावरूप परिः णमन कराता है फिर वही शक्ति स्वभावरूप परिणमत कराती है। परिणमन किया उस शक्केि द्वारा आत्मामें निरंतर होती रहती है। जिस प्रकार आत्मामें ज्ञानगुण है। दर्शन गुण है। सम्यकगुण है । सुखगुण हैं। अमूर्तत्वगुण है। अवगाहनत्वगुण है उसी प्रकार आत्मामें परिणमन क्रियाकी मूल उत्पादिका एक शक्ति (गुण) है। उस शक्केि द्वारा आत्मामें परिणमन किया निरंतर होती रहती है। __ यद्यपि अगुरुनघु नामका एक विशेष गुण समस्त द्रव्यमें रहता है और उसका फल द्रव्यों में उत्पाद व्ययरूप परिणमन कराता है दन्यके गुणोंमें उत्पाद व्ययरूप परिणमन कराता है यद्यपि गुणोंका नाश सर्वथा नहीं होता। और नवीन गण उत्पन्न नहीं होते हैं। गुणोंका छोडकर द्रव्य भी कोई चीज नहीं है तथापि गुणोंके अविमागी. प्रतिच्छेदोंमें जल कलोलके समान स्वभावरूप परिणमन अगुल्लघु कगता ही है। परंतु क्रियाबिभावं परिणमन आत्मामें वैमाविक शक्ति द्वारादो होती है। इसीलिये क्रियात्मक परिणमन ('विमाव परिणमन) का आत्मा हो उत्पादक है। आत्माकी वभाविक शक्ति ही आत्माके
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११०] जीव और कर्म-विचार । भावोंमें रागद्वेष रूप परिणमन कराते हैं उस रागद्वेष युक भावोंसे मत या कायका व्यापार होता है और उससे नवीन झोका बंध होता है अथवा आत्माके भावोंमें रागद्वषो वश नवीन नवीन प्रकारकी इच्छामोंका उद्रम होता है उने,इच्छाओंकी प्रतिके लिये आत्माके प्रदेशोंमें सकंप अवस्था होती है उसके द्वारा भी नवीन कर्मोंका बंध होताहै। । । । ।
रागद्वेप ही मात्माके भावोंको बिकारी बनाते हैं। उनसे आत्माके भावोंमें विकार परिणमन क्रोध:मान-माया लोम कप परिणमन होता है इन विकारी भावोंसे भी नवीन मबंध होता हैं अथवा विकारी भावोंसे जो कर्म (शरीर और इन्द्रियों में ) में विकार होता है उसके साथ आत्माके प्रदेशोंमें विकार होता है इस प्रकार प्रदेशों में विकार (हलन चलन ) होनेसे नवीन फर्म. पंध होता है
रागादिकोंमें कुछ झानांश है ऐसा प्रत्यक्ष सवको प्रतिमास होता है। इसलिये रागादिकोंको आत्मा ममें कहे या मात्माको उनका उत्पादक माने ? या आत्मामें उत्पन होते हैं ऐसा माने ? जो रागादिक भावोंको आत्माका धर्म माने तो सिद्ध परमात्मामें भी रागादिक धर्म होने चाहिये १. परंतु रागादिक आत्माके धर्म हो तो आत्माको मुक्त अवस्था कभी नहीं हो सकी है और न बद्ध अवस्था, ही होसक्ती है किंतु रागादिक भावोंका आत्मा उत्पादक है। आत्मा वैभाविक शक्ति द्वारा रागादिक भावोंका उत्पादक होता है । ऐसा नहीं है कि रागादिक भाव आत्मामें उत्पन्न होते हैं। उत्पादक दृष्टि
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जीव भार कम· विचार ।
[ १०१ की अपेक्षा रागादिक भाव आत्मामें उत्पन्न होते हैं परंतु रागादिक भाव गुणरूप होकर आत्मामें उत्पन्न होते हैं रागादिक मात्माके गुण हैं और आत्मा के माधारमें उत्पन्न होते हैं । ऐसा मानने से बहुत दूषण प्राप्त होते हैं ।
जिस प्रकार हलदो और चूनाके संयोग होने पर लालरंग उत्पन्न होता है उसी प्रकार विकारी आत्मामें पुलके संयोगले आत्माके विभावस्वरूप रागादिक भाव उत्पन्न हो सके हैं परंतु आत्मा के धर्म रागादिक नहीं है और रागादिक धर्म पुगलके, भी नहीं है किंतु दोनोंके संयोग से आत्मा के भावोंमें रागद्वेष ऐसी शक्ति हो गई है वहा - क्रोध-मान- माया लोभ रूप भेदोमें बट जाता है ।
इस प्रकार नवीन कर्मों को अनादिकालसे वाघता हुआ यह जीव संसार परिभ्रमण करता है कर्मोंमेंही चार भेद हो जाते हैं। प्रकृतिबंधका विशेष स्वरूप
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ज्ञानावरण १ दर्शनावरण २ वेदनीय ३ मोहनीय ४ मायु ५ नाम ६ गोत्र ७ अंतराय ८ ये आठ प्रकृतिकर्म के भेद हैं इन भेदों को मूल भेद कहते हैं उत्तरोत्तर भेद बहुत हैं, समस्त कर्मोंके मेद १४८ होते है तो भी उनके भेद प्रभेद, विशेष किये जांय तो कर्मो के अनत भेद होते हैं ।
ज्ञानावरण के ५ भेद है-मविज्ञानावरण- श्रुतज्ञानावरण- भवधिज्ञानावरण- मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानाबरण ।
ज्ञानावरण कर्म उसे कहते हैं कि जो कर्म आत्माके शानको
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१०२] जीव गौर फर्म-विधार । 'आवरण करे-आत्मामें ज्ञान उत्पन्न नहीं होने देवे । जिस प्रकार एक मूर्तिपर परदा डाल रखा है उस परदेसे मूर्तिका ज्ञान नहीं होता है । मूनिके ज्ञान होने में बह परदा बाधक है। यह परदा अनेक प्रकारका है, एक परदा खूब मोटा और जघन है। 'लसमें छिद्र नहीं है । दूसरा पग्दा इससे कुछ पतला है तीसरा पादा पतला है, पतले परदेमें। मृतिका उदास होता है उससे विशेष मोटे परदे मूर्तिका उदास स्पष्ट नहीं होता है और मोटे परदेमें तो मूर्तिका ज्ञान सर्वथा होता ही नहीं है। ठीक इसी प्रकार कौमें (जो पुद्गल फार्मणवर्गणा स्वरूप है ) ऐसी विलक्षण -शक्तिका प्रकट होना जिससे उनकर्मों का आत्माके साथ सबंधित होने पर उन कर्मों के प्रभावसे आत्माम पदार्थोका परिज्ञान नहीं होता है और उन कर्मोंके क्षयोपशम या क्षयसे तत्काल ही शान होता है।
. . जैन शासन प्रत्येक पदार्थके परिज्ञानमें · उस उस कर्मके क्षयोपशमको प्रधान कारण मानता है बिना कोके क्षयोपशम या क्षयके पदाका परिज्ञान स्वेथा नहीं होता है। एक मनुष्यके नेत्र बिलकुल निर्षिकार हैं उनमें देखने की शक्ति है और बाहा आलोक मादिका निमित्त भी पूर्ण सहायक है परंतु कर्मोका क्षयोपशम नहीं है तो मनुष्यको पदार्थका परिज्ञान सर्वथा नहीं होगा और कोका क्षयोपशम होनेपर बाह्य नेत्रादिकोंका संयोग प्राप्त होनेपर पदार्थका परिज्ञान होता है। इसलिये पदार्थों के परिक्षानमें तत्ततत्तू कौका क्षयोपशम प्रधान कारण है। .
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जोव और फर्म-विधार। [१०३ जिस प्रकार पदार्थोके परिमानमें फर्मोका क्षयोपशम प्रधान कारण माना है उसी प्रकार कमौका आवरण भी पदार्थों परिझान नहीं होनेमें प्रधान कारण है। __सूर्यमें प्रकाश होना उसका स्वाभाविक गुण है। सर्यपर परदा या बादल आजानेसे प्रकाश गुण नष्ट नहीं होता है किंत
बांदल या परदाके कारण उस प्रकाश गुणका आवरण हो जाता .. है बादलोंका आवरण दूर हो जाने पर प्रकाश वैसा ही प्रकाश
रूप प्रकट होता है । परदा या बादलोंसे प्रकाश गुणमें विकार नहीं होता है। आत्माम झानगुणका प्रकाश स्वभाव रूप सदेव विद्यमान है उस ज्ञानगुणको फर्म भावरण कर लेता है ज्ञानको हक लेता है। परंतु मोहनीकर्मक भावसे झानमं विकृति प्रतिभास होती है जैसे विकृत नको नेत्रपर रखने पर सूर्यका पकाश विकृत दीखता है। मात्र भेद इतना ही है कि मोहनीकर्मके उद. यसे आत्माका ज्ञानका स्वादमो विपरीत होता है कार्य भी विप. रोत होता है और परणति विपरीत होती है।
दर्पणमें प्रतिछाया पडना दर्पणका स्वाभाधिक गुण है कृत्रिम नहीं है सयोगी धर्म नहीं है। दूसरे पदार्थकी शक्तिसे उत्पन्न होता हो ऐसा भी नहीं है। या जवरन करालिया जाता हो ऐसा भी नहीं है। इसी प्रकार मात्माका ज्ञानगुण उसका स्वभाविक धर्म है आत्मा झानगुणके द्वारा सतत प्रमाशी है। समस्त पदार्थों को प्रकाश करनेका उस आत्माका धर्म है। परन्तु जैसे दर्पण पर गैल सचिकन रूपसे जम गया हो तो दर्पणमें प्रतिविष
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१०४ ]
जीव और कर्म- विचार ।
पड़नेका धर्म भी आच्छादित होजाता है । उस मैलको घोडालने पर दर्पण में प्रतिछाया फिर भी उसी प्रकार पडने लगती है ठीक इसी प्रकार आत्मापर कर्मोंका मैल चढ जानेसे ऐसा आवरण आत्मा पर हो जाता है कि जिससे पदार्थोके जानने की शकि नष्ट होजाती है ।
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ज्ञानावरणी कर्म आत्माकी ज्ञानशक्तिका आवरण करता है पुद्गलोंमें आत्मा के संबंधसे ऐसी विलक्षण शक्ति प्रक्ट हो जाती है कि जिससे वे पुद्गल ज्ञानावरण वर्ग आत्माके शानको आच्छादित करदेते हैं ज्ञानगुणो द - लेते हैं । भावरण करलेते हैं। इसीको ज्ञानावरणरूप प्रकृतिकर्म कहते हैं ।
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जिस प्रकार मेघका पानी एक नीवृनें तीव्र खट्टा और दूसरे नीबूमें कम खट्टा और तीसरे नीबूमें उनसे भी कम खट्टा भाव परिणमन करता है क्योंकि भिन्न -२ नीवके भाव द्रव्य क्षेत्र कालकी योग्यता भिन्न २ रूपसे है । इसीप्रकार अनंत आत्माओंके भिन्त भिन्न प्रकार के भाव होनेसे वही पुद्गल कार्मणवर्गणा भावों को तीव्रतर - मध्यम रूप परिणति होनेसे ज्ञानके आवरण में धन सघन और निविड सघनता उत्पन्न करता है। कोई कर्मभावोंकी मंद परिणमनसे ज्ञानका मंद आवरण करता है कोई कर्म, भावों की तीव्रतासे तीव्र ( सघन ) ज्ञानका आवरण करना है । इसीलिये एक जीवको कम ज्ञान है तो दूसरे जोवों को विशेष ज्ञान है तीसरे जीवोंको और भी विशेष परिज्ञान हैं।
मतिज्ञानावरण कर्म- जो कर्म मन और इन्द्रियोंके द्वारा होने
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जीव और कर्म विचार |
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करे वह मतिज्ञानावरण कर्म है मतिज्ञानके
३३६ भेद हैं । भेद प्रभेदकी अपेक्षा - अनंतानंन भेद है । ( मतिज्ञानके भेद प्रभेदोका वर्णन आगे लिखेंगे )
संसारी जीवोंको पदार्थोंका ज्ञान इन्द्रिय और मनके द्वारा हो होता है । यद्यपि ज्ञान यह आत्माका धर्म है । आत्माका गुण है आत्माका स्वभाव है तथापि क्षम्य जीवोंको वह ज्ञान पदार्थोंको इन्द्रिय और मनके द्वारा ही जानता है । मतिज्ञान इन्द्रिय और मनके द्वारा ही आत्माको पदार्थों का प्रतिभास कराता है ।
इन्द्रिय दो प्रकार है- द्रव्य इन्द्रिय और भाव इन्द्रिय । द्रव्य. इन्द्रियके भी दो भेद है - निर्वृत्ति और उपकरण । निवृत्तिके भी दो भेद हैं- बाह्यनिर्वृत्ति और आभ्यंतर निवृत्ति | आत्माके प्रदेश में इन्द्रिय रचना रूप होने की शक्ति होना मो आभ्यंतर निवृत्ति है । और उत्सेधांगुनके असंख्ानभाग प्रमाण पुद्गल कर्मोकी न इन्द्रियरूप हो वह वाह्य निवृत्ति है । इन्द्रियोंके उपकरणोंको (रक्षकोंको) उपकरण कहते है । इन्द्रियोंमें आत्माके प्रदेश होनेसे इन्द्रियोंके द्वारा जो ज्ञान होता है वह आत्माको ही होता है । इन्द्रियोंमें ज्ञानशक्ति नहीं है जो इन्द्रियोंके द्वारा ज्ञान होरहा है वह केवल मात्माको ही होरहा है ।
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भावेन्द्रिय के दो भेद माने हैं. व्धि और उपयोग । मौके
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क्षयो प अत्मा के भावों में ऐसी शक्ति प्रकट होना जिसके द्वारा आत्मा पर्दार्थो से अवगत कर सके। इस क्षयोपशम शक्तिके. विना आत्मापर कर्मोंका आवरण ऐसा आच्छादित हो रहा है
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जीव और कर्म-विधार। कि जिसके बिना आत्माम पदार्थक जाननेकी ताकत आत्माके हानगुणमें प्रकट नहीं होती है।
जब तक आत्माके ज्ञानगुणमें आवरण है तब तक मात शान पदार्थों के प्रकाश करने में असमर्थ है शानमें प्रकाश करनेकी शक्ति है। परन्तु उस शकिका माच्छोदन कर्मके निमित्तसे होरहा है जो कर्म इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले जानमें ही बावरण कर देवे। तो जब तक उस कमका क्षयोपशम नहीं होगा तब तक आत्माके ज्ञानगुणमें जाननेकी शक्ति प्रकट नहीं रहती है इसलिये मतिक्षानावरणकर्म इन्द्रिय और मनके ज्ञानगुणको प्रकट नहीं होने देता है।
" श्रुतज्ञानावरण-मतिज्ञानके द्वारा जो ज्ञान आत्मामें प्रकट होता है उस ज्ञानमें विचारात्मक शक्ति श्रुतज्ञान के द्वारा व्यक होती है । आत्मा पर ऐसे कर्मों का आवरण होजावे जिससे मतिज्ञानके द्वारा संग्रहात ज्ञानमें विचारात्मक शक्तिका आभाव हो।
पदार्थोंका जानलेना अवग्रहादिकोंके द्वारा आत्मसात कर लेना यह सब यद्यपि ज्ञानका विषय है मतिज्ञानको भी मान कहते हैं और श्रुतज्ञानको भी ज्ञान कहते हैं। जैसे मतिज्ञानके तीनसो छत्तोल भेद या उत्तर भेद असंख्यात होते हैं। उसी प्रकार तज्ञानके द्वारा ज्ञानमें जो विशेषता बिचारात्मक शक्ति होती है वह सब श्रुतज्ञानका विषय होता है । श्रुतज्ञानावरणकर्म कानमें ऐसे ही विचारात्मक शक्तिका आवरण करता है । जिससे ज्ञानमें ऊहापोहात्मक विशेष शक्ति प्रकट नहीं होती है। अथवा
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जाव मोर कम-विचार
[ १०० हेयोपादेयके प्रण और त्यागका दिवादित प्रवृत्तिका विचार नहीं होता है। अथवा सात्मदिन और आत्माका अहितके मदण त्यागका शिवारात्मक धारणा नहीं होती है ।
अक्षरात्मक श्रुत द्वारा शब्दोंका वाच्यठासे पदार्थोके गुणधर्म कार्य परिणति मादिके विषयमें दिवारात्मक शकिका भावरण नमानावरण कर्म करना है। भावात्मक श्रुनानका भावरण मी तानावरण करता है ।
नानका स्वरूप ग्यारह अंग और चौदद पूर्व तक बतलाया है । अथवा जिनने शब्द और अक्षरोंका संकलन द्वारा जो पदार्थोंकी मान्यताले जो विचारात्मक उहापोहरूप प्रवृति होती है पढ़ समस्त मानका विषय होता है। इसलिये नज्ञानका विषय अनं है और विषय भेदने श्रुतज्ञानके भेद प्रभेद ही अनंतानंत है।' श्रुतावरण उन समस्त भेद-प्रभेदोंके श्रुतज्ञानको जावरण करता है।
मनिज्ञान और शान होता है ।
समय संभाजी केन्द्रियन्पितिक जीव भी धूनशान होना है। सबसे अंतिम आवरण पैसे निगोदिया जीनोंमें जो
पर्याप्तक जन्य अवगाहना और सबने जघन्य ज्ञानकी शक्तिको धारण कर रहे है दोना है। वापर अक्षरके अनंतवे भाग ज्ञान है इससे अधिक आवरण माना जाय तो आत्माका हो समाव होगा इसलिये ज्ञानका आवरण आत्मापर कितना होसंकाहै इसका विचार सबको प्रत्येक समय रखना चाहिये ।
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जीव और कर्म विचार
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वृक्ष आदि एकेन्द्रिय प्राणियोंमें कितना मैदान हैं कि जिसका व्यंक्तीकरण होना ही दुर्घट है । कृमि कुंधादि क्षे इन्द्रि य प्राणियों में भी इसी प्रकार केमके विशेष आवरण द्वारा मंद-शान है। इस प्रकार इन्द्रियोंकी शक्ति परिपूर्ण होनेपर पशु आदि में कमौके विशेष आवरणसे यह ज्ञान होता है कोई कोई मनुष्यों में बिलकुल मंदज्ञान होता है और कोई मनुष्यमे अधिक ज्ञान होता है यह सब कर्मके आवरणका फल है ।
दो इन्द्रिय आदि जीवोंमें श्रुतज्ञानावरणकर्मका जितना क्षन्योपशम हैं उतने रूपमें वह अपना इन्द्रियोंके द्वारा हिताहित प्रवृत्ति
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करता है । परन्तु सही पर्याप्त मनुष्य ( मन सहित ) को श्रुतज्ञाकर्मके क्षयोपशम से जो हिताहितक ग्रहण और निवृत्ति रूप विचारात्मक जो श्रुतज्ञान होता है वैसा श्रुनज्ञान असंज्ञो जीवको नहीं होसका है ।
श्रुतज्ञानका विषय मनका है । मनमें विचारात्मक शक्ति होती है। ध्यान, चितवन, पदर्थोंके स्वरूका मनन, पदार्थो को कार्यकार णताका ऊहापोहात्मक विचार-शब्दोंके द्वारा ग्रहीत पदाथ की पूर्व पर्याय व उत्तर पर्याय के फलका बिचार-इत्यादि अनेक प्रकारका श्रहण निवृत्ति रूप विचार यह सब श्रुतज्ञानका विषय है | श्रुतक्षानावरण कर्म उपर्युकज्ञान के कार्यों का आवरण करता है ।
श्रुतज्ञानावरण कर्मके आवरण से जीवोंको मोक्षमार्गका विचार नहीं होता है जैसे जैसे श्रुतज्ञानावरण कमका क्षयोपशम विशेषरूपैसे होता जायेगा वैसे वैसे आत्मामें मोक्षमार्गका प्रकाश अति उज्वलरूपसे प्रतिभासित हो जायगा ।'
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जोप और कर्म विचार। ॥ सिध्याय उपयले मनिशान धनवान और अधिशानमें विq. रोतना दो मतितान मोरधतज्ञानफा विशेष क्षयोपशम होनेपर मोजो मिटायफा उदय तो मोक्षमार्गका प्रकाश आत्मा नहीं होता स्तुि मोक्षमार्गके विपरीत प्रकाश यात्मामें प्रकट होना है। वह भंग और नर का मान रखनेवाला (मतिमान और धनमानका विशेष क्षयोपशम रखनेवाला जीय) मनुष्य मिप्यात्यपर्मके उदयप्ते मोक्षमागेसे पामुक होता है।
हानको सम्पाशानना या ज्ञानको प्रमाणना मिथ्यात्वार्मके अमाप मेंहो (क्षय उपशम) दोनोई । इसलिये मिष्याष्टियोंको मतिज्ञान धुनहानसा क्षयोपशम विशेष हो सक्ताह विध्यादी भी मनिशान धनमानके प्रभावले पदार्थों को विशेष जानते है । भारी दिन हो सके हैं। पान्तु उनका मान प्रमाणरूप सत्य नहीं होता है। ___ अधिवानायगण पर्म-जो कर्म, रूपी (मूर्तक ) पदार्थोकी मर्यादासे होनेराला इन्द्रिय मोर मनसे अगोचर (इन्द्रियातीत) मात्मीय मानको भाररण फर वह अवधिज्ञानावरण फर्म है। ___ यविधानको प्रत्यक्षमान पतलाया है यह आत्मोदर है। अधिमानमें इन्द्रिय गौर मनको सदायताको आवश्यकता नहीं है। मरधिमानका विषय ट्रप क्षेत्र फालकी अपेक्षासे यहुत भारी है। अपधिज्ञानी जीव फिनने दी भवांतर यतला सके हैं।
अधिष्ठानके भेद असख्यात है। तो भी मुख्य तीन भेद है देशाधि-सर्वावधि और परमावधि । सर्वावधि और परमावधि मोक्षमार्गस्थ छठे गुणस्थानी मुनि जीवको ही होती हैं और पद
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जीव और फर्म- विचार ।
मोक्षमार्गके- अन्तिमपर्यंत रहती है। देशावधि अनेक प्रकार हैं। देशामो होयमान वर्द्धमान अवस्थित अनव-,
वधि के अनुगामी स्थित आदि अनेक भेद है ।
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अवधिज्ञानावरणकर्म उपर्युक्त समस्त प्रकारके अवधिज्ञान को आवरण करता है । भवप्रत्ययसे होनेवाले अवधिज्ञानमें भी अवधिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमकी आवश्यकता होती है देव और नारकी जीवोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान नियमसे होता है । जिस जीवको देव या नरकगतिमें जाना होतो उसको उसी समय अवधिज्ञाना. चरणका क्षयोपशम होता है ।
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जिसप्रकार मतिज्ञान श्रुतज्ञान वाह्यनिमित्त पठनपाठन स्वाध्याय चिंतन मननसे व्यक्त होते हैं । ( जो मतिज्ञानावरण कर्म और श्रुतज्ञानावरण कमका क्षयोपशम हो तो ) उसीप्रकार अवधिज्ञान भी तपकी विशेष शक्तिस व्यक्त होता है ।,
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ज्ञानके व्यक्त होने में आभ्यंतर और वाह्य दोनों प्रकार के कारण होते हैं। अंतरंग कारणकी प्रचलना होनेपर और वाह्य कारणका सहज निमित्तमात्र मिलनेवर कार्य प्रकट होजाता है, अवधिज्ञानावरण धर्मका क्षयोपशम अंतरंग- कारण प्रबल होनेपर और वाहा तपश्चरण की सातिशय विशुद्धता होनेपर अवधिज्ञान प्रकट होता है ।
- मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म- जो कर्म दूसरे जीवोंके मनमें अवधारित हुए सूक्ष्म अत्यंत सूक्ष्म मूर्तिमान पदार्थ और उनकी पर्यायको इन्द्रिय और मनकी सहायता विना ही आत्मासे होने
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११२] जोव और कर्म-विचार। इस प्रकार सर्वोत्कृष्ट मनःपर्ययज्ञानको भावरण मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म करता है।
वलज्ञानावरण कर्म-जोपर्म संकल' विश्वव्यापी त्रिकाल. के समस्त चरांवर.मूर्ती अमूर्तीक पदार्थ और उनकी त्रिकालमें होनेवाली लमस्त पर्यायोंको विना बिल्लीकी सहायतासे होनेवाले निरावरण अतीन्द्रियज्ञानको आवरण करता है उसको केवल. शानावरण कर्म कहते है। ' केवलज्ञान, परमात्मा, सर्वज्ञ, ईश्वर, वीतराग. निर्दोषी परम पवित्र अनंतचतुष्टय मडित ( अनंतमान, अनंतदर्शन. अनंतवीर्या
और अनंतसुख) घ्याल सगुण विराजमान जन्ममरण मदि -उपाधिसे रहित घातिया कौने प्रचंड ध्वोनाग्निके द्वारा भस्मी. भूत करनेवाले परमविशुद्ध आत्माको होता है। अथवा जिस महान आत्मामें केवलज्ञान प्रगट होता है उसे ही सर्वज्ञवीतराग जीवन्मुक परमात्मा पहते है। । । .. संसारले परातीत अवस्था जिनको प्राप्त होगई है। जिनको जप, तप, ध्यान और लौट चारित्रके द्वारा जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त होगई है। जिन्होंने जन्म, मरण, शोक, चिन्ता, जरा, रोग 'क्षधा, तृपा, भय आशा आदि समस्त दोषोंको जीत लिया है। जिनने काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, छल, प्रपंच मद मोत्सर्ग भादि दोपोंको जीत लिया है इसीलिये जो परमेष्ठीपदको धारणकर परंज्योतिस्वरूप कृतकृत्य, बिमल, अविनश्वर, कर्मचक्रकेद्धंसे रहित, सर्व स्वतंत्र, सर्वशक्तिमान, अतुलबीर्य और
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११४] जीव और कर्म-विचार। वाला अत्यंत पराधीन अपने स्वभावसे च्युत क्षुद्र-पर्यायोंके द्वारा जन्म-मरणको धारण करनेवाला एक प्रकारसे जरूप प्रति. भाषित होने लगता है। जिस प्रकार पुद्गलों ( कर्म ) में अचित्य शति है जीवको किस अवस्थामें परिणमन करा रखा है। परन्तु जीवकी शकि पुद्गलकर्मोंसे भी अनंतानंत गुणी अधिक है अनादिकालसे संगृहीत किये हुए दुधेर्षकर्म एक संतमुहूर्तमें यह जीव अपनी अनंत शक्तिके द्वारा नाश कर सका है। अनादि. कालके कर्मबंधनोंको एक क्षणमात्रमें तोह सका है। इसलिये अपने भावोंको विशुद्ध रखकर और जिनेंद्रभगवानके परम पवित्र शासनका शरण रखकर कर्माको नाश करनेका प्रयत्न करना चाहिये।
दर्शनावरणीकर्म-जिस प्रकार ज्ञानावरणीकर्म आत्माके ज्ञानगुणका आवरण (घात ) करता है। उसी प्रकार दर्शनाघरणी कर्म मात्माके दर्शनगुणका आधरण करता है।
मात्माका स्वभाव समस्त पदार्थको देखनेका है संसारमें ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है, जिसको आत्मा देख नहीं सक्ता हो। संसारके समस्त चराचर पदार्थ और त्रिकालवर्ती समस्त उनकी मूर्तीफ अमूर्तीक पर्यायों को एक साथ देखनेको शक्ति आत्मामें है। यह दृष्टीगुण आत्माको स्वभाविक गुण है। कृत्रिम नहीं है, किसी उपाधिसे प्राप्त नहीं है। देखनेका गुण मात्माको छोडकर 'अन्य पदार्थमें यह गुण सवथा नहीं है। इसीलिये आत्माका यह धर्म है। भात्माका यह स्वभाव है। आत्माका यह- लक्षण है।
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जाव और कर्म-विचार ।
आत्माको शुद्ध और अशुद्ध अवस्थामें यह गुण कथंचित किसी प्रकार घ्यक है। इसगुणके प्रभावसे ही पदार्थोंका देखना होता है ___ संसारी जीवोंको तो दर्शनपूर्वकही जान होता है। प्रथम पदा.
का दर्शन होता है पोछेसे भान होता है परन्तु मुक्त परमात्माको दर्शन और प्रान ए साथ ही प्रतिभासित होते हैं दोनोंका कार्य -सूर्य के प्रकाश और पनाप-समान एक साथ होता है। जान
और दर्शन ये दोनों नक्ति भिन्न भिन्न है । शान दर्शन नहीं है और दर्शन ज्ञान नहीं है। बानका कार्य भिन्न २हैं और दर्शनका कार्य मिन्न है।मान और दर्शन ये दोनोंही मात्माके पृथक् पृथक गुण है। दर्शनावरण कर्म आत्माके इस दृष्टागुणका आवरण करता है। घात करता है।
दर्शनावरण कर्मका नीन मध्यम आवरण सबको होता है। दर्शनावरण फर्मका उदय सघ संसारी जीवोंको होता है, यदि दर्शनावरणफर्मका क्षयोपशम नहीं हो तो पदार्थका दर्शन कदापि नहीं हो सके। और विना पदार्थ दर्शनके पदार्थका परिमान भी किसी अवस्थामें किसीको नहीं हो सके इसलिये पदार्थ-परिशानकेलिये दर्शनावरणकर्मका क्षयोपशम होना आवश्यक है।
एक मनुष्यके नेत्र होनेपर यदि दर्शनावरण कर्मका क्षयोपशम नहीं है तो पदार्थका परिझान नेत्र इन्द्रियके द्वारा सर्वथा नहीं होता है । और जो दशनावरण कर्मका भयोपशम है तो नेत्रके बिना ही पदार्थका परिमान कचित हो जाता है इसलिये दर्शनावरणका' क्षयोपशम पदार्थपरिज्ञानके लिये बाभ्यन्तर कारण है, आभ्यन्तर कारण उपस्थित होनेपर कार्य आवश्यंभावी है। . .
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जीव और धर्म-विचार।
___पन्द्रह प्रमादों में से एक निद्रा नामका प्रमाद है। निद्रा प्रमाद सदैव आत्माके गुणोमे व्याघात पहुंचाता रहता है। निद्रा यह दर्शनाबरणकर्मका भेद है इसलिये दर्शनावरण कमे भात्मा का साक्षात्कार होनेमे प्रतिबाधक है इसलिये दर्शनावरणको दूर करनेके लिये योगीजन ध्यान संयमतपत्ररण करते हैं।
जिस प्रकार एक राजाका दर्शन प्रहरी ( पहरेदार सिपाई) रोक देना है ठीक इसी प्रकार पदार्थोके दर्शनको दर्शनाबरण फर्म रो देता है। पुद्गलारमाणुलो आत्माके संयोगले ऐसी विलक्षण शक्ति उत्पन्न हो जाती है जिससे यात्मामे दृष्टागुणको उपयोग नहीं हो सका है। आत्मा दर्शनावरणीकर्मके उदयले पदा. थोंको देख नही सका है। यद्यपि दर्शनगुण आत्माका है और वह निलोकका दर्शन आत्माको एक क्षण में विना किसीको लहा. यताके करा सकता है परंतु वह गुण दर्शनावरणी कर्मके उदयसे' भव्यक्त हो गया है।
. दर्शनावरण-कर्मके भेद | (१) चक्षु दर्शनावरण कर्म-जो आत्माको चक्षु द्वारा पदा. र्थोका और पदार्थोके रूप (वर्ण ) का दर्शन नहीं होने देवे उसको चक्षुदर्शनावरण कर्म कहते हैं। पदार्थोके वर्ण और पदार्थोका दर्शन चक्षु (नेत्र ) इन्द्रिय द्वारा होता है। जैसे-लाल मानका वर्शन चक्षुके द्वारा आत्माको होना सो वक्षुदर्शन है। चक्षुमें देखनेकी शक्ति है परतु आत्मामें चक्षुदर्शनावरण कर्मका उठयः होनेपर आनका दर्शन आत्माको नहीं होता है।
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जीव और कर्म-विचार। [११७. . (२) जो म आत्माको चक्षुदर्शनके सिवाय अन्य स्पर्शादिक इन्द्रियोंसे होनेवाला अचक्षुदर्शनका घात करे सावरण करे उसको अचक्षुदर्शनावरण कर्म कहते है ।हवाका शीत परिज्ञान. सूर्यकी उष्णताका दर्शन, स्निग्धताका दर्शन, फर्कश कठोर पदार्थका स्पर्श द्वारा दर्शन यह सब अवक्षुदर्शन है। इसी प्रकार आम्लरसका दर्शन, मधुर रसका दर्शन, तिक पदार्थका दर्शन, कटु पदा. र्यका दर्शन इत्यादि पदार्थोके रलका अचक्षुदर्शन जिदा ( रसना, इन्द्रिय द्वारा आत्माको होता है, सुगंधोका दर्शन दुर्गंधीका दर्शन यह अवक्षुदर्शन घ्राण इन्द्रिय द्वारा आत्माको होता है । जैसे गुलाब के फूलकी सुगंधी और मिट्टाके तेलका दुगंधीका दर्शन यह सचक्षु दर्शन है। तत-क्तिन-नाद आदि अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक पदार्थों का दर्शन यह श्रात इन्द्रियफा अचक्षुदर्शन हैं। चक्षुइन्द्रियको छोड़कर अवशेष चार इन्द्रियों के द्वारा रसंरूप गंध और शद्व तथा तन्मिश्रित पदार्थोका दर्शन अवक्षु दर्शन कह. लाता है।
एकेन्द्रियसे नादि लेकर तीन इन्द्रिय पर्यंत जीवोंको तो नियमसे अवच दर्शन ही होता है चार इन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीवोंको वक्षुदर्शन और अचक्षु दर्शन होता है। मनसे पदार्थका अवलोकन करना सो भी अचक्षु दर्शन कहलाना है। - इस प्रकार अचक्षु-दर्शनावरण अनेक-प्रकारसं होता है। द्रव्य क्षेत्र कालकी अपेक्षासे अचक्षुदर्शनावरण कर्मके असंख्यात भेद प्रमेद हैं। उन सबको अचक्षुदर्शनावरण कर्म करता है ।
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जीव और कर्म विचार ।
३- अवधि दर्शनावरण-जो कर्म भवधि दर्शनको आवरण करे उसको अवधिदर्शनावरण फर्म कहते है । अवधिज्ञान के प्रथम अवधिदर्शन होता है अवधिदर्शनके आवरण-अवधिको दर्शनावरण कर्म कहते हैं।
देव नारकी जीवोंको अवधिदर्शन भवप्रत्यय रूप होता है । अन्य साधारण संसारी जीवोंको क्षयोपशम निमित्त अवधिदर्शन होता है । यद्यपि भवप्रत्यय अवधिदर्शनमें अवधिदर्शनाबरण कर्मका क्षयोपशम होता ही है और अवधिदर्शन में तो क्षयोपशम प्रत्यक्ष ही कारण है ।
जिस प्रकार अवधिज्ञान आत्मासे होता है इसी प्रकार अव धिदर्शन भी आत्मासे होता है । इन्द्रिय और मनसे अवधिदर्शमका संबंध नहीं है ।
अवधिदर्शनसे सुदूरवर्ती पदार्थका दर्शन होता है । कालसे बहुत कालवर्ती पदार्थका दर्शन होता है ।
अवधिदर्शनसे जीव पदार्थोंका दर्शन करता है और अवधिदर्शनावरण कर्म उसका आवरण करता है ।
(४) केवल दर्शन - जो कर्म आत्माको सक्ल जगतके चराचर पदार्थोंका एक साथ प्रत्यक्ष दर्शनका आवरण करे उसे फेवलदर्शनावरण फर्म कहते हैं ।
जैसे केवलज्ञान से समस्त पदार्थोंका ज्ञान होता है आत्मा शायक स्वभाववाला है वैसे समस्त पदार्थोंका दर्शन केवलदर्शनसें होता है इसलिये आत्मा दृष्टा स्वभाववाला हैं !
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जीव और कर्म विचार ।
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(५) निद्रादर्शनावरण कर्म-जिस कर्मके उदयसे आत्माको निद्रा उत्पन्न होती है । मद-क्लेद शोक संताप और श्रमको दूर करनेको जो स्वाप लिया जाता है उसको निद्रा कहते हैं यह निद्रा निद्रावरण ( दर्शनावरण) कर्मके उदयसे जीवोंको प्रकट होती हैं । निद्राके समय आत्माको चक्षु और अचक्षु दर्शनका अभाव हो जाता है इसीलिये निद्रा दर्शनावरण कर्मका ही भेद होता है । निद्राके समय पदार्थका दर्शन नहीं होता है, पदार्थ के दर्शन नहीं होनेसे मोक्षमार्गकी क्रियाका अभाव होता है ।
जो मनुष्य स्वल्प शब्दके श्रवणमात्रले निद्राका परित्यागकर पूर्ण रूपसे सचेतन हो जावे प्रमाद और आलस्य न रहे उस निद्राको निद्रा कहते हैं । निद्रा दर्शनावरण कर्मके उदयसे जीवोंको स्वाप होता है।
(६) निद्रा - निद्रादर्शनावरण कर्म-निद्रा निद्रादर्शनावरण कर्म के उदयसे स्वापके ऊपर वारम्वार स्वाप ( निद्रा ) आवे उसको निद्रा-निद्रादर्शनावरण कर्म कहते हैं ।
निद्र- निद्रादर्शनावरण कर्मके उदयसे जीव जरासे निमित्तकारण निद्राके मिलनेपर सहज बातमें स्वाप लेता है । वृक्ष तले ही सो जाना । विषम भूमि या समभूमिमें सोजाना, घोर स्वाप लेना, ऐसा स्वाप लेना कि जिससे जागृत होनेमें कुछ कष्ट हो ।
निद्रा-निद्रादर्शनावरण कर्मसे आत्माके ज्ञान और दर्शन गुणमें व्याघात होता है आवरण होनेसे दर्शनका कार्य रुक जाता हैं पुरुषार्थ किया में भी प्रमाद होता है इसलिये निद्रा-निद्रादर्शनावरण कर्मको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये ।
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जीव और कर्म- विचार ।
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(७) प्रचलदर्शनावरण कम- जो कर्म अपने उदयसे वाप अवस्था में आत्माका प्रचलित कराना है या नेत्र इन्द्रिय सृकुटि विकार कराता है, उसको
आदि अङ्गोपाङ्गमे किया करता है, प्रचला दर्शनावरण कर्म कहते है ।
मला नामक निद्रा के उदयसे जीवोंके नेत्र वालुका समोन हो जाते है । शिपर किसीने मारो वजन लाद दिया हो ऐली प्रतीति होती है । बारम्वार नेत्रोको खोलता है और मीचना है । मनमें यह शक रहती है कि अब में गिरा अभी पडता है | बैठे २ सोने लग जाय । कॉम करते र जंभाई लेने लग जाय इत्यादि अनेक प्रकार दुश्चेष्टा प्रचला नामक दर्शनावरण कर्मके उदयले जीवों होती है ।
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८ प्रचलाप्रचलादशनावरण कर्म- जो धर्म जीवोंको' घोर निद्रा उत्पन्न करे, बेहोसी बनी रहे, मृच्छसे शरीर कार्य करनेमें सर्वथा असमर्थ बना रहे, शरीर के समस्त अवयव विद्वाकी प्रवलतासे शिथिलरूप होजार्वे, नेत्र भृकुटि विकारी बन जावे, निद्रा लेनेपर भा पुन. पुन' निद्रा केही भाव प्रकट होते रहें । दुःख और दुष्ट सदेव बनी रहे । इत्यादि घोरतम निद्रा के उत्पादक कर्मको प्रचला- प्रवला दर्शनावरण कर्म कहते हैं ।
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प्रचला - प्रतला निद्वासे मुखमेंसे लार बहती हैं, घुर्राटे लेकर भयंकर शब्दों का करता है, शिर हिलने लग जाता है और भी दुख टायें प्रचलाप्रचला दर्शनावरण कर्मके उदयसे जीवों को होती हैं। - स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म जिस कर्मके उदयसे जीव
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जीव और कम विचार [१२१ निद्रामै ( सोते सोते)ही भारी भारी कार्य कर लेने और निद्रा. के दूर होनेपर उसका निवार नहीं रहे । निद्रा न्दिो ही में गांव नापर आजावे और पुनः निद्रामें मग्न होजाये वह स्त्यानगृद्धि नामका दर्शनावरण वर्म है। ..
त्यानगृद्धिसे दांत पटस्टासमान होते हैं। निद्राले उटकर पुन गिरता है। मारने लगता है दोना है। स्वप्नमे भयानक कोडा करता है और नृत्य स्रने लगता है। जागृत अवस्थाके बहुनले कार्य निद्रा अवस्थाने ही जीत्र स्वानगृद्धि निद्रा उदसे करना है।
इस प्रकार दर्शायरण को प्रतीहारके लमान आत्मा दर्शन परनेमे बाधक होता है। दर्शनावरण कर्मके साथ जो मोहनी (मिथ्वात्व) का उदय होतो जीयोकी दशा बडी भयानक हो, जाती है। शनावरणकर्मके क्षयोपशममें भी पदायाँका दर्शन विपरीत दीसता है। भ्रांतिस्वरूप दीखना है। अनिश्चयात्मक दर्शन होता है या कुछका कुछ प्रतिभालने लगता है । जिस प्रकार मिय्यात्मके उदयके योगसे ज्ञानमें विपरीतभाव होते हैं चैतेही मिथ्यात्वके उदयके योगले दर्शनमें भी विपरीत परिणति होती है। - - - - - • वेदनीयम-जिल कर्मके उदयसे जीव सुख दुःखके कारण-- भूत भोगोपभोग पदार्थोंको भोगनेसे-आस्वाद लेनेसे.सुख और दुःखकी प्रतीति माने, सुख दुखका वेदनकर अपनी आत्माको सुखी दुःखी माने सो वेदनीयम है। .......... . - जिस प्रकार तलवारकी धारपर मधु (शहत.) लगाकर
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जीव और कर्म-विवार। मास्वादन किया जाय तो मधुके आस्वादनले मधुरताका सुख और तलवारकी धारकी तीक्ष्ण वेदनासे दुःखका उद्धोध होता है उसी प्रकार एकही वेदनीयकमसे जोषको सुरबदुःख प्रदाच होता है।
यद्यपि जीव मीन्द्रिय, निराकुल,अनंत अन्यावाध, अक्षय ऐसा आत्मीय सुख स्वभाववाला है। वह आत्मीय मन्त-सुख आत्मामें खभावरूपले सदैव प्रवाहित होता रहता है किसी दूपरे पदार्थके संयोगकी अपेक्षा नहीं है। या प्रयत्न करनेकी अपेक्षा नहीं है उस सुखका भास अनुवेदन करनेसे नहीं होता है और न उसके लिये फिसी प्रकारकी चाहना करनी पड़ती है किंतु उस सुखमय
आत्मा होनेसे.सुखका अनुमोग स्वयमेव मात्मधर्मरूपी होता ही रहता है।
सुख दुःखका आस्वादन इन्द्रिय और मनके कारणसे प्रतीत है किंतु जीवके इन्द्रिय और मन नहीं है जिससे सुख दुःखका वेदन करें परन्तु अनादिकालले संसारी जीवकी आत्मा अशुद्ध होरही है। चेदनीकर्मकी पराधीनता प्रवलताके साथ होरही है। जिससे यह जीव वेदनीकर्मसे प्राप्त पर-पदार्थ मोगोपभोग इटानिष्ट सामग्रीकी प्राप्ति और अप्राप्तिमें अपनेको सुखी दुःखी हैं पर-पदार्थोंसे सुख दुःखका अनुवेदन करता है । आस्वाद करता है। अनुभोग करता है, संवन करता है, आकांक्षा करता है और उसके फलमें हर्षित होना है विषादको प्राप्त होता है यह सब वेदनीकर्मके पदयसे हो जीवका परिणमन ऐसा होरहा है।
जीव अपने शुभाशुभ कृत्याद्वारा, अएने भले-बुरे विचार द्वारा
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जीव और कर्म विचार ।
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सदाचार और कदाचार द्वारा, पाप पुण्यरूप प्रवृति द्वारा, सत्य और मिथ्यावचनवर्गणाद्वारा, हिंसा झूठ चोरी कुशील पापाचरण अनीति अन्याय और जप तप ध्यान पूजा दान स्वाध्याय 'देवशास्त्रगुरु श्रद्धान द्वारा जो कर्म करता है उसका ही फल सुख दुःख रूप वेदनीय कर्म द्वारा प्राप्त होता है ।
जीव जैसे भले बुरे कार्य करता है उसका फल वह स्वयं वदनीय कर्म द्वारा प्राप्त कर लेता है।
ऐसा नहीं है कि जीव तो स्वयं पाप कर्म करे और उसका फिल ईश्वर प्रदान करे या ईश्वर पापकर्मसे मुक्त कर देवे अथवा विश्वर ही उन पाप कर्मोंके फलको भोगे । ऐसा भी नहीं है कि नो ईश्वर करावे और जीव उसका फल सुख दुःख भोगे । जीवका कर्ता और भोक्तारूप है । इसलिये न तो भले बुरे कर्मको ईश्वर जीवसे करोता ही है और न उसका फल ही ईश्वर भोगता है या देता है ऐसा माना जाय तो नावकी शक्ति वंध और मोलकी
ठहर जाय । अथवा
दृढ़ होजाय, जीव
किसी प्रकार निरा
जीवकी पराधीनता सदाके लिये सुनिश्चित अर्किचित्र होजाय और ईश्वरका वध सत्य सत्य स्वरूप सुनिश्चितरूपसे न बन सके। इसलिये जीव स्वयं कर्म करता है और वेदनीकर्म द्वारा स्वयं उसका फल भोगता हैं।
* - "स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं च फलमश्नुते "
मात्मा स्वयं कर्म कर्ता है और स्वयं उसका फल भोगने वाला
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१२० ] जीव और कम-विचार । " जो गेगी है वह स्वय औषध सेवन करेनो रोगसे मुक्त हो सकता है। पुत्रके रोगमें कोई भी माता पिता साई आदि कुटंब कनोला साझो नहीं हो सकता और न कोई भी, साझो होता ह। कितु जिसके जैसे कार्य उसको वैसा दड ( फल ) स्वयं बेदनीय कर्म द्वारा प्राप्त होजाता है।
- पुत्र भाई धन सपनि महल घोड़ा हाथी और उत्तम भोग संप. दाकी प्राप्ति तथा शत्रु विष न्द्रिना रोग पीडा आदि शनिष्टपदार्थों की स्वयमेव प्राप्ति वेदनीय कर्मके उदयसे जायोको होती है। ___ जीवका न तो कोई मित्र है न कोई, चघु न कोई माता है न पिना हे कुट बकवीला है तथा इसी प्रकार जोवा कोई भी शत्रु नहीं हे वैरी नहीं है दुख देनेवाला है। धनादिक संपतिका नाश करनेवाला नहीं हैं किन्तु वेदनी कर्म के उदयले ऐसे.शुभा. शुभ निमित्त स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं, राजा रंक हो जाता है और रंक राजा होता है, निधन सात होता है और सघन निधन होता है, विष अमृत होता है, अमृत विष रूर होता है। लोतावेदनीय कर्मके उदयसे ससार बंधु हो जाता है और असाती. चेदनीय कर्मो उदयसे-वधु भो शत्रु हो जाते हैं। ।
ऐसा भी नहीं है कि जोरको सुख दुःख अनुवेदन नहीं होता है माया (भ्रम ) से ऐला दीखता है। इस प्रकारको कल्पना मिथ्या है। अशुद्ध संसारी जीवोंमें कर्मोके निमित्त सुखादुश्ख अनुवेदन करने की शक्ति उत्पन्न होजाती है और उस शक्तिके प्रभाव जीव सुख दुःखका अनुवेदन करता है। ऐसा नहीं माना
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जीव और कर्म विचार |
पर- पदार्थों में सुख दुःखका उद्भास होने लगता है संसार में जो कुछ प्रिय अप्रिय पदार्थोका उद्भास होरहा है वह सव वेदनी कर्मके निमित्तसे ही है ।
पदार्थोंमें सुख दुःख देनेकी शक्ति नहीं है किंतु आत्माके भावोंसे और वेदनी कर्मके उदयसे उन पदार्थोंमें ऐसी शक्ति प्रकट हो जाती है जिससे सुख दुःखकी प्रतीति जीवको होती है । वेदनकर्मके मेद
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-
वेदनकर्मके दो भेद हैं । १-सातावेदनी, २ असातावेदनी । जिस कर्मके उदयसे जीवोंको सांसारिक सुख प्राप्त हो इन्द्रिय और Hast सतोषकारक सामग्री प्राप्त हो वह सातावेदनो कर्म है सातावेदनी कर्मके उदयसे द्रव्य-क्षेत्र - काल और भावके द्वारा जीवोंको सुख प्राप्त होता है ।
दु
द्रव्यसे यथा - मनोज्ञ - इन्द्रिय मनको संतोषकारक और प्रिय ऐसे अन्नपान भोगोपभोग सामग्रीकी प्राप्ति, मनोहर कोमल और प्यारे वस्त्रोंकी प्राप्ति, उत्तमोत्तम रत्न सुवर्ण आदिके अलंकारों की प्राप्ति, सुखोत्पादक हाथी घोडा रथ पालकी आदि वाहनों की प्राप्ति, नयनप्रिय सुन्दर शरीरकी प्राप्ति, सेवाभकपरापण स्त्री पुत्रादिकी प्राप्ति इत्यादि अनेक प्रकार दुव्यके द्वारा जो कर्म जीवोंको सुख उत्पन्न करे उसको सातावेदनी कर्म कहते हैं ।
क्षेत्र से यथा - उत्तमोत्तम विमान उत्तमोत्तम महल, मनोज्ञ प्रासाद-सुखकर प्यारी, वसनिका घर आदि क्षेत्र के द्वारा जो कर्म जीवोंको सुख उत्पन्न करे उसको सातावेदनी कर्म कहते हैं
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दीव और कर्म-विचार। [१२० काटई यया-गांववावारहिन. रणवाधारहित, अनिवृष्टि वाधारहित, मनावृष्टि वाधारइिन, रोग पीडा योर संतापकी वावासे रहिन सुनमय कालके द्वारा जो कर्मजीवोंको मुखपत्र करे वह मानावेदनी को है।
नावसे यथा-उपराम परिणान-गांतिमय जीवन, संक्लेश. रदिन मात्र, विना मार मानसीक पीडा रहित परिणाम, मार्च और दुर्विचार रहित निराकुन भावरे द्वारा जो फर्म डीवोंगे सुख उत्पन्न करे वह डावावेदनों में है।
निस कम उदय सब प्रकार दु.म प्रान हो, इन्दिय मन और शरीरको पता करनेवाली सामान प्राप्त हो, अनिष्ट बम्नुका मनागम हो या दृष्ट वस्नुस विदोग हो दसको असाटावेदनीर्म
असावावदनी कर्म मी कश्य-त्र-कल और मार द्वारा जीवको दुात प्रान करता है।
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३२८]
'जीर और फर्म-विचार। , क्षेत्रसे यथा-गैरव कुंभीपाकादिनरक क्षेत्रकी प्राप्ति, दुगंध अशुचि कोच आदिसे व्यामिश्रित क्षेत्रकी प्राप्ति, गंधक तेजाप सोस पारी आदि धातुओंसे परिपूर्ण अत्यन्त उष्ण क्षेत्रकी प्राप्ति या समुद्र नदी वर्फ आदि शीतमय क्षेत्रकी प्राप्ति के द्वारा जो कमे जीवोंको दुःख उत्पन्न करे वह असातावेदनी कर्म है। कालसे यथा--शीत गत्यंत शोतकाल, विपम और दुस्सह उष्णता-पूर्ण काल, रोग आधि-व्याधिसे परिपुर्ण काल, अतिवृष्टि अनावृष्टिसं व्याप्तकाल, शरीर और मनको संतापकारी कालवे द्वारा जो कर्म जीवोंको दुःख उत्पन्न करे यह मलातावेदनी कर्म है। ' भावसे यथा-क्रोधसे संतप्त भाव, मानसे जर्जरित भाव, मायासे कलुषित भाव, लोभसे व्याकुलित भाव, कामसे पीडित भाव, चिंतासे अमनस्क भाव, ईर्षा मत्सर द्वपसे कलहकारीभाव, राग प्रेम और हर्पसे उन्मादित भाव नादि कुत्सित भावोंके द्वारा जो कर्म जीयोको दुःख उत्पन्न करे वह असातावेदनी कर्म है। , इस प्रकार वेदनीकर्म जीवोंको सुख दुःखका प्रदान करने घाला है। संसारमें सुख दुःखके जितने कारण हैं वे सब प्रायः वेदनीकर्मके उदयसे जीवोंको पाहा निमितकारणसे प्राप्त होते है। जिन जीवोंको सातावेदनी धर्म का उदय है तो ही उनका उद्योग सफलीभूत होगा, असातावेदनो फर्मके उदयसे कितना ही उद्योग किया जाय, परन्तु वह सफल नहीं होता है यह कमेकी विचित्रता है इसलिये सुखमें हर्प और दुःखमें शोफ नहीं करना चाहिये।
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जाव और कर्म-विचार।
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सम्यग्दृष्टो जीवोंको ही पुरपार्थकी प्राप्ति होती है इतर संसारी जीवोंको पुरुयार्थ नही होता है। मोक्षकी प्राप्ति पुरुषार्थ के द्वारा हो होती है। इसलिये भव्यजीवोंको परमपुत्यार्थकी प्राप्तिकेलिये वेदनीयफर्मके उदयमें सुख और दुःख नहीं मानना चाहिये । ___ मोहनीकर्म उदय (मिथ्यात्व ) से जीवोंको वेदनोर्म विपरीत अनुवेदन कराता है। मिथ्यादृष्टो जीव शरीरके जन्ममें आत्माका जन्म और शरीरके मरणमें आत्माका मरण, शरीरके सुखमें आत्मीय सुख मानता है । पुत्र मित्र फ्लन आदि बन्धु कुटुम्ब पवीला और धन संपत्तिको अपनाता है। वेदनीकर्मसे प्राप्त भोगोपभोग पदार्थोंमें आत्मबुद्धि करता है। मात्माका अनुवेदन करता है इसलिये पर पदार्थोंसे राग द्वेप करता है । इष्टचरतुकी प्राप्ति मुखी होता है अनिष्ट वस्तु की प्राप्तिमें दुःखी होता है, इष्ट वस्तु के वियोगमें दुबी होना है और अनिष्ट वस्तुके वियोगमें सुखी होता है परन्तु यह सा वेदनीकर्मके उद्यका फल है। उसको ही यात्मा मानना और वसा अनुवेदन करना यह सर मिथ्यात्वकर्मके उदगलेही वेदनीकर्मके अनुवेदनमे विपरीत मावई
सम्यग्दृष्टी जीव वेदनीकर्मके उदयसे होनेवाले सुप दुःख तथा वैसी सुख दुःख प्रदान करनेवाली सामग्रोके प्राप्त होनेपर हर्प और दुःत्री नहीं होता है। वेदनोर्मकी उदयालको भोग करता हुआ सम्यग्दृष्टी जीच उसमे यात्मबुद्धि नहीं करता है साता वेदनीक उदयसे प्राप्त सुनको भात्मीय सुख नहीं मानता हे उसमें आत्मजन्य मावोंकी कल्पना नहीं करता है। इसलिये वह वेद.
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जीव और कर्म -विचार ।
द्वेएकी
नी फर्म के उदयको भोगता हुआ भी उससे अलिप्त रहता है, रागअथवा आर्त रौद्र परिणाम नहीं करता है मसाताके उदयमें व्याकुलित नहीं होता है । साताके उदयमें वैकुण्ठ सुख नहीं मानना है !
इस प्रकार वेदनीकर्मके उदयसे जीवोंको अनेक प्रकारके सुख दुःख भाव होते हैं । जीवोंके भावोंके भेदसे वेदनीकर्मके अनेक भेद होते है तोभी उन सबका कार्य सुख दुःख होने से समस्त भेद वेदनकर्ममें ही अंतर्गत होते हैं ।
वेदनी कर्म आत्माके गुणोंका प्रतिघात नहीं करता है । जिस प्रकार ज्ञानावरण धर्म या दर्शनावरण कर्म आत्माकं ज्ञान और दर्शन गुणोंका प्रतिघात करते हैं वैसे वेदनीकर्मके उदयसे आत्माका कोई भी गुण प्रतिघात नहीं होता है इसलिये वेदनीकर्म अघाती है।
तीर्थंकर केवल भगवानके आत्मीय गुणोंका प्रकाश व्यक्त होगया है परन्तु तीर्थंकर केवली भगवानके वेदनीफर्मका उदय मोजूद है । इसलिये वेदनीकर्म आत्माके गुणोंका घातक नहीं है ।
कितने ही मनुष्य - वेदनीकर्म आत्माके अतीन्द्रिय सुखका घात करता है ऐसा मानते हैं परन्तु यह एक मनोनीत कपोलकल्पना है | तीर्थंकर केवली भगवान के आत्मीय अतीन्द्रिय अनंत सुखका व्यक्तीकरण हैं परन्तु वेदनीकर्मका अभाव नहीं है किन्तु उदय हो है ।
इस प्रकार वेदनीकर्म मिथ्यात्वगुणस्थानसे लेकर दशवें
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जोर और कर्म विनार। [१३१. गुणम्यानपयन मनुवेदन फगता और ग्यारपाद धार नरहवं गुणम्यानाम मोरनोरमपा यमार नेमे पानोपमा उदय नोर्ण रम्मो ममान होता है । अनुवेदना नहीं होती है।
मोनार्म जिस ममसे उदयमे जीवके गुणोम विपरीत मात्र उत्पन्न हो अनत्वमें नव प्रोनि हो। नन्यमें अनन्ध प्रतीनि हो। अपने समारसो भूलयर विपरीनमाप वान्मधदा फर उसको मोहनी समें पहने है। जिस प्रकार उन्मादी मन-मनुष्यको हिताहित बुद्धि नहीं होती है। यानुयों मयासन्यका निर्णय नहीं रहता है। टस हान प्रमाणिकता नहीं रहती है। उसकी परिणति पिन यनत्व प्रदानगर मिथ्या रहती है। उसके मांगाम व्या. मोरपी शिप-मिधिन नहर निरंतर प्रवाहित रहती है। इसके परिणाममि मिथ्यात्वका रंग चढ़ जाने गर्गरादि जड पदार्य में ही यात्माफी कायना होती है। उस मानमें समानता, उसकी अदा मिथ्यामार होते हैं। उसको मेद-मिलान नदी होता है। मत्य पटायको पहिचान ही नहीं होती है।
जिस प्रकार मदिरापान यग्नेवाले मनुष्यको शानकी विशुद्धि नहीं है, अपने म्यमावको भूल जाना है मानाको नी बार स्नीको माता मानना है, विपरीत-मायको धारण फर सन्यथा श्रद्धान करता है। एनीप्रकार मोदनीफर्मफे उदयसे जीव विपरीत मागेको धारण करना है। गरीरको जोर मानता है। जीवको जह मानता है। जीवको कमी फमी मानना ही नदी, जीवक स्वरूप में
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१३२] जोव और कर्म विचार । संशय और अज्ञान भावको धारण करता है। जीवके स्वरूपमें मतत्व-श्रद्धान करता है।
आत्माका खभाव या धर्म अरहंत भगवानके स्वरूपके समान अनंतचतुष्टय सहित राग द्वे पसे रहित-शरीरसे भिन्न है। यात्मा. का असली स्वरूप सिद्ध भगवानका है और कथंचित् अरहता भगवानके समान है । इपलिये अरहंत भगवान और उनकी वाणी (क्योंकि जिनवाणी में आत्माके सत्य-स्वरूपका लक्षण घतलाया है इसलिये जिनवाणी भी आत्माके असली स्वरूपकी प्राप्तिका मार्गप्रदर्शिका है) तथा मरहंत भगवानके स्वरूपका ओराधन करनेवाले-सिद्ध करनेवाले आवार्य-उपाध्याय-सर्वसाधुके
घद्धान न कर विपरीतभावोंको धारण करना, अतत्व श्रद्धान करना, देवको अदेव मानना, गुरुको गुरु नहीं मानना, शास्त्रको मिथ्या समझना सो ये सव भावमोहनी कर्मके उदयसे जीवको होते हैं । इसी प्रकार अदेवमें देव-बुद्धि कुशास्त्र में शास्त्रबुद्धि
और कुगुरुमें गुरु बुद्धि-माननाभी मोहनीकर्मका कार्य है। — मोहनोकर्मके उदयसे आत्माके स्वभाव आत्माके स्वरूपमें आत्मा गुणोंमें-आत्माके भावोंमें-आत्माके परिणामोंमें-आत्माके शानमें-आत्माके सुखमें-आत्माके दर्शनमें विपरीत भाव हो जाता है। विपरोत श्रद्धान होता है विपरीत रुची होती है।
मोहनीय कर्मके उदयसे हिंसादि पापिष्ट-कार्यों में जीव धर्म मानता है मलिनावरणोंमें धर्म व नीति मानता है। त्याग-धर्ममें ग्लानि करने लग जाता है। कर कर्मों में रुचि होती है।
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जीव और कर्म-विवार ।
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जिस प्रकार वाला मनुष्य दुःष और केराको मानता है और नीवको मधुर मानता है। उसी प्रकार मोहन कर्मके उदयसे जीव पापकामें धर्म और पुण्य कार्यमें अघ मानना है । जीवको अजीव मानना है और मानता है ।
जीव
कर्मग्रहिल मनुष्य के समान स्वछंद प्रवृति
होनी है । हिठोनिका विचार नहीं होता है | सन्मार्ग और कुमार्गका परिमान नहीं रहता है । धर्म धर्मका विचार नहीं रहता है । देव देवत विचार नहीं रहता है । सदाचार, कदावारका विचार नहीं रहता है ।
मोहनी के उदयसे उन्मादी मनुष्य के समान रूप से मिथ्यावरण पर लपको सुखी मानना है। इसीलिये किसी प्रकार मी शरीरको तुम प्राप्त हो और उस शरीरके सुखने सात्माको सुत्री मानना है 1
जिसके कोका तुम और कोद्रवके तंडुल ( चावल ) में नेत्रुद्धि नहीं है । ऐसी श्रद्धा ऐसी प्रतीति वह सब मोहनीकर्मका ही फल है ।
मोहनीक के द
मोहनी कर्मके मुख्य दो भेट है एक दर्शनमोहनी दूसरा चारित्रमोहनी | दर्शनमोहनी के तीन भेद है- मिध्यात्व, सम्यक् मिध्यात्व और सम्यक्क |
यद्यपि दर्शनमोहनीका एक मिध्यात्व ही भेद है । तो मी
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१३४] जीव और कर्म विचार । जैसे कोदोंको दलनेसे तीन भेद हो जाते है। कोदोंके वावल १ फोदोंके चावलका चूर्ण (भूखा) २ और कोदोंका तुप ३ इसी प्रकार दर्शनमोहनीके ही तीन भेद हो जाते हैं।
मिथ्यात्व कर्म जीवोंको अतत्वध्रद्धान कराता है पदार्थोके खरूपमें यधाधे श्रद्धान नहीं होने देता, साप्तानमगुरुकी प्रतीति नहीं होने देता । आत्मस्वरूपकी प्रतीति नहीं होने देना वह मिथ्यात्वम है। वह कोदोंके तेदुल (चावल) के समान महान. मूर्छामावको उत्पन्न करता है।
इसी मिथ्यात्वको अग्रहीत कहते हैं। अनादिकालपे मुच्छा परिणामोको धारणपर पर-यन्तुमें अहंता और ममताभावको यह जीव इस मिथ्यात्वके प्रभावसे प्राप्त होता है इस मिथ्यात्वके 'वल्से ही जीव घोर अज्ञान भाव और तीव्रतम पायभावको प्राप्त होता है, नित्य-निगोदिया जीव इसी मिथ्यात्वके प्रभावसे एक श्वासमें अठारह बार जन्म-मरणको धारण करता है। अनादिकालसे यह अग्रहीतमिथ्यात्व जीवोंको अनेक प्रकारके दुःख देता है ' प्रोत मिथात्व-कुदेव कुशास्त्र और कुगुरुओंको कुसंगतिसे होता है वह भी मिथ्यात्वकाही भेद हैं ग्रहीतमिथ्यात्वके प्रभावसे जीवोंके परिणाम अनेक प्रकारले विपरीत रूप होते हैं। मनत्व श्रद्धान स्वरूप होते हैं। एकान्त विपरीत-संशय-विनय आदि भेद इसी ग्रहीतमिथ्यात्वके हैं। सबसे भयंकर परिणाम कुशास्त्रोके अध्ययन करनेसे जीवोंको होता है। कुशास्त्रों के अध्ययनले तत्काल ही मिथ्यात्वका असर आत्मापर होता है।
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जीव और कर्म-दवार। [१३५ पश्चिमदेशकी [ धार्मिक शिक्षा-विहीन ] कुशिक्षासे मनुष्यों. के परिणाम कितने भयंकर हो रहे है। यह सबको प्रत्यक्ष विदिन हो है। पश्चिम देशको कुशिक्षाके कारण कोई नो शास्त्रोंको हो अप्रमाण मानता है। कोई उसको फाट-छांट कर मनकल्पित विपर वासनासे शास्त्रोंको फ्लकिन बना रहा है। कोई धनके लोमसे शास्त्रोंमें संशय उत्पन्नके साधनोंको शक्तिपर प्रयत्न कर रहा है। कोई तीव्र मिथ्यात्वी शास्त्रोंमसे फरणानुयोग प्रथमानुयोगको नहीं मानना है । चरणानुयोगको मान्यता दिखा. कर अपनी प्रनिष्ठा रखनेकेलिये लोगोंके सामने मिथ्या नाटक बनाना है। परन्तु वरणानुयोगको अमान्यकर विधवाविवाह जैसे व्यभिचार फैलाना चाहता है। कोई मृनिकोही नहीं मानना चाहता है-तीर्थकर मरहन्त भगवान सर्वज्ञ नहीं थे मुहमद पैगम्बरके समान साधारण ज्ञानी थे। पूर्वके जमानेसे तो इस समय अधिक विद्वान मनुष्य होते हैं ससारमें सर्वज्ञ कोई हो नहीं सका ? इस प्रकार आहत तीर्थंकर भगवानके स्वरूपकोही माननेकेलिये ही तैयार नहीं है। कोई सुगुरु (निग्रंथ गुरुओंको) कोही माननेके लिये तैयार नहीं है। सुगुरुभोशी निंदाकर कोई पेटार्थ जगतको अपने तीव्र मिथ्यात्वके उदयस,टगना चाहता है। कोई शीलधर्म. को नष्ट करदेना चाहता है कोई अपनेको ब्रह्मचारी कहकर व्यभि. चारका मार्ग खोलता है और विषयवासनामें मन्न होता है उसमें मग्न होकर अनुभवानंद प्रकट करता है, कोई हिंसामें धर्म बतलाने लगा है, कोई वकील असत्य (झ) में धर्म समझता है।
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१३६] जीव और कर्म विचार । कोई जातिपाति उठाकर मोक्षमार्ग नष्ट करदेना चाहता, है, कोई मद्य मास खानेकेलिए धर्म बतला रहा है, कोई असमर्थ गौ मनुः प्यको हिसामें धमे बतलाने लगा है। इस प्रकार पश्चिम देशकी कुशिक्षासे मिथ्यात्वकी वृद्धि होरही है इतनाही नहीं कितु कुशिक्षाके प्रभावले पुण्य पाप-जीव कर्म आदि समस्त बातों में नास्ति. कता प्रक्ट रूपसे होरही है । इस प्रकार कुशिक्षासे जैनो कहलाने वाले और जैनकुलमें उतान्न हुये सुधारकोंकी ऐसी भयंकर दशा होरही है तोव मिथ्यात्यका भाव होरहा है तो अन्य साधारण जनताको कुशास्त्रोंकी कुशिक्षासे कैसा भयंकर परिणाम होता होगा यह अनुमान पाठकोंको स्वयं करलेना चाहिये। सदाचार और आवार विचार आदि तो प्रत्यक्षही लोप होजाते हैं इसलिये गृहीत मिथ्यात्वका कारण कुशास्त्रोंका अध्ययन और खोटे उपदेशोंका सुनना है।
संसारके जितने मत है वे प्राय. गृहीत मिथ्यात्वही रूपांतर है । श्वेताम्बरमत पाणनीमत-लु कामत आदि जैनामालमत मी ग्रहीत मिथ्यात्वके रूपान्तर है। कितनेही सुधारक तीनों मतका एकरूप लाना चाहते हैं। वे असली तत्वको नष्टकर मिथ्यात्वका प्रचार करना चाहते हैं। या अपना मतलब बतानेके लिये मागी. रथी प्रयत्नकर संसारसे सत्यधर्मका नाश करना चाहते हैं। ____ एकातादि मिथ्यात्वका स्वरूप अन्य ग्रन्थोंमें विस्तारसेलिखा है। इसलिये यहांपर लिखने की आवश्यकता नहीं है।
(२) सस्यग्मिथ्यात्व प्रकृति-कोदोंके चूर्णके समान जीवोंके
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जीव कर्म-विचार |
[ १३७ परिणामों में मित्रको उत्पन्न करती है। परन्तु इसकी नीवतामिति समान अत्यत विवम नहीं होती है । कुछ भवना लिये रहती है । इसीलिये वह सच्चे देव शास्त्र गुरुकभी कविता प्रीतपूर्वक सेवन करता है। और प्रसंग परमया देव, मिथ्या गुरु, मिध्या धर्म और मिथ्या शास्त्रोंको सेवन करने लगजाता है परन्तु मित्र प्रकृतिकेय वैमाविक मावही रहता है टमने सम्यग्दर्शनफा लेगभी नहीं है ।
जिस प्रकार दही और गुड मिलानेले मट्टा मीठा मिश्रित स्वाद आता है। इसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्व प्रकृति पदय जीवोंके परिणामोंमें सम्यग्मिध्वा भार होजाते है । जिससे वह अनन्य श्रद्धान करना है ।
सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका कार्य सम्यग् नहीं कहा जाना है क्योंकि उसका परिणमन मिथ्यात्वक तरफ प्रवाहित है विशेषता मिपाल नरफी लगी रहती है । इसीलिये इसको मिि हो संमिलित करते हैं । परन्तु मिथ्यात्व की अपेक्षा हममें कुछ भट्टना है। तीव्र टुकना नहीं है । चाहे तो यह अपने परिणामों को सुधारकर मिध्यात्व भावोंको कर सका है ।
कुशास्त्र के अध्ययनमे इस सम्पग्मिध्यात्य प्रकृतिके रस में विशेष मिध्यात्वका परिणमन होता है । कुशाखों के अध्ययनसे उस जीवको भट्टना न हो जाती है और मिध्यात्वकी दृढ़ना घढ जाती है । संसारमें मिथ्यात्वको वृद्धिका सबसे प्रधान कारण है नो एक कुशास्त्रों का अध्ययन है । इससे धीरे धीरे बुडिमें विपरि
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जीव और कर्म-विचार |
णमन होने लगता है । परिणामोंमें मिथ्यात्व के संस्कारोंका असर, जीवोंके भावोंको मिध्यात्वकी तरफ खींच ले जाता है। उतना व्यापक प्रभाव कुदेव और कुगुरुका नहीं होता है कि जितना कुशास्त्रोंके अध्ययनले होता है । बालकको फोमल बुद्धिमें तो कुशास्त्रोंके अध्ययनका फल तत्काल ही प्रकट होता है । इसका एक कारण है कि जंनधर्म निवृत्तिरूप है और अन्यमनके समस्त शास्त्र विषयवासनाओंकी प्रवृत्तिरूप है। इसलिये विषयवासनाका रंग कुशास्त्रोंके अध्ययनसे मिथ्यात्वरूप चढ़ता है । जिनके दृढ संस्कार हैं जिनका कुल धर्म अकुशरूप सुदृढ है और जिनका श्रद्धान धार्मिक शास्त्रोंके अध्ययन से जिनधर्मका श्रद्धा तरफ सुदृढ होगया हैं ऐसे मनुष्य के भावों में मिथ्याशास्त्रोंके अध्ययन से क्वचित मिथ्यात्वरूप परिणमन हो जाता है तो संस्कारविद्दीन साधारण मनुष्योंकी क्या बात ? इसलिये अपक्ववयमें बालकों को सबसे प्रथम धार्मिक शास्त्रोंका अध्ययन कराना चाहिये खासकर चरणानुयोगका अध्ययन तो सबको नियमसे करना ही चाहिये । वृद्ध और युवा मनुष्योंको अपने सम्यग्दर्शनको विशुद्ध बनानेकेलिये चरणानुयोग - प्रथमानुयोग और करणानुयोगका अध्ययन करना चाहिये । पदार्थों को सम्यक् प्रकारसे जाने विना और निश्चय व्यवहारनयका स्वरूप प्रमाण नय निक्षेप तथा अनुभवके द्वारा जाने बिना केवल अध्यात्म ग्रन्थोंका अध्ययन नहीं करना चाहिये | अध्यात्म ग्रन्योका स्वाध्याय यदि विवेकपूर्वक किया जाय तोही सम्यक परिणाम होता है । व्यवहारका लोप हो जानेसं सदाचार नष्ट हो जाने की संभावना बनी रहती है ।
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जीव और कर्म विचार /
[ १३*
( ३ ) सम्यक् प्रकृति - कोर्दोके तुपके समान सम्यक् प्रकृति aaint सम्यक् श्रद्धानसे च्युत नहीं कर सकी। मिथ्यात्वरूप परणति नहीं कर सकी है जीवोंको तत्व रुचि होती है । सम्यक्श्रद्धान भो होता है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर पूर्ण अविचल श्रद्धान होता है । भेद-विज्ञान भी होता है। जीवादिक पदार्थो की रवि होती है | महंता और महंता नए हो जाती है । अज्ञानभाव दूर हो जाता है और सम्यक्भाव प्रकट हो जाता है परन्तु सम्यत्वमें मलका उद्भवन होता है । पच्चीस प्रकार के मल ( दोष ) प्रकट हो जाते हैं । उन दोषोंके प्रभावसे आत्मा के परिणामोंकी प्रवृत्ति यसवरूप अनायतन सेवनरूप हो जाती है इसीलिये इस प्रकृतिको मिध्यात्व में परिग्रहीत किया है।
पच्चीस दोपों से कितने ही तो दोष ऐसे है कि जिनसे मिथ्यात्व के भाव तत्काल ही उदय होजाते हैं । जैसे देव-शास्त्रगुरुका प्रदान करनेवाले जैन कुलोत्पन्न श्रावकको ( सम्यग्दृष्टी ) पदार्थो का परिणमन सूक्ष्म होनेसे या कुशास्त्रोंके अध्ययनसे जैन धर्मके तत्वमें शंकाका होना, दूसरे जीवोंको धनादिक भोग संपदासे सुखी देखकर पर वस्तु मे आत्म-सुखकी भावना कर परवस्तुको वाहना, अन्य मतके विद्वानोंके शास्त्र के चमत्कार-मंत्रके चमत्कार, राज्यादि विभूतिका लोप, स्त्री मिलनेकी आशा आदि कारणकलापोंमे अन्य मिथ्यामतको उत्तम माननेकी भावना या उनको उत्कृष्ट और सत्य स्वरूप मानने की भावना, इसीप्रकार लोक मूढनादि मुढता कार्य ये सब दोष आत्माको मिथ्यात्वके सन्मुख करा देते हैं ।
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१४०]
जीव और कम-विचार । सम्यक्प्रकृतिसे चल मल और अगाढ दोपोंका सदभाव भी माना गया हैं तो भी ठाक है । क्योकि मलादिक टोपोंकी विशेष वृद्धि हो जावे तो मिथ्यात्वफे सन्मुन्य यात्मा तत्काल ही हो जाता है चलमलिन अगाढ दोपोंसे सम्यग्दर्शनका घात नहीं होता। __आठ शंतादि दोप-छह अनायतन, आट मद (सहकार) और तीन मूढता ये पच्चोल दोप है। इन टोपोंले सम्यक्त्वमें मल लगता है या सम्यक्त्व नष्ट होजाता है इनका विस्तार ग्रन्यों में बहुत किया है। परन्तु इन दोषोंको स्वरूप विवेक-पूर्वक जानना चाहिये अन्यथा धर्मके लोपकी संभावना या धर्मको प्रलंकित बनानेकी पृथा प्रकट हो जाती है जैसे जातिमद या कुलमद नहीं करना चाहिये क्योंकि मद पच्चीस दोपोंमे है। एक उत्तम कुल. वाला मनुष्य अपने कुलके गौरवको घढानेकेलिये यलिन साचरण नहीं करना है। भगीके लाथ खान-पान या रोटी वेटी व्यवहार नहीं करता है वह समझता है कि जो मैं भगी आदि नीव मनुष्य. के लाथ गेटी-बेटी व्यवहार करूगा तो मेरा मोक्षमार्ग नष्ट हो जायगा मेरे उत्तम कुलकी पवित्रता मारी जायगी। मेरा सदाचार और आचार विचार नीच मनुष्योके साथ रोटी-बेटी व्यवहार करनेसे मलिन होजायगे फिर मेरे कुलमें मुनिधर्मकी दीक्षा नहीं हो सकेगी ऐली उच्च भावनासे वह अपने कुलके गौरवको रख रहा है तो उसको मद नहीं कहेंगे। पर-पदार्धको ( आत्मवुद्धि ) आत्मारूप मानकर अभिमान करना लो मद कहलाता है।
इसीप्रकार शंकादिक दोषोंको विचार-पूर्वक समझना चाहिये।
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1
શ્કર
जीव और कर्म विचार |
करना यह सब
शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित पदार्थ रूप को करना और अपनी अंतर्दुष्टवुद्धिसे शास्त्रोंकी मिश समालोचना मिथ्यात्व है, दोष नहीं है, दोपकी कोटि इससे विलक्षण होती हैं । शंकादोपवाले मनुष्यकों सम्यक्त मलिन नहीं होता है नष्ट नहीं
व
होता है । और इस प्रकारकी शंका कर समालोचना
करनेवाले
मनुष्यका हृदय मिथ्यात्वकी दुर्वासना के कारण अनर्गल रूपले दृढ मिथ्यात्वरूप होना है भले ही चाहे वह अपनेको जैन कहते ना रहे या जैनत्त्र बननेका मिथ्या ढिढोरा पीटता रहे अथवा जैनकु जानका नाद बजाता रहे परन्तु वह तीव्र मिध्यात्वी है ।
कित
हों
इसीप्रकार अनुपगूहन दोष के स्वरूपमें विचार करना होगा । अपगृहन अगका अर्थ यह है कि किसी असमर्थ या अज्ञानो मनुयसे धर्म या चारित्र में ऐसा दूषण लग गया हो जिससे जैनधर्म कलकित होता हो या धर्मकी हंसी हो तो उस मनुष्यके दोपको ढक देना यह उपगूहन अंग है । इससे विपरीत सा । भाईके या संयमी जनोके दोपोंको प्रकट करना यह दोष है मल है इस दोष या मलके स्वरूप में इतना हो वक्तव्य है कि संयमी या साम भाई यदि कोई दोष लग गया हो तो उसको एक चार समझाना चाहिये इस प्रकार तीन चार वारकं समझानेपर भो वह अपने दोषको न छोडे ऋजु परिणाम न करें और सरलासे धर्मकी विशुद्धि धारण न करे तो समाजको धर्म की रक्षा के लिये उसके दोषको प्रस्ट कर देना चाहिये उसको धर्म ठा समा जाति और धर्ममैंले निकाल देना चाहिये ।
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जी
और फर्म-विचार ।
[१४५
_ यतमान समयमें कितने हा विश्वास नाके लाभा मेवारी. पदको पलंफित करनेवाले इसी प्रकार धर्मको आहमें छपे सुपे । धर्मको फलकिन करने के कार्य करते है, धमकी होनासारसा विधवाविवाह बादि द्वारा करते है और समझाने पर मो मानते नहीं, उनकी पोलको भ्रम और समाजकी रक्षाके लिये प्रकट परदेना चाहिये। समाजमे ऐसे मनुप्याँको (धर्मठगोंकी) रोटी नहीं देना चाहिये समाजमसे बहिष्कारको घोषणा फरदेनी चाहिये कारण ऐसे लोग देव-गुरु-शास्त्र और धर्मका अवर्णवाद करनेवाले घोर मिथ्यात्वी नार समाजका पूरा अहित करनेशले है। इस प्रकार पच्चीस दाप सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे होते है परन्तु सम्ययत्व भाव तागापाग पूर्णरूपसे घनेरहते हैं।
समस्त फर्मामें मोहनाकमहा घलयान है समस्न फर्मों का राजा है। समस्त कर्मों की शक्ति मोहनोकर्मके उदय होनेपर ही होती है । जो मोहनीफर्म नष्ट होजाय तो अवशेष समस्त फर्म स्वय. मेव नए हो जाते हैं। समस्त कमौका जोर मोहनीकर्मके उद्यो ही है। मोहनीकम से दर्शनमोहनी कम पहुनही दुष्ट है मारो संसार दर्शनमोहनीकमके उदयमें ही अननसंसार भ्रमण करता है जन्म मरणका दुःख दर्शनमोहनीकमके उदयमें ही है । इसलिये समस्त प्रकारके प्रयत्नोसे दर्शनमाहनीकर्म (मिथ्यात्व)को त्याग करना चाहिए। मिथ्यात्वके समान कोई भी शत्रु नहीं है। मध्यात्वके समान अन्यकोई दुःखका प्रदान करनेवाला नहीं है। और संसारमें परिभ्रमणका कारण नहीं है। इसी बातका महत्व
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जीव और कर्म-दिवार।
कार्य कुन्दकुन्दस्वामीने श्रीपाइलीलें कहा है किएंडन भट्टा महादसण भट्टाण पदिय लिया, सिझति चरिप महा सणभट्टाण सिझति । भर्गव, सम्रदर्शनसे भ्रष्ट हुए मिथ्यात्थियोंका उद्धार नहीं है।
चारित्रमोहनी हर्मल भेद। जो धर्म आत्माले चारित्रशुपको बात करे उसको मोहनी. को कहते हैं। चारित्रमोहनीम दो प्रकार है--फपायवारिज मोहनी और अफपार्यकारित्र मोहनी। पाय चारित्रमोहनीके १६ भेद हैं और अपापचारित्रमोहनी पर्वले भेद है। इस प्रकार चारित्रमोहनो धर्म २५ भेद है।
अनंतानुवंधी उपाय-को फर्म अनंत मिथ्यात्वको उत्पा फरे या अनंतश्वको अनुसंध कर उसको अनंतानुबंधी कहते हैं
और कयाण शब्दका मर्ष जो यात्माके भाव आत्माफे झानादि गुणोंको शहरे, गट पर अपना धर्मक्षेत्रको कश कर यो के उत्तमक्षमादि धर्मको म ने उसको फघाय कहते हैं।
जो अनंत पिध्यात्यको उत्पनकर मात्माके उत्तमक्षमादि धमाका हश घरेशात्मा उत्तमक्षमादि धर्म प्रकट नहीं होने देवे अथवा त संसारको बढ़ानेवाला बंध करे। आत्माके परिणा. सोने तो मोसा रंग चढ़ा देवे जिससे भात्मा सपने स्वरूपकोही शत नहीं हो। गात्म विपरीत सावोंको धारण कर देवे,. ऐली कपायको अनंतानुबंधीरूपार कहते हैं। यह कषायमी सम्य. ग्दर्शनका घात कर देती है।
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नोव और फर्म- विचार ।
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कषायोंमें भनंतानुबंधी काय महाविषम है। संसारी प्राणी इस कषायके चश होकर सम्यक्त्वले च्युत हो जाता है, आत्माके सरूपसे गिर जाता है । यतो कषाय मात्र दुःखदायी है परन्तु सबसे विषस कषाय अनंतानुबंधी है ।
इस कषायके संबंध से आत्मा के परिणामोंमें
करता अहंता (अभिमान) विषम मायाचारी और तीव्रतर लोभ होता है । अतानुबंधो कोधसे आत्मा के परिणाम भयंकर होजाते हैं और उसके आवेशमें आकर आत्मा अपनी और दूसरे अनंतजीयोंकी हिंसा एक क्षणमें करलेता है । अपने शांत और क्षमा स्वभाचको भूलकर संतप्त हो जाता है विचार शक्तिको खो बैठता है । विवेकको भूल जाता है और अपने आपे से बाहर होकर हिंसादिक्रूरकर्म करने १ है । इस प्रकार अनंनानुबंधी कषायका बंध अनत संसार पर्यंत चला जाता है और तबतक आत्माके स्वरूपाचरण चारित्रको नाश करदेता है ।
अनंतानुबंधी कषायका परिणमन दो प्रकार होता है । सबसे मुख्य परिणमन ( रस विपाक) जीवको मिथ्याभावका प्रादुर्भाव होना और दूसरा परिणमन चारित्रको घात करना । इसपरिणमन आत्माके सम्यक्त्व गुण और चारित्र
प्रकार इस
गुणका घात करना है ।
वास्तविक विचार किया जाय तो अनंतानुबंधी कषायसे चारित्रगुणका ही घात होता है वह चारित्र स्वरूपावरण चारित्र है.। स्वरुपाचरण चारित्रका अर्थ आत्मस्वरूपकी प्राप्ति करें तो वह
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१५६] जीव और कम-विचार । स्यत्वक रूपमें समावेश होगा। क्योंकि सम्यक्त्वगुणसे भी शत्लखकएकाही प्रकाश होता है समग्दर्शन के प्रभावसे आत्माके खझपका श्रद्धान आत्माको होता, मात्माका स्वरूप - पुद्गलादि द्रव्यले पृथक् ज्ञानदर्शनमय है प्रकारको प्रतीति सम्यग्दर्शनके प्रमावसे आत्माको हो जाती है। इसीलिये सम्यग्दृष्टी जीव स्व में रुचि करता है और परको भिन्न मानता है। अपनी आत्माका स्वास सिद्धोंके समान पर-पदार्थसे सर्वथा भिन्न प्रतीति, करने लगता है इसप्रकार पर पदार्थलें भिन्न शानदर्शनलय आत्माका स्वरूप है। और उस स्वरूपमें स्थिर होना वही स्वरूपाचरण चारित्र है। - अनंतानुबंधी कपायके उद्यले जव स्वरूपाचरण चारित्र नष्ट हो जाता है । तब सम्यग्दर्शन आत्मामें किस प्रकार स्थिर रह सकता है। व्योंकि स्वरूपावरण चारित्र और सम्यग्दर्शनका इन दोनोंका अविनामावविध है और एक अभिन्न रूप अखंडपदार्थे है इस दृष्टिसे परहो लक्ष है. एकही पदार्थ है और एकही वस्तु है। मात्र वकन्यकी अपेक्षा दो प्रकार है । ज्ञानदृष्टिसे चारित्रगुणकी अपेक्षा विचार किया जाय तो वह स्वरूपावरण चारित्र चारित्रअंशमें ग्रहण होगा, सम्यगदर्शनले पृथक् चारित्रगुणका ( आत्मस्वसावर स्थिरता रूप) फरेला और सम्यगदर्शनका विचार किया जाए तो स्वरूपाचरण आत्माका स्वरूप होनेसे
आत्याकाही गए है और आत्माका रूपही सम्यग्दर्शन है। आत्मज्ञपकी रुचि, यात्मरूपकी प्रतीति, आत्मरूपको श्रद्धाही सभ्यग्दर्शन है । आत्साही श्रद्धा जिस भाव रूप हुई है और जिस
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जोच और फर्म-विवार ।
[ १४७ स्वरूपमें स्थिर है उसको ज्ञानके द्वारा प्रकट करना अथवा जानना अनुभवमें लाना वह सम्यग्ज्ञान है ।
सम्यग्दर्शनादि समस्त गुणका वक्तव्य ज्ञानगुण द्वाराहो होता है इसलिये सम्यग्दर्शन सम्यग्यान और सम्यक्वारित्र ये तीनोंदी कथंचित् एक लक्षको ग्रहण करलेते हैं । परन्तु उसका प्रकाश वक्तव्य द्वारा तीन प्रकार हो जाता है फिर सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और चारित्र ये तीनों गुण भिन्न है। तीनोंदी गुण एक साथ प्रकट होते हैं इसलिये नीनों गुणोंका परस्पर सहचर भाव है पृथकता है | अभिन्नता है ।
जिम समय मिध्यात्वभाव दूर होता है उसी समय मात्मामें सम्यग्दर्शन गुण प्रकट हो जाता है । और सम्यग्दर्शन के प्रकट होनेसे आत्माका मानगुण ( जो प्रथम मिध्यात्वके योग से विपरीत परिणमन फरा रहा था, भावार्थ - मिथ्यात्व के योग से छानगुणमें विपरोत प्रतिभास हो रहा था वह ज्ञान मिध्यात्वभावके दूर होने पर ) शुद्ध परिणमन ( प्रतिभास) करने लगता है । सभ्यग्दर्शन के साथही स्वरूपाचरण चारित्र होता है क्योंकि अनंतानुबंधी कपायके क्षय क्षयोपशम या उपशमके साथ साथ दर्शनमोहनीका क्षय या उपशम होनेसे प्रकट होता है इसलिये सम्यग् - दर्शनके साथ २ सम्यक् चारित्रका होना आवश्यंभावी है। इसप्रकार सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों गुणों का प्रकाश एक साथही होता है । इसलिये तीनोंको कथंचित् एकरूप कह सके हैं। वास्तविक तीनों गुण भिन्न भिन्न हैं । और
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गुणोंके प्रकट होने के कारण शनि भिन्न भिन्न है । सम्यग्दर्श वर्क प्रकट होनेका कारण शिव्या अभाव है सम्यग्दर्शनके लाय २हानावरणी फर्मका योभयानफा सानुबंधी कषायका
है और
मिथ्यात्व के अभाव के साथ साथ
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दर्शन
या क्षय ) स्वरुपाचरणचारित्रका कारण है । ६ मिथ्यात्वका अभाव मध्धा भतानुरंधीका असाव सम्यगृहान और सम्यकूलानिके लिये धूल कारण है । अनंतानुवधी रोजिए क्रोधका उदय पाषाणकी रेखाके समान वर मी न हो तर मी कोधका उदय बना रहे। के समान कई भक्त उस क्रोध ( वैर) की वासना नष्ट न हो | दरार उतार जाज्वल्यमान रहे । वाणिक्यके लमान पिवद स्वरूपको धारण कर सत्यानाश करनेको दान गरे। अथवा मधुपिंगल राजा के समाग तर सगर राजा और सुलहाके साथ में मिथ्यात्वका प्रचार किरण पशुयशकं सर्वतजीवों का नाश किया) भवांतर में भी
सर्वकर कोध (
वैर भाव रखकर
प्रवृत्ति का
अनंत संसार में भ्रमण कराता है।
जीव और फर्म- शिवार ।
I
ち
लागीरी रेखा एकवार होजाने पर बहुत समय व्यतीत हो पर भी सहसा नष्ट नहीं होती है । इसीप्रकार अनंतानुबंधी क्रोध का उदय होजाने पर उसका वेव रहुत फाल- पर्यंत बना रहत है । अनेक भव- पर्यंत उसका नावे नष्ट नहीं होता है ।
3
- इस प्रकारका शोध मिध्यात्वका उदय. कराता है। और मा
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गोव और वर्म-विवार।
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स्माके गुणोंको बहुन कालपर्यंत साचादित करे रहता । मोरमापर उसका असर भी तोपतर होता है जिससे आत्माके परिणामोंमें मू भाव देव जाग्रत पना रहता है। ऐसे क्रोधसे संयम मौर सदावारके कार्य सर्वधा नहीं होते हैं किंतु धैर-भाव मत्सर-पासलद द्व-लसाई मार फाट-हिंसा, जीववध-आर्त रोड परिणाम और तीन यातना भात्माले परिणामोंमें बनी रहती है। __ मनंतानुबंधी शोधके उदय असत् प्रवृत्ति, हिसामय धर्मकी भावना, मांस मद्य मधुमक्षण और निध लावरण जीवके हो जाते हैं।
जीवोंके चधमें यह सुख मानता है, जीववध वह अपनी मलाई मानता है और जीवश्वधमें वह भात्मक्ल्याण समझता है।
मनंतानुबंधी मान-जिस मानका उदय पर्वतके स्तम समान भवांतरमें भी नष्ट न हो। अधिक कालपर्यंत बसाही घमंड बना रहे वह अनंतानुबंधी मान बहा जाता है।
पर्वतका स्तम जिस प्रकार नम्रीभूत नहीं होता है, प्रयत्न करनेपरमी नम्रताको प्राप्त नहीं होता है ठीक इसी प्रकार अनं. हानुबंधी मान भी अनुनय विनय और नन्न प्रार्थना करनेपरमी मात्माके परिणामोंसे मानका अंश नाशको प्राप्त नहीं हो-अनेक जन्मांतर पर्यंत वैसाही मानका उदय मना रहे। मनमें कोमलता प्राप्त न हो वह अनंतानुबंधो मान है।
भनंतानुबंधी मानसे जीव ऐसे कृत्य करता है कि जिससे
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जोव और संधिवार ।
धर्मके कृत्यों में वाधा हो जाती है। धर्म और अनीतिका प्रचार
से मानकर्मके उदयसे प्रायः होता है। - संसारमें समस्त प्रकार से अनर्थोकी, जड ऐसा मान करना है। - रावणके सर्वख,नाश करने पर भी मानका अंश नष्ट नहीं
गा। अनंतानुबंधी कषायके उदय होनेपर जीव पाप के कार्योंका झी प्रचार करता है। धर्मकी महिमाका नाश करता है, सदावारकी पवित्रताके लोपका ही प्रयत्न करता है।
मान कषायके वशसे जीव शरीर ओर शरीरके सुंदर रूपको हो जात्मा मानकर ससफो ही सर्वोत्कृष्ट सबसे महत्वशाली समझ कर अपनाता है। और उसके लिये सर्व प्रकारको वक्रता धारण करता है । सर्वश्रेष्ठ मानता है। इसप्रकार परपदार्थको ही भा.. हमा समझकर मात गैद्र परिणामोको प्राप्त होता है।
अनंतानुवधी मानसे जीव अनंन जीवोंका बंध-व्यभिचार मान्याय-दुर्नीति जोरजुल्म-अत्याचार और अनेक प्रकारकी आपदा को ऐसा करता है जिससे कि अपना और परमाणीका नाश कर
• बाहु मुनिको ऐसा अभिमान हुना था कि इस दुष्ट ,राजाने अपनी गज्य-सत्ताक मिसानमें पारसौ मुनिको धानीमें पेल दिया है देखें मेरे सामने उसका यह अभिमान कैसे रहता है ऐसा सपने मनमें तिमानकर बाहुमुनि उस राजाकी राजधानी (नगर),
ये और रोजाके स्वभावसे मानको प्राप्त हो क्रोधांध होगये विससे राजा प्रजा और अपना नाशकर यंतमें सातवें नरफरौरव
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जीव और कर्म-विचार। [१५१ पिलमें गये। ___ इसलिये यह मान आत्माके संयम और सम्यग्दर्शनका नाशकर
आत्माके गुणोंका घातकर आत्माको अनंत संसारी बनाता है। - मानके आठ भेद है। कुल १ जाति २ ज्ञान प्रतिष्ठा ४ वल ५ मृद्धि तप ७ और शरीर ८ की सुदरता इन आठ कारणोंसे आत्मा अभिमान धारण कर अपनेको श्रेष्ट मानता है। पर-पदा.
श्रित होनेवाली पर्यायोंमें मात्मवुद्धिको धारणाकर उस पर पदार्थकी पर्यायको श्रेष्ठ मानना यह मिथ्यारुचि है, मिथ्याज्ञानका परिणमन है। इस प्रकारक मिथ्यापरिणमनसे जीवोंको सद्विचार विवेक नीति और धर्ममर्यादाका ज्ञान नहीं रहता है, हताहित मार्गका ज्ञान नष्ट हो जाता है, धर्म अधर्मकी पहिचान नहीं होती है, भलाई बुराईका विवेक नही रहता है।
अनंतानुबंधी माया-इस मायाकर्मके उदयसे जीव वंशके मूल समान (जिस प्रकार वास (वेणु) की वक्रता बहुत ही जटिल होती है, परिणामोंकी वक्रता कुटिलता विश्वासघातहाको नहीं छोडता है। परिणामों में सरलताको प्राप्त नहीं होता है वह अनंतानुबंधी माया कषाय है।
. चंशकी वक्रता संसारमें प्रसिद्ध है। भूलभुलैयाके वकको मनुख्य समझ सक्ता है और प्रयत्न करने पर उस वक्रताको दूर कर • सका है। परंतु वंशके मूलकी स्वाभाविक वकता किसीप्रकार नष्ट नहीं होती है। ऐसे ही जो मायाचारी जन्मांतरमें भी अपनी चक्रताको नहीं छोड़-परिणामोंकी कुटिलता-पाप प्रवृत्ति और
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तोच और कार्य-विवार
सरो मोदी जोडे घह मनंतानुबंधी माया कषाय । ____ाराको शल्य माना है। मायाशल्यले सम्यादर्शन और संयम.
पोनों ही सहसा नष्ट होजाते हैं।
पता ही नहीं किंतु माया फवायके प्रभावसे यात्माके परि. पाम सदैव कलुषित-दुष्टभावोंसे मलिन और अंतरंग भावों. की दुर्च खिसे एकदम काले बने रहते है। ___परिणामोंकी गति विलक्षण होतो है उसका ज्ञान सर्वक्ष मग. वानको ही होता है। दूसरे छजस्थ जीव दूसरे जीवोंके परिणामों. की गतिको जान नहीं लत है। ग्यारह मंग और नौपूर्वका पाठी भन्यसेन मुनि कैसा ज्ञानी था-उसके शानकी महिमा सर्वत्र प्रसिद्ध थी। भगवान फुदकुद स्वामी (जो कालिकालमें लाक्षात् तीर्थंकर तुल्य माने जाते हैं) के समयमें एक अंगका भी शान किसी को नहीं था तो ११ अंग और नव-पूर्वका पूर्ण ज्ञान होना कितनी ज्ञानकी उत्कृष्टता है। परंतु ऐसा ज्ञानी मन्यसेत मुनि अनंतानुवंधी मायाकषायके से अनंत संसारी हुगा। उसके मायाचारके कुकृत्योंसे वह समयसेन संशाको प्राप्त हुआ।
क्रोध और मान यह ज्वलंत कपाय है परंतु मायाकषाय यह पानीकी याग्नि है क्रोध और मानसे सो मायालयायक्षा परिणाम गति विषम है। मायापपायके परिणामों में एक प्रकारका ऐसा चिट है जो शरीर और इन्द्रियों कुछ भी विचार नहीं कर केवल सा मात्मायो भागेल ही भू माधको लादेता है जिससे मनुष्य स्व-पश्लेिशको भूल पाता है।
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जीव और कर्म विचार।
ही श्रद्धा सर्वथा नहीं है। इसलिये अनंतानुबन्धी माया अनंत . संसारको ही वहानेवाली है।
अनतानुवधी लोम-यह कपाय कृमि रागके समान मनुष्यको पर-पदार्थके लोभमें विवेकहीन बना देती हैं अनंतानुवन्धी लोम मायके उदयसे जीवोंके परिणाम मिध्यात्वभावमें रंगित रहते हैं । अनतानुबन्धी लाभ यह मिथ्यात्वकी एश प्रकारकी पर्याय है। जिस जीवके मिथ्यात्वका उदय होता है उसके अनतानुबंधी लोभ. का अवश्य ही उदए है अथवा जिसके अनंतानुवधी लोभका उदय हैं उसके मिथयात्वझी सन्मुखता है। जीवोंके समत्वपरिणाम (परपदार्थ में अहधुद्धि) अनंतानुबन्धी कषायके रदयसे निरंतर बनेही रहते हैं। • जिस प्रकार वस्त्रको रंगनेकेलिये कृमिका (हिरमिजीका) रंग चढ़ा दिया जाय तो वह रंग पका हो जाता है। धोनेपर भी नहीं जाता है । वस्त्रको अंतिम अवस्था पर्यंत रहता है इसीप्रकार अनं. तानुवन्धी लोभ अनेक भवांतर पर्यंत भी अपनी वासनाको नहीं छोड़ता है।
रागद्वेष दोनोंमेले असल ए हो राग शुख्य माना है। रागको ही मिथ्यात्व कहा है और नागको ही जीतनेपर वीत. राग अवस्था प्राप्त होती है। रागको होष प्रतिपक्षी है। एक धस्तुमें गग किया जाय तो इतर वस्तुमें द्वैप अपने आप हो जाता है। पसलिये एक राग ही लमस्त संसारक रंधका कारण माना गया है रागको ही लोस कहते हैं।
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ata मोर सर्म-वार /
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अनंतानुवन्धी लोम फपायके उदयसे यह जीव शरीर धन संपत्तिमे बहंदि धारणकर यह मेरा यह मेरा यह मेरा इस प्रकार मेरे भावको धारणकर शरीर धन संपत्ति के दिये घोर हिंसा करता है झूठ बोलना है । वोरो करना है। पस्त्री सेवन करना है और पापादिक सार कार्य में ममय करता है इस प्रकार सम पापका मूल एक लोभक्याय दी है। "लोभ मूलानि पापानि” समस्त पापोंका मूल लोभ दी है। नंत्यन गृद्ध लोभके अधीन होकर धर्म कर्मको प्रत्यक्ष मनुष्य भूल जाता है भाई पन्धु और माता पिता गुरुजनों को दुश्मन मान देता है, आत शेत्र परिणाम करता है, अग्निमें पढता है। शुद्ध लड़कर मरता है, समुद्र गिरता है। आकाशमें उड़ता है और विषम आपत्तियों को प्राप्त होना है ऐसा कोई भी पापकार्य नहीं है जिनको लोभी मनुष्य नहीं करता है ।
जगतमें घेर विरोध विश्वासघात अन्याय और जोरजुल्म सब लोकपाय वशीभूत हो करना पड़ता है परन्तु सबसे भयंकर लोभ यह है उसे प्राणी धर्म ओर मदावारको छोड़कर स्वयं अधर्ममें पापकार्यो में मस्त हो जाय व अन्य जीवोंको धर्ममार्ग छुडाकर अधर्ममें लगा देवे 1 कुदेव कुशास्त्र और कुगुरु की प्रोति करा देवे ।
(
आज कितने ही सुधारक लोभके वशीभूत होकर धर्मको ही नहीं छोड़ते हैं किन्तु मिथ्याधमको स्वयं सेवन करने लग जाते है कुशास्त्रोंको सत्य मानने लग जाते हैं और सत्यशास्त्रों क
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লী
৫ জাষ্ট্র-ভিসা।
सिध्या या लग जाते हैं। बिलायती विद्यालोंके सामने में.
चनोको सिख्यामानने लग जाते हैं यह सब लोभका है परिणाम है।
कितने ही पंटार्थ पंडित नटनी के समान जिधर रोटी उधर ही गीत गाने लाते हैं। धर्मको टका रोचते फिरते हैं। हफा लिये वे सत्यधर्मकी निंदा करते हैं और विध्याधर्मको लत्य मानने लगते है यह लोग मतानुवन्धी लोभ ही है। ___ जो मनुष्य लोभकेलिये हिलामें धर्म पतलाचे, झूठ बोलने में धर्म बतलावे, व्यभिचागमें धर्म पतलाचे, सभक्षणमें धर्म बत. लावे, निंध माचरणों में धर्म पतलावे। सपकार अनीति और असक्षाचरणको सो मनुष्य धर्म कहकर भोले भाइपोको पापकुडमें पटके वह सप अन्तानुसन्धी लोभ है।
सुधारक लोगोंने धर्मको एक प्रकारको विचारमाना है जिस विचारसे धन सम्पत्ति प्रतिष्ठा और यश मिले वही सध्या धर्म
सकारके विधारसे धर्माधर्मकी परीक्षा किये बिना ही कुसाको धर्म मानकर (धन सम्पत्तिकी प्राप्तिको आशा) बढाई पूर्वक लेवन करने लग जाते हैं और दूसरे जीनोमो युक्ति प्रयुक्ति द्वारा बड़े प्रलोभन देकर कुमार्गमें पटक देते है यह अनंतानुवन्धी लोभकी महिमा है।
अप्रत्याख्यानावरण चारित्रमोहनीकर्म जिस मायके लदयले जीव देशसंयम (लामासंयन)को धारण नहीं कर सके। परिणामों में ऐसी विशुद्धता भात नहीं हो जिससे
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___ जीव सौर फर्म विचार। [१५. पापापासरण या रसदाचार रोफफर देशसंयमझे योग्य प्रमा.
भारण फर नहीं सका है। संपमका सर्य गशुमसे निवृत्ति और शुभमे प्रवृति प पत. नाता है। जिस फपायके उदयसे ऐसा स्यूल संपम धारण नहीं सके मोर उसके योग्य भावों में विशुद्धता प्राप्त न हो सके।
मप्रत्यारपान फोध-जिमके उदयले जीव एलरेखाफे समान कोषको प्राप्त हो घद यप्रत्याख्यान फ्रोध है।
जिसप्रकार इलझी रेखा कुछफाल में नष्ट हो जाती है। यहुत काल पर्यंत नहीं ठहरती है। इसी प्रकार अप्रत्यास्थान फ्रोध कुछ काल पर्यंत जीवोंको अपना संस्कार रतलाता है। भवांतरमें उसकोधफा संस्कार नहीं होता है।
अप्रत्याख्यान क्रोधः उदयसे भी जीव युद्ध करता है धेर. माव धारण करता है। गृहन्यधर्मके योग्य आरंभ करता है पलह करता है परन्तु उसका क्रोध नीति मर्यादाको नहीं छोड. साहै। धर्म-मर्यादा उलंघन तहीं करता है वह जीववध धर्म नहीं मानता है। मध मास मधुका सेवन नहीं फरता है इस. प्रकार अनंतानुबन्धी फोध और अप्रत्याख्यान क्रोधमें बहुत मारी भेद है। इस क्रोधफे उदयसे सम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होता है किंतु - नए हो जाता है। कभी कभी पाक्षिक श्रापकके योग्य संयमको पालन नहीं कर सका है।
अप्रत्याख्यान मान-जिसके उदयसे जीव हाडके समान मानको प्राप्त होता है उसको अप्रत्याख्यान मान कहते हैं।
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जीव और कर्म-विवारी। हाडका स्तंम जिस प्रकार प्रयत्नपूर्वक नम्न हो जाता है बहुत काल पयत उसका बल नहीं रहता है। इसीप्रकार अप्र. त्याख्यात मान कितने ही कारणकलापोंसे उदयको प्राप्त होता है तो भी नीतिका समय आ जानेपर वह मानको छोड़ देता है। भवातरफ नहीं जाता है।
अप्रत्याख्यान सान-~-शरीर, धन, ऐश्वर्य, विद्या,कुल जातिमें स्वात्मवुद्धिरूप अभिमान नहीं रखता है. स्वात्मवुद्धिका रखना यह अलिमान शरीरादिको स्वात्मरूप मानना है। जिनको परपदार्थमें अभिमानके वश खात्मबोध हुआ है ऐसे अभिमानसे वे सम्यग्दर्शनको खो बैठते हैं परन्तु अप्रत्याख्यान मान इतनी तीव्रता नहीं रखता है, आत्मपरिणामोंमें इतनी फलुपिन वृत्ति नहीं करता है। अपने भावोंमे जडपदार्थों को आत्मरूप माननेका मिथ्याभिमान रखकर जडपदार्थों को अपनाता नहीं है। जडपदार्थोकी सुन्दरता या असुन्दरताको आत्माकी सुन्दरता या असुन्दरता नहीं मानता है। इस प्रकार अभिमान रखकर भी अप्रत्याख्यन मानकर्म आत्म... श्रद्धाको धारणकर परको पर और आत्माको खात्मरूप मानकर जीवोंकी दयाका भाव रखना है।
अप्रत्याख्यान माया-जिलके उदयसे मेष (मैंढाके) श्रृंगके लमान मायाप परिणाम हो वह अप्रत्याख्यानमाया कषाय है।
सेपका लीग स्वभावलेहो वक होता है। ऋनुना उसमें स्वभाव रूपले नही होती है तो भी प्रयत्न करनेपर वह मृनुभावको धारणकर सका है और विशेष प्रयत्न किया जाय तो वह वक्रमावको शीघ्र.
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___ जोव और कर्म-विचार। [१५९ ही छोड़ सकता है धेशके मूल समान वक्रता इसमें नहीं रहती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानमाया कषायमें । इतनी तीन माया नहीं होती है। जो आत्माके परिणामोंमे सरलताका भाव जाग्रत ही नहीं होने दे। इस मायासे परिणमोंमें इतनी विशुद्धताका नाश नहीं होता है जिससे वह जडपदार्थको ही आत्मा समझकर वास्तविकरूपसे आत्माको समझे ही नहीं और जब शरीरआदिको पुष्टि या विषयवासनाको ही मात्मसुख मानकर मायाचारकी धारण करे। अप्रत्याख्यान मायावार जीवोंको कलुषित तो करता है । व्रतादिकोंको धारण करने में कमी कमी अपनी कायरता प्रदर्शित. कर देता है। और लोकव्यवहारमें मायाचारसे अपना काम भी निकाल लेता है। तो भी नीतिके घातको वह योग्य नहीं समझता है। भावांतरमें जाने लायक आत्माके परिणाममें मायावारके भावनहीं रखता है
अप्रत्याख्यान लोभ-जिस फपायके उदयसे कजलके रंगके समान मात्माके परिणामांमें लोभकषायको नापति हो वह अप्रत्याख्यानलोम-कषाय है।
फजलका रग, कृमिरंगके समान गादा नहीं है अधिक समय पर्यत असर नहीं रखता है कुछ समय बाद निकल जाता है। ठीक इसी प्रकार अप्रत्याख्यान लोभ आत्माके परिणामोंको ऐसा नही रंगता है जिससे कि जडपदार्थमें आत्माका लोभ या स्वात्मरूप परिणाम अथवा ऐसा रागभाव हो। किंतु धनादिक संपत्तिको प्राप्तकर अपने जीवन साधनको निरावाध बनानेका प्रयत्न करता
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सोच और पार्स-विवार। है उसका त्याग - उससे किंचित्पात्र सा नहीं हैं। स्यागवुद्धिके परिणाम भी नहीं होते हैं। तो भी अनीमिसे, इस प्रकार आनदित नहीं होता है कि आत्मसुखक्षी प्रीति हो।
अप्रत्याख्यान लोभ भघातरमें जानेलायक होमनम् सपोर. को उदय नहीं करता है । तोभी बाह्य पदाको ममता असाधारण होता है । यएलेको उनसे मित्र जानता हुआ मी उन रुचि (राग) फरता है। परिणाफी ऐली ही खूटी होती है।
. अत्याख्यानलपाय __ जिस लायके उदयसे जीवोंके परिणाम महारतके धारण फरले योग्य नहीं होते हैं।
प्रत्याख्यानक्रोध-जिस बायके उदयसे वालुकाली रेखाके सलामोध हो-वह प्रत्याख्यानकोर कपाय है। लिसप्रकार वालुकामी रेखा स्वल्प समयमें नाश हो जाती है. अधिक समय तक नहीं रहती है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानकोर कषायके परिणाम स्वरूप-सालय पर्यत रहते हैं। उन परिणाम में जोवरश करनेकी भावना सर्वथा नहीं होनी है यदावारसे लास्तजीवों. की त्या पाल करता है अलक्षार अनीति-फुत्सित आचार विचार-और जिनधर्म विरुद्ध मलिनाधारको उत्पन्न करनेवाले क्रोधके भाव साल में नहीं रहते हैं। परिणाम विशुद्धता रहती है मोधका उदय होनेपरमी संकल्पभावसं जीवोंको नहीं मारता हैन ऐसा वैरभाव धारण करता है जिससे संकल्पपूर्वक जीवोडा वध करना थडे पा जैनधर्मके विरुद्ध मलिलावार धारण करना
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जीव भोर कर्म-विचार । १६५ पहे तो भी बोधके परिणाम होते हैं। और उससे नार खान मादि कि ा भी करता यह प्रत्यारत कोध।
प्रत्याख्यानमान-जिस उदयले बोवलकड़ी के समान मानक'यायको प्राप्त हो वह प्रत्याहयानमान रूपाय है। जिस प्रकार लकड़ी __ सहज प्रयत्न कनेपर नम हो जाय-मधिक समय तक नहीं ठहरे । जिस मान उदास जीव सर्व जीववधका प्रत्यागन नहीं कर सके। और आत्माले परिणामोंमें रेला अभिमान न हो कि निसले नोति मर्यादा, धर्म मर्यादा और संचमको मर्यादाक्षा सर्वथा लोपकर देवे।
प्रत्यख्यान माया-जिसके उदयसे जीव गोमूत्रके समान सायामानानो प्राप्त हो । __ इस मायाचार भावले जीव मुनिव्रतके चारित्र धारण करने में अलाई होता है। परन्तु हस्थके योग्य देशव्रत पूर्णरूपसे धारण कर सका है।
यपि मायापाय परिणामोंमें वक्रता उत्पन्न करता है और उसरे परिणामों की जुना प्राप्त नहीं है सरलता नहीं है। उतनी विचन्हों है जितले महात्र धारण करने योग्य अपनी आत्मा. -को बना सके। ___ मायाचार पायले डोंगरूर दारित्रको धारण होता हो। ऐसा मानेकी जपत नहीं है। मायाशल्य और मायाफपायमें यहुत ही भेद है। मायाक्षाय (प्रत्याख्यान माया कषाय)का उदय शल्यके समान व्रतोंमें ढोंगको प्राप्त नहीं करता है। किंतु
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जीव और कर्म-विचार ।
व्रतोंके अतिवारमादि विषयमें परिणामोंकी उतनी विशद्धता नहीं रखता है। कभी कभी प्रमादसावको प्राप्त कर देता है।
प्रत्याख्यानका संदोदय श्रावकके समस्त व्रतोंको सावधान रुपसे परिपूर्ण रूप पालनेके लिये समर्थ होता है।
माया (प्रत्याख्यान ) कषायके परिणाम भावोंकी वक्रतासे महावतके परिपालन करनेमें असमर्थ होता है।
प्रत्याख्यानलोभ-जिस कषायके उदयसे जीव कदमके समान लोभ परिणामको धारण करे, वह प्रत्याख्यानलोभकषाय है।
कदमको धो डालनेसे वस्त्र अपने शुद्ध स्वरूपको सहज प्राप्त हो जाता हैनधिक प्रयत्न करनेको आवश्यकता नहीं होती है। और न विशेषकालकी जरूरत है कदमका रंग स्वल्प समयमें स्वभावसे उड जाता है। इसी प्रकार जो कषाय निग्रंथरूप ( समस्त प्रकारके ममत्वभाव समस्त पदार्थों के सू रूप परिणाम) सबै प्रकारके परिग्रहत्यागरूप परिणामको नहीं होने देवे-वह प्रत्याख्यानलोभ. कषाय है।
असलमें चारित्रभावको ( वीतरागभावको) धारण नहीं कर देनेकी शकि एक लोमकषायमें है। लोभ कषायसे हो पर-पदार्थमें रागभाव होता है । प्रत्याख्यानलोभकषायका उदय जीवोंको परिग्रह शरीर और धन कुटुम्बादिकोंसे सर्वथा ममत्वभावका त्याग (ग्रन्यका त्य ग) नहीं होने देता है तोमो देशसंयमको
घात नहीं करता है। । परिणामोंमें विकृति-जितना लोभकपाय करता है। उतना
क्रोध-मान-माया कपाय नहीं करता है।
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जीव और धर्म-विवार। [१६३ संचलन कयाय-जिस कपायके उदयसे जीव संयमके साथ मंतरंग परिणामोंमें प्रमादादि दोषकद्वारा आत्मपरिणामोंको जलाने (संयमेन सह ज्वलंति संज्वलति) उसको संज्वलन कपाय कहते हैं।
अथवा जिस पायके उदय होनेपर यथारयात चारित्रका ज्वलन हो ययात्यात चारित्र प्रक्ट न हो वह संज्वलन कपाय है।
यधारयात चारित्रको हात करनेवाला संचलनकपाय है। मदावनादि धारण करने में किसी प्रकारकी याधा नहीं होती है तो भी कोको दलन करने में समर्थ ऐमा यथाख्यातचारित्रको प्राप्त नहीं होता है।
संचलन क्रोध-जिसके उदयसे परिणामों में जलरेखाके समान फ्रोध हो वह संचलनकोध है ।
जलमें रेखा करनेपर तत्काल नट हो जाती है। समय मात्र. कीभी देगे नहीं लगती है। इसी प्रकार जो कोधका उदय होने. पर शीत्र ही नष्ट हो जावे-मोर परिणामोंमें क्रोधकी वासना विशेष रसोत्पादक न हो। क्रोधके वशीभूत होकर अनिष्ट चितवन तक नहीं करे। क्रोधके वशीभूत होफर व्रत चारित्रको नष्ट नहीं कर देवे। महाव्रतमें किसी प्रकारकी न्यूनता धारण नहीं करे एवं परिणाममि जोर हिंसाके भाव-मृपालाप कुशीलभाव परिग्रहकी तृष्णा यादि दुर्भावोंको नहीं धारण करे उसको संचलन क्रोध कहते है तोभी संचलनक्रोधके उदयसे चारित्रमें प्रमाद उत्पन्न हो तथा ययाख्यातवारित्र (कर्मों को नाश करनेवाला) प्राप्त न हो उसको संज्वलनक्रोध महते हैं।
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१६४]
जीव और कर्म-विचार । -संज्वलनमान-जिसके उदयसे जीवोंके परिणामों में लताके समान मानवाषायको प्राप्त हो वह संस्खलन मान-कषाय है।
लताको नन्न करने में जरा भी देरी नहीं होती है लताको सरल करने में रचमानभी प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। तथा स्वल्पकाल का मी, व्यवधान नहीं होता है। इसी प्रकार संज्वलन मानक्षायकेउदयसे जीवोंके परिणामोंमें ऐसी कठोरता नहीं होती है जिसके वशीभूत होकर वह सर्व जीवोंकी दया पालन करना ही छोड देवे। या जीव-अधकारक मिथ्याभाषण कारे अथवा कुशील, सेवनके भाव करे । संज्वलन मानकषायके उदयसे परिणामोंमें प्रमाद होता है । परन्तु महाव्रतको सांगोपाग पालन करता है। मानकषायके परिणामोंसे किसीका अनिष्ट नहीं विचारला हैन' आत रौद्ररूप परिणामोको करता है। , संज्वलन माया-जिसके उदयसे जीवोंक परिणामों में धूलके समान वकता (कुटिलता) मायाचार हो वह संज्वलन मायाकषाय है।।
धूलीकी वक्रता हवा लगते ही नष्ट हो जाती है। इसीप्रकार जो मायाकषाय उदय आते ही तत्काल नष्ट हो जावे, परिणामोंमें विशेष विकृतिको उत्पन्न नहीं करे, यह संज्वलन मायाकषाय है।
संज्वलन मायाकषायके उदयसे जीवोंके परिणामोंमें इतनी विशुद्धि नहीं होती है जिससे वे यथाख्यातचारित्रको धारणा कर सकें। परंतु मायाकषायके उदयसे प्रमाद अवश्य होता है। महावतको पूर्णरूपसे पालन करता है। उसमें वह दोंग नहीं
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जीर भोर मयवार।
काना है, किसी मारामारले साये महायतका दोंग नहीं करता है किन्तु परिणामों यात्मपल्याणको मावनासे ही महारक्ष पालन करता है। वह मायावर परिणामोंसे किसीका अनिष्ट नहीं करता है, जीवषय नहीं करता है।
संचलन लोभ-जिमके उदयले जीयोंके परिणामों में हरिद्रारंगके समान लगेभकाया । जाग्रत हो वह संचलन लोम फापाय है।
हरिद्राका रंगशेत्र म ल पयंत नहीं रहता है और उसके दूर करने में निशेष प्रयत नहीं करना पड़ता है। इसीप्रकार जिस स्खलन लाभापायके उदयसे जीवोंके परिणामोंमें ऐसा लोम होता है कि जिससे यथारात नारिन नहीं होता है। ____ यद्यपि मागबमको सम्मलन लोभकपाय नष्ट नहीं करता है तथापि महावतके स्वत में मानमीक प्रमाद उत्पन्न करता है। रंग लोम पारका हो नहता है। मोध मान माया यादिसे परिणामों में इननी विकृति नही होती है जितनी कि लोभापायसे विकृति होती है। परिणाम में मूर्ध्वाभाय लोम-कपायके उदयसे ही होता है फिर भी केवल संचलनकपायके उदयमें अतिमंद फपाय हो जाती है।
असाय चारित्रमोहनी कर्म जिस फर्मके उदयसे जीवोंको अनंतानुबन्धी या प्रत्याख्यानानुवन्धी आदि फपायके उदयके समान परिणामोंमें विकृति उत्पन्न न हो, चारित्रको धात करनेवाले भाव नहीं हो किंतु जीवकि परिणामों में पायके समान ही विशेष विशेष शक्ति और भावों
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बीर और कम- विचार ।
विशेषता के परिणाम हों, जिससे आत्मा के परिणाम ति संय मका घात करे या गृहस्थचारित्र और भुनिवारित्रमें भी विक रुपता उत्पन्न करें उसको अकपायचारित्रमोहनी कर्म कहते हैं । कषायचारित्रमोहनी कर्मके भेद-क्रोध, मान, माया, लोभ जिसप्रकार चारित्रको धान करते हैं उसप्रकार अक्षाय चारित्र मोहनी धर्म चारित्रकी विशेष शक्ति नाश नहीं करता है तो भी आत्मा के परिणामों में ऐसी विशेषता अवश्य ही उत्पन्न कर देता है जिससे प्रमाद और पर- पदार्थ में रतिभाव कुछ न कुछ रूपमें अवश्य ही हो जाता है ।
ईषत् फ्पाय- नो रूपयको अकषाय कहते हैं। यदि अकषायचारित्र मोहनी कर्मका उदय अप्रत्याख्यानकषायके उदयके साथ हो तो भिन्नरूप कार्य होगा । परं पदार्थ में विशेष रागभाव होंगे और यदि प्रत्याख्यान स्पायके साथ साथ पायवारित्रमोह नीका उदय है तो पुस्तक शिष्यादिकमे रागभाव होगा इसी प्रकार यथाख्यातवारित्रके कुछ अंशोंमे धान यह अकपायचारित्र सोहनी धर्म कर सक्ता है ।
होस्पर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंके परिणामोंमें रागका । कारण हास्य उत्पन्न हो उसको हास्य कर्म कहते हैं ।
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हास्यकर्म से जोवोंको हँसी भाती हैं । हास्यसे रागभाव होते है, रागभावसे प्रमाद होता है। पर पदाथमें रुचि और द्वे पभाव भी होते हैं। लड़ाईकी जड़ हंसी होती हैं । हास्यकर्म ईपत् कपाय है परन्तु हास्य के साथ साथ अन्य कपाका उदय हो जावे और
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जीव और कर्म विचार।
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हास्यका एदय उमा निमित्त कारण हो जाये तो साधारण हास्य (अकयाय) फपायसे भी बड़े बडे विप्लव हो जाते हैं। .
जिसप्रकार यामी रोगको जड है उसीप्रकार हासी भी पायके उदयफी जड़ । इसलिये हंसी स्वतः तो इतनी हानि नहीं करती है परन्तु उसके उदयके लाथ कपायों (फोध-मान आदि) का उदय हो जाये तो अवश्य चारित्रमें हानि होनेकी संभावना रहती है। __पदार्थ के स्वरूपपा रसना यह एकप्रकारको अज्ञानता है, अज्ञा. नपूर्वक रागभायम हंसना यह अन्य कपाय मावोंको उदय करता है परन्तु पदार्थ वरूपको यथार्थ जानते हुए गगादिक भावोंको प्राप्त नहीं होकर हमनेले चारित्रया घात नहीं होना है। सभी कमी विचार पुरुषोंवो ससारकी दशा और जीवोंका। अज्ञान देवासी पानी है और यह हंसी संसारसे विरक्त भावोंको उत्पन्न करती हैं। इसलिये हास्यको ईपत् कपाय कहा है।
रतिकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंजो द्रव्य, क्षेत्र, काल भावके निमित्तसे पुद्गल स्कंधोंमें रतिभा हो वह रनिकर्म है।।
पुत्र-मित्र-धन धान्य भोगोपभोग और इतर पदार्थों में रागभाव प्रेमभावका होना तो द्रव्य रतिकर्म है। . . . ।
उत्तम उत्तमाक्षेत्र गृह वसतिका जिनालय और तीर्थ मादिमें रतिभाव होना सो क्षेत्ररतिकर्म है। । :
। -- सुखमय-शीतोष्णयाधा रहित प्रकृतिके अनुकूले कालमें रतिभाव होना सो कालरतिकर्म है।
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' अव और कर्म-विखार ।
शुभाशुभ- पदार्थोके सेवन करने योग्य भावोंमें रति होना सो भावरतिकर्म है ।
इस प्रकार रतिकर्म प्रेमभावको उत्पन्न करता है परन्तु दर्शन मोहनकर्मके समान पर पदार्थ में स्वात्म वृद्धि नहीं करता है। या भनंतानुमन्धी लोभकपायके समान संश्लेषरूप रागभाव नहीं होता है । अन्य पदार्थको अपनाना उसको आत्मरूप जानकर तन्मय होना ऐसा रागभाव रतिकर्मसे नहीं होता है वह कपायभाव या दर्शनमोहनी से विपरीतभाव होकर होता है ।
अरतिकर्म-जिसके उदयसे जीवोंको द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव आदिके द्वारा पदार्थोंमें भरतिभाव द्वे प्रभाव हो सो भरतिकर्म है ।
चिप शत्रु आदिमें द्वेष होना द्रव्यभरतिकर्म है । श्मशानभूमिआदि मलिन भूमिमें भरतिभाव होना सो क्षेत्रभरतिकर्म है। शीत या उष्णकालमें द्वेष होना सो कालभरतिकर्म है। तप ध्यानअध्ययन आदिके भावोंमें अति होना सो भाव भरतिकर्म हैं । शोककर्म - जिस कर्म के उदयसे जीवोंको शोक के परिणाम हों वह शोक है।
भयसंज्ञा - जिस कर्म के उदयसे जीवोंको भय होपरिणाम हों वह भयसंज्ञा है ।
'जुगुप्सा - जिसकर्मके उदयसे जीवोंको किसी पदार्थसे ग्लानि घृणा उत्पन्न हो वह जुगुप्सा अपाय -वारिश्रमोहनीकर्म है ।
स्त्रीवेद - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको परुषके साथ रमण करनेकी आकांक्षा हो यह स्त्रीवेद है
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जोव और कर्म- विचार ।
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पुरुषवेद -- जिस कर्मके उदयसे जीवोंको स्त्रियोंके साथ रमण परनेकी माकांक्षा हो वह पुरुषवेद है ।
नपुरसकवेद - जिस धर्मको उदय से जीवोंके परिणामोंमें ईंटकी अनि समान पुरुष और स्त्री दोनों के साथ रमण करनेकी माकांक्षा हो वह नपुंसक वेद है ।
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इस प्रकार मोहनीकर्मके २८ मेद है । समस्त कर्मो मोहनीकर्म ही बलवान है । समस्त कर्मोंका राजा है । समस्त कर्मो का बल मोहनी कर्मके उदयमें हा है । मोहनीफर्म के अभाव में कोई भी कर्म विशेष बाधा नहीं पहुंचाता है और कितनेही कर्म मोहनाकर्मके नाश होनेपर नाशका प्राप्त हो जाते हैं। इसलिये मोहनीकर्म हो समस्त कर्मोंमें बलवान है । दूसरे मोहनी कर्मका कुछ अंश - दर्शन मोहनीकर्मका उपशम या क्षयोपशम ही जब आप स्वरूपको प्रकट करदेता है, अनादि काल्के अज्ञानको भगा देता है और नत संसारका अंत ला देता है तो फिर इसकी (मोहनी कर्मकी) पूर्ण शक्तिका क्या अनुमान लगाया जाय ।
आयुकर्म
जिसप्रकार टहला बद्ध केदीके समान एक अवस्थामै कालको मर्यादा रहना पडे । अथवा कठहरामें पात्रको प्रवेशकर देने पर वह मनुष्य अन्यत्र जाने में सर्वथा असमर्थ होता है इसी. प्रकार जिस कर्मके उदयसे जीवको एक पर्याय ( एक अवस्था ) में कालकी मर्यादासे नियमितरूप स्थिति करना पडे. उसको आयु फर्म कहते हैं ।
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जीव और कर्म विचार ।
नरक आयुकमे - जिस कर्मले उदयसे जीवोंको नरक पर्याय में काली मर्यादासे स्थिर करे वह नरकायु कर्म है ।
तिर्यग्गति आयुकर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवों को तिर्यग्गति ( तिर्यग्गति पर्याय ) में स्थिर करे वह तिर्यग्गति आयुकर्म है ।
मनुष्य आयुर्म - जिस कर्मके उदयसे ओवोंकों मनुष्य पर्याय कालकी मर्यादासे स्थिर करे वह मनुष्य आयुकर्म है ।
देवायुकर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको देव पर्याय में कालकी मर्यादासे नियमित रूपले स्थिर रखे वह देवायु नामकर्म है।
यद्यपि मोहनीकर्म सबसे बलवान है तो भी आयुकर्मकी चलवती गति कुछ कम प्रवल नहीं है । केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर भी आयुर्म से सकल परमात्माको भी जब तक आयुर्म बाकी है। तब तक ठहरना ही पड़ता है । केवलसमुद्घात आयुकर्मसे ही होता है ।
जीवोंको नरक आदि पर्यायमे व्यायुकर्म जब तक पूर्ण न हो जावे तब तक समस्त प्रकारके भयंकर दुःख सहन करता हुआ भी जबरन उस पर्याय में नियमसे रहना पडता है । एक क्षणमात्र भी अपना वल आयुकर्म नहीं छोड़ता है । इसलिये आयुकर्म की प्रधानता है ।
आयुका जब तक बंध है तब तक संसार है ।
कर्मके वंधके अत्यन्ताभावको ही मोक्ष कहते हैं ।
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आयु
नामकर्म
जो कर्म अपने उदयसे जीवोंको चित्रकारके समान अनेक
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जीष और कर्म विचार ।
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अनेक प्रकारके ( चित्रोंके समान ) रूप रूपान्तरको बनावे | अनेक प्रकारकी पर्यायकों धारण करावे । विविध प्रकारकी अवस्थामें प्राप्त हो वह नामकर्म है ।
चित्रकार जिसप्रकार वाघ-सिंह- गौ- मनुष्य देव - नारक आदि मादि अनेक प्रकारके चित्र बनाता है । उसीप्रकार नामकर्म गौ बाघ. मनुष्य- हाथी- चीटी सर्प कुबड़ा आदि अनेक प्रकारका आकार बनाता है ।
सब कर्मोंसे नामकर्मकी विचित्रता बहुत आश्चर्यजनक है । संसारकी रचना नामकमकी रचनाको देखकर दंग होना पड़ता है । संसार है क्या ? नामकर्मकी नाट्यशाला है, नामके उद यसे जीवोंको अनेक प्रकारके स्वाग (रूप) धारण करने पड़ते हैं।
जिस प्रकार नाट्यशाला में राजा आदिका विविधमेष मनुष्य धारण करता है इसीप्रकार संसाररूपी नाट्यशाला में यह प्राणी नामकर्मके उदयसे विविधप्रकार विचित्र खांग धारण करता है। इन स्वांगों को देखकर ही कितने अज्ञ मनुष्योंने ईश्वरको सृष्टिकर्ता माना । कितने ही मूर्ख लोगोंने नामकर्मकी विचित्रता देखकर ईश्वरका ही समस्त रूप माना। कितने ही मूर्ख लोगोंने जीवकी सत्ताका अभाव माना इसप्रकार नामकर्मकी विचित्रताका कुछ भी पार न पाकर संसारके भोले जीव अपनी अज्ञानतामें संसारमें मोहके वश हो जाते हैं ।
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नामकर्मकी विचित्रतापर सचमुच संसारके प्रत्येक विद्वानको आश्चर्य आये बिना रहता नहीं है । एक मनुष्यके दो मुख
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१७२1 जीव और कर्म-विचार। नामकमके उदयसे उत्पन्न हुए। इस दो मुलधाले मनुष्य को देखकर विधाताकी करतून मानकर कितने हो आश्चर्य करते हैं कितने रो दूसरे प्रकार विचार करते हैं। __नरकगति-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको दुःखपूर्ण मरक गतिमें जन्म लेना पडे उसको नरकगनि कहते हैं । नरफ आयुकर्म
और नरफाति नामकर्ममें यही भेद है कि नरकायु फर्मके घंध होने पर जीपोंको नरकगतिम चवश्य जाना ही पडे परंतु नरकगति फर्मफे बंध होनेपर नरकनिमें जाना ही पडे ऐसायम नहीं है। क्योंकि गतिफर्म-घंध प्रत्येक समयमें होता है और निर्जरा रूपमो होता है। जो गनिकर्म धायुकर्म के साथ घंध हो तो यह गतिकर्म नियमित रूपसे फल देता है : अन्य घेघे तो वह रिना 'फर्स दिये ही खिर जाता है। " तिर्यग्गति नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवों को तियेच गतिमें जन्म लेना पडे वह तिर्यग्गा नामकर्म है। इससे पशुपर्याय-घोडा ऊंट हाथी गौ आदिक्षी पर्याय प्राप्त होती है।"
मनुष्यगतिनामकर्म-जिस कर्म के उदयसे जीवोंको मनुष्य'पर्यायमें जन्म लेना पडे वह मनुष्यगति नामकर्म हैं। ।
देवगति नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंकी देवपर्याय में जन्म लेना पडे वह देवगति नामफर्म है। " ___ जो गति नामकर्म न हो तो जी अगति स्वरूप (परिभ्रमण सहित ) हो जावे। गति 'नामकर्मके प्रभावसे ही जीव समस्त 'पर्यायों में गति करता है। -
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जीव और फर्म- विचार |
पंचेन्द्रिय जीवों की पर्याय में जन्म लेना पड़े वह पंचेन्द्रिये जाति नामकर्म है जैसे मनुष्यका जाव | गौका जीव ।
शरीर नामकर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको शरीर धारण करना पडे - स्पर्श गंध वर्ण रस रूप पुदुगलकी पर्यायको धारण करना पड़े वह शरीर नामकर्म है । यद्यपि शुद्धनयसे जीवशुद्धबुद्ध ज्ञायकत्वभाव निरंजन निर्विकार निर्दे ह अशरीरी अमूर्तिक है तो भी शरीर नामकर्मके उदयसे जावको मूर्तिमान बनना पडता है। जो शरीर नामकर्म न माना नाय तो जीवके शुद्ध और अशुद्ध में दो भेद नहीं रहे । सर्व जीव मुक्त अवस्थामे रहे |
औदारिक नाम शरीर - जिस कर्मके उदयसे जीवको सप्त धातु और सप्त उपधातुमय अथवा मन्य प्रकार भी मनुष्य तियंचका शरीर प्राप्त हो वह मौदारिक शरीर नामकर्म है । जैसे गौका शरीर मनुष्य का शरीर और वृक्ष वनस्पतिका शरीर |
वैकियक शरीर नामकर्म - जिस कमके उदयसे जीवको देव नारीकी पर्याय अनेक विक्रियावाला शरीर प्राप्त हो वह वैकियिक शरीर नामकर्म हूँ । देव अपने शरीरका रूप लघु महान् आदि अनेक प्रकारका कर सके हैं। इसके असख्य भेद हैं। तो भी पृथक् चिक्रिया अपृथक विक्रिया ऐसे दो भेद हैं
ऋद्धि और विक्रियामे भेद है । ऋद्धि मनुष्य पर्याय में मुनीश्वरोंको होती है। वैक्रियिक शरीर देव नारकी जीवोंके होता है। औदारिक शरीर में भी चिक्रिया होती है । परन्तु तपको शक्तिसे । समुहात और विक्रियामें भेद है । समुदातको वैक्तिविक शरीर
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जोय मोर फमें विचार।
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नहीं पढ़ते हैं। परन्तु शिक्रिया का समान प्रतिभास दाता है। लाहार
कर-जिम मर्मक उत्यस छ गुणस्थानी मुनिगजरे संगको दूर करने के लिये परमशुम परम सक्षम मन्यायानी शरीर सदा रह आहारक शरीर नामकर्म मालाना है।
तेजरोर नामर्ग-जिम फर्मके उदयसे मुनियोंको तया मनाधारण जीरोंका शुभा-रामात्मक -शुमाशुम फरने चाला पाम सश्म-अध्याधाना जो शगर उत्पन्न होता है वह तैजम नगेर नाम है।
गागंणार नामफर्ग-जिस कर्गके उदयसे जीवोंको कपिडमय समस्त मसयर्गणाका प्रवय (जो इस जीवने पद्ध किर हैं जो आट धर्ममय हो रहे है) को फार्मण शरीर नामकर्म फदने है।
मागोवाग नामकर्म-जिल कम उदयले जीवोंके हाथ पैर शिर आदि या उपांगको रचना हा वह आगोपाग नामकर्म है। यह तान प्रकार होता है | बोदारिफ आगोपांग, वैक्रियिक आगोपाग, माहारक मागोपाग!
जिस फर्मके उदयसे औदारिक शरीर में मस्तक पीठ वाह आदि आंगोपागकी रचना हो वह औदारिक आगोपाग नामर्म है। इसी प्रकार वैझियिक और आहारिक शरीरमें अगोपांगकी रचना होना सो क्रमसे वैक्रियिक और आहारिक शरीरागोपाग नामकर्म है। संग पाठ और उपांगके अनेक भेद है। नासिका ललाट आदि उपाग है।
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जीव और कर्म- विचार |
निर्माण कर्म -- जिस कर्मके उदयसे जीवों को अपने अपने शरीरमें योग्य स्थानोंपर वक्षु यदि इन्द्रियोंकी रचना हो वह निर्माण नाम है । यह दो प्रकार माना है। स्थान निर्माण, प्रमाण निर्माण । शरीरके जिस भागमें जिस अवयवमें जिस स्थानमें जो इन्द्रिय और कायकी रचना चाँहिये वह वपर ठीक ठीक हो वह स्थान निर्माण है । और वह रचना जिनने माप जैसी छोटी बड़ी सुन्दर होनी चाहिये वेसी हो उसको प्रमाण निर्माण कहते हैं । निर्माण कर्मके फलसे नासिकाकी नासिका के स्थान में रचना होती है, कानके स्थान में नासिका नहीं होती है । इसी प्रकार जो नासिकाका प्रमाण लम्बाई चौडाई रूप माप होना चाहिये वैसी रचना होती है। जो यह वर्म न होता तो जीवोंकी नासिकाके स्थान में कान और कानके स्थानमें नासिका हो जाती । तथा विषमरूप अवयव वन जाते । अवयवोंकी स्वजातीयता कायम नहीं रहती है ।
वधन नामर्क्स - इस वर्ग के उदयसे जीवने जो पुद्गल वर्गर्णायें ग्रहण की है जिससे जीवोंका शरीर बना है उस शरीरमे पुद्गल वर्गणाओं का परस्पर संश्लेष संबन्ध होकर शरीर रूप बंधन वरावर बंधरूपमें हो पुद्गल परमाणु भिन्न भिन्न रूपमें इतस्ततः ( इधर उधर ) छूटे छूटे बिखरे रूप न हों वह वधन नामकर्म हैं । जो यह बंधन नाम न हो तो शरीरके अवयव वालुकाके समान बिखरे रूप हो जाते हैं । यह बंधन कर्म पाच प्रकारके हैं। औदारिक बंधन नामकर्श, वैकियिक बंधन नामकर्म, आहारक वंधन नामकर्म, तैजस बंधन नामकर्म, कार्मण बंधन नामकर्म,
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जीव और कर्म-विचार । २-निग्रोधपरिमंडल संस्थान नामर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको निग्रोध वृक्षके समान नाभिके ऊपर भागमें बहुसंख्यक परमाणुकी रचना हो, ऊपरका भाग अधिक विस्तारवाला हो और नाभिके नीचेशा भाग सल्प परमाणुको रचना रूप हव हो अथवा गोल माकारका हो वह निग्रोधपरिगंडलसंस्थान नामकर्म हैं।
३-स्वातिसंस्थान नामकर्म-निस कर्मके उदय जीवोंको । वामीके साकार या शाल्मली वृक्षर समान नाभिके नोचेके भाग अतिशय विशाल हों और ऊपरका भाग हत्व हो ऐले आकार वाले शरीरकी प्राप्ति हो वह स्वातिसंस्थान नामकर्म है।।
४-वामनले स्थान नामर्म-जिस वर्मके उदयसे जीवोंको ऐले शरीरकी प्राप्ति हो कि जिसमें समस्त शरीरके मांगोपाग वा अवयव एकदम ह्रस्व हों। जिस कालमें जितना शरीरका प्रमाण जिनागममें बतलाया है उसले हस्व देखने में मात्रयरूप शरीरकी प्राप्ति हो वह वामनसस्थान नामफर्म है।
५-कुजव संस्थान नामर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें (पीठमें ) पुगलोंका स्कधरूप एक कुबहा साकार हो जिलको व्यवहारमें अवडा रहते हैं वह कुजलसंस्थान नामपर्म है।
६-हंडल्संस्थान नामकर्म-जिस कमेके उदयसे जीवोंके विन विचित्र वीभत्स आकारवाला हुन्डके समान (नारकादि पर्यायमें प्राप्त ) सर्व आंगोपांग हुडके साकार वाला शरीर प्राप्त हो वह हुन्डल संस्थान नामकर्म है ।
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जीव और फर्म-विचार। [१७६ ना नामम-जिस फर्मके उदयसे जीवोंको ऐसा शरीर प्राम हो जिनमे कि हाड संधि-मजा मेदा नसाशिराफी रचना हो । यदि सानन नामर्म नहीं माना जाय तो डाड-शिरा नसा वीर्य मारिसे रखता नही तो नसतो यह संहनन नामकर्म छह प्रकार है।
१-६वृषभनागचसदनन---जिस कर्मके शुभोदयसे जीरोंको वनजरिय -अशा वेटन (दाडॉो पांधने वाला) और कीलि. फा हो र पपमनाराचसंहनन नामफर्म हे। इससे शरीरकी रचना सुदन होता है। घोर उपसर्ग आने पर भो शरीरके विषय किसी प्रकार मय नहीं होता है । घोर परीपद सहन फरनेमें यह शरीर समर्थ होता है। शरीरमें इसले रतनी जबरदस्त शक्ति होती है कि ध्यानसा मुरय साधन यह शरीर होता है साधारण मस्र शरसोंसे भी न्यायात रूप नहीं होता है।
२-रखताराचसंहनन नामकर्म-जिस शुभ कर्मके उदयसे जोवोंको बनभय अस्थि (हाड) और घनमर कीलिका घाला शरीर प्रात को यह भी च्यानके लिये उपयोगी है।
३-नारायलंदनन-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको कीलिका वाला और चेष्टनाला शरीर प्राप्त हो वह नाराच संहनन काह. लाता है। इस सहननके शरीरमें टाडोकी प्रत्येक संधिस्थानमें वेष्टन होता है जिससे अस्थि और अमियके मुडनेके प्रदेश मजबूत वेटनसे वेगिन रहते हैं।
४-अर्द्धनाराव संहनन-जिस फर्मके उदयसे जीयोंको ऐसा शरीर प्राप्त हो कि जिसमें हाडोंकी संधिस्थानों में आधा तो घेटन
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जीव और फर्म- विचार
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हो और आधा भाग शिरा मेदा या मांससे चिपका हो ।
५ --- कीलिका संहनन -- जिस कर्मके उदयसे जीवोंको हाडों की प्रत्येक संधिमें कीलिका सहित शरीर प्राप्त हो ।
६ - असंप्राप्ताखुपाटिका संहनन-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीर में अस्थिबंध अस्थिसंधिबंध और शिरावंध स्नायु मांस और त्वचा संघटित हो । हाडोंकी संधियां दाडोंकी वधियोंसे वेष्टित न हो। फीलिसहित न हो किन्तु स्नायुमात्रसे लपटे हो या मास तथा त्वचासे सबंधित हो वह असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन हैं । यह पाप कर्मके उदयसे जीवोंको प्राप्त होता है ।
या छह संहननोंसे हो सकता है । परन्तु कर्मोंको दग्ध व्यान करनेवाला और घोर उपसर्ग सहन कर ध्यानमें स्थिर रहनेवाला' पहला सहनन है । दूसरा तीसरे संहननवाला भी अंतर्मुहूर्त पर्यंन ध्यान एक साथ कर सक्ता है । परन्तु कर्मों को निर्मूल करने लायक ध्यान नहीं होता है ।
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चौथा - पाचवा संहनन धर्मध्यानको धारण करता है यथासाध्य उपसर्गों को सहन कर सकता है । परन्तु घोर उपसर्ग या परीषह जीतनेमें असमर्थ होता है ।
छट्टा संहनन - धर्मध्यानके योग्य होता है परंतु उपसर्ग या परीषह सहन करनेमें सर्वथा असमर्थ होता है इस संहनन से परीपह और उपसर्ग सर्वथा जीते नहीं जाते हैं पंचमकालमें यह संहनन होता है । इस संहननको धारण कर मुनि हो सक्त हैं तप-वरण कर सक्त हैं अट्ठावीस मूलगुण पालन कर सके हैं।
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जीव और कर्म-विचार ।
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कर्मभूमिको सियों, आदिके तीन संहनन नहीं होते हैं इसलिये स्त्रियोंका कर्मके करनेयोग्य ध्यान नहीं होता है इसीलिये स्त्री पर्याय में मोक्ष सर्वथा नहीं होती है ।
स्पर्शनामकर्म-जिस फर्मके उदयसे शरीर में स्पर्श हो वद स्पर्शनाम धर्म है वह आठ प्रकार है ।
१ - जिस कर्मके उदय से गले कपोल शिर-छाती आदि प्रदेश में वर्कशना हो उसको कर्कश स्पर्श कहते हैं ।
२- मृदुल स्पर्श - जिम कर्मके उदयसे मयूरपिच्छ आदिके समान फोमल स्पर्श दो वह मृदुस्पर्श नामकर्म है ।
३- गुरुम्पर्श - जिस फर्मके उदयसे जीवोंको लोह आदि धातु के समान गुरुम्प दो वह गुरुस्पर्श नामकर्म है ।
४ - लघु-पर्श - जिस कर्मक उदयसे जीवोंका अतुल के समान लघुस्पर्श के समान बहुत हलका स्पर्श हो, वह लघु स्पर्श है ।
५- स्निग्धपशं-- जिस वर्ग के उदयसे जोधोंको तिलके समान स्निग्धता लिये स्पर्श हो वह स्निग्धस्पर्श है ।
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६- स्पर्श - जिस फर्मके उदयसे जीवों को पालुकाके समान रूक्षस्पर्श हो वह रुक्ष स्वर्ण है।
७ -- शीत स्पर्श - जिस कर्मके उदयसे जीवको जल के समान शीतस्पर्श हो वह शीतस्पर्श है ।
८ - उष्णस्पर्श--जिस कर्मके उदयसे जीवोंको अग्निके समान उष्णस्पर्श हो वह उष्णस्पर्शनाम है ।
ये आठ प्रकार के स्पश शरीरमें प्राप्त होते है । और इनका
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जीव और कर्म-विचार। परिज्ञान इन्द्रियों द्वारा जीदोंको प्राप्त होता है। इस प्रकार कारण कार्य रूप स्पर्श, म्पर्शनामके उदयसे जीवोंको प्राप्त होना है।
स्पर्शनाम कर्मका अभाव ह नहीं सके है क्यों क स्पर्शका समाव सर्वत्र है । आठ प्रकारका स्पर्श सर्वत्र दृश्यमान हैं।
रस नामकर्म-जिम कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें पांव प्रकारके रसमें कोई प्रकारका रस प्राप्त हो वह रस नामर्म है।
१-निक्करम नामर्म । जिम कर्मके उदयस जीवोंको अद्रख बादिके समान निक्तरमाला शरीर प्राप्त हो वह तिक्तरस नामकर्म है कमिण पुद्गल परमाणुका निकराल रूप शरीर में पारणमन होता है। हरी मिरच आदि बनस्पतिके जीवोंके शरारमें तिक्तस है।।
२- कटुकरस नामक मे-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको नीय आदिके समान कटुगमवाला शरीर प्राप्त हो वह स्टुररस नामर्म है, कार्मण पुद्गल परमाणुओंका शरीरमें कटुकरस मय परिणमन होना सा कटुकास है। हरित कुटकी आदि बनस्पतिके जीवोंके शरीर में यह रस होता है।
३-कपायरस नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको हरीके समान या बहेडा समान क्पायलो सवाला शरीर प्राप्त हो वह पायरस नामक है। पुद्गल फार्मण वर्गणाओंझा शरीरमे कपा. यरस रूप परिणमन होना सो फषायरल नामकर्म है।
४-आम्लरस नामकर्म-जिस कर्मके उत्यसे जीवोंको नीवुके रसके समान (खट्टा ) या इमलीके रसके समान रसवाला शरीर प्राप्त हो वह आम्लरस नामकर्म है। इस क्मेसे जीवोंको ऐसा
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जाव और धर्म-विचार। [१८३ शरीर प्राप्त होता है कि जिलमें खट्टारल होता है यह पुदलका परिणमन है।
५- मधुररस नामकर्म-जित स्मैके उदयसे जीवोंके शरीर में इक्षुग्मरे समान मधुग्रस प्राप्त हो वह मधुररस नामर्म है। पुद्गल परमाणुमें मधुररस शक्तिका परिणमन होना सो मधुररस नामकर्म है। रस नामकका अभाव नहीं कह सके हैं क्याकि निवादिक शरीर में क्टुक रसादिका अनुभव प्रत्यक्ष सिद्ध है। ___ मंधनामकर्म-जिल नामनमो उदयले जीवोंक शरीरमें गंध प्राप्त हो वह गंध नाम है। वह दो प्रकार है। सुगंध नामर्म, टुगंध नामकर्म ।
जिन कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें सुगंधी प्राप्त हो जैसे तीर्थकर पग्मदेवके शरीरमें सुगंधी प्राप्त होती है। पुद्गल पामाणुमें ऐती शक्तिका प्राप्त होना सो सुगंधी नामकर्म हैं। ___ जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीर में दुर्गंध प्राप्त हो जैसे नर. कके जीवोंके शरीरमें दुर्गधी होती है।
गंधर्मका यभाव कह नहीं सके क्योंकि सुगंधी और दुगंधी प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होनी है। पुद्गल परमाणुर्मे इस नामकमैके उदयसे शरीरमें सुगंधी और दुर्गंधीका परिणमन हो वह गंध नामकर्म है। जैसे हाथीके शरीरमें गं या गुलारके फूलमें सुगंध प्रत्यक्ष सवको है।
वर्णनामकर्म-जिस कमे उन्य जीवोंके शरीग्में वणे प्राप्त हो वह वर्ण नामकमे है । इसके पाच भेट है। वर्ण प्रत्यक्षमें लरको
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१८४] जोव और कम-विचार। दीखता है पुद्गल परमाणुमें ऐसी शक्तिका परिणमन हो जिससे शरीरमें वण उत्पन्न हो।
कृष्णवर्ण नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें कृष्णवर्ण उत्पन्न हो वह कृष्णवणं नामकर्म है। जैसे काली भैस काला मनुष्य, काला कौवा आदि।
नीलवर्ण-जिस कर्मके उदयसे शरीरके पुद्गल परमाणुमें नीलवर्ण हो वह नोलवर्ण नामकर्म है। जसे मोरको गर्दनका रंग। इस कर्मके उदयले पुद्गल परमाणु में इस प्रकारके वर्णका परिणमन हो जाता है।
रक्तवर्ण-जिस कर्मके उदयसे जीवों को ऐसा शरीर प्राप्त हो जिसमें पुद्गल परमाणुका रग रक्त (लाल) वर्णका हो। इस कर्मके उदयसे परमाणु लाल रंगका परिणमन करे यह रक नामकर्म है जैसे लाल चिडिया ।
पीतवर्ण-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरका रंग पीत हो। वह पीतवर्ण नाम म है। जैसे पीला सूआ।
श्वेतवणे --जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरका रंग श्वेत । (धवल) हो,वह श्वेतवर्ण नामकर्म है। जैसे सफेद बगुला ।
यदि वर्ण न माना जाय । तो वर्णके विना शरीरका ही उदय नहीं हो सक्ता है और शरीरका वणे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर है। इस. लिये वर्णनामकर्मका अमाव किसी प्रकार कह नहीं सके।
आनुपूर्व्य नामकर्म-जिस फर्मके उदयसे जीवोंको विग्रह. गतिमें पूर्वगति (पूर्वभवकी पर्यायके माकारवाला) के आकार
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जोव और कर्म-विवार |
[ १८५ वाला संस्थान प्राप्त हो वह आनुपूव्य नामकर्म पदलाता है । भावार्थ जैसे एक जीवने मनुष्यपर्यायका परित्याग कर देवपर्याप्त तो मनुष्य पर्याय छोड़नेके बाद और देवपर्याय प्राप्त करनेके प्रथम ( दोनों पर्यायके अंतराल में ) विग्रहगतिमें मनुष्य के शरीरके समान कार्मण शरीरका आकार बना रहे वह आनुपू है । यह गतिके भेदले चार प्रकार है ।
नरकगत्यानुपूर्य नामकर्म - जिस कर्मके उदयसे नरक गति को गमन करते जावको विग्र गतिमँ ( दोनों पर्यायक अंतराल में ) पूर्वभत्रका आकार बना रहे ( जिस पर्याय छोडकर नरक में जा रहा है ) उसको नरकगति आनुपूर्व्य पहने है भावार्थ जब तक नरक शरीरका धारण नहीं दिया है। उस जीन के कार्मण गरीरमा आकार पूर्व पर्याय ( जिस पर्यायको त्यागकर वह नरक जा रहा है ) के आकार का होना वह आनुपूव्ये नामकर्म है ।
निर्यग्गत्यानुपूर्व्य नामकर्म - जिम कर्मके उदयसे जीवोको नियंच गतिमें गमन करते समय विग्रहगतिमें कार्मण शरीरका आकार पूर्व पर्याय (जिस पर्यायकों छोड़कर तिर्यग्गतिमें जा रहा है ) के आकारका हा वह निर्यग्गत्यानुपूर्व्यं नामकर्म है ।
मनुष्यगत्यानुपूढ नामकर्म - जिस धर्मके उदयसे जीवोंको मनुष्य पर्यायके प्रति गमन करते समय विग्रह गतिमें कार्माण शरीरका आकार व पर्याय ( जिस पर्यायको छोड़कर मनुष्य पर्याय गमन करने को जा रहा है ) के आकार के समान हो वह मनुष्य गत्या नुपूर्व्य व हलाता है ।
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१८६]
जीव और कर्म विचार। देवगत्यानुपर्व्य नामकर्म-जिस धर्मले उदय जीवोंको देव. पर्यायके प्रति गमन करते समय विप्रहगतिमें फार्माण शरीरका आप र पर्व पर्णन (जिस पर्यायता परित्याग कर देव-पर्यायमें गमन करनेको जा रहा है) के आकारके समान हो वह देवगत्या. नुपर्य नामर्म है। ___गत्यानुष्य में दो चाते हैं। एक गति दूसरी आनुपूर्वी । सो गति तो जिस पर्यायको जाना है वह ग्रहण की नायगो। जैसे एक मनुष्यो मर कर देव पर्यायको जाना है तो यहाँ पर गति तो देवगत नहलायेगी । परन्तु आनु:-मनुष्य पर्यायकी होगी गनु वा अर्ध विग्रहगतिमें जीवका आकार लो मनुष्य प. यले मरकर देवपर्यायमें जा रहा है। इसलिये विग्रहगतिमें मनुष्य पर्यायका ही आकार रहेगा। जिस पर्यायसे भरकर आयेगा उस त्यक पर्यारो आकारको ही विग्रहगतिमें धारण करता रहेगा यह आनुपूर्तीका अर्थ है । अर्थात जिस गतिमें जा रहा है उसले पहले भत्रके शरीराकारको जीव धारण करे सो गत्यानुपूर्वी कम है।
यदि गनुपी जर्मन माना जाय तो जामीण शरीरका आकार नहीं मानना पड़ेगा। कार्मणा आकार माने बिना उसको शरीर संज्ञा ही नहीं होती है। जो कार्मण पिडका कोई भी प्रकारका आकार नहीं माने तो फार्मण पिंडको शरीर नहीं कह सकते और कार्मण पिंडको शरीर माने बिना जीव मरने पर शरीर रहित हो जायगा तो तपश्चरण ध्यान अध्ययन आदि क्रियायें व्यर्थ
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जोव और कर्म विचार ।
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क्योंकि जो मरने पर सर्वथा शरीर रहित हो जाता है । कामे विडको शरीररूप मानने से वह मन्ने पर भी छूटता नहीं है तपश्चरण ध्यान मदिसे ही नष्ट होता है । इसलिये विग्रहगति में भी कार्मण पिंडका आकार रहना है। वह आकार जिस शरीरको छोडकर विग्रहगतिनें आया है उस शरीरका आकार रहना है । कार्मणको शरीर संज्ञा भागममें बतलाई है आकारके विना शरीर होता नहीं है। इसलिये मानुपूर्वी नामकर्म अवश्य ही मानना पडेगा ।
अगुरुच्घु नामकर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंका शरीर अक्तूल के समान एकदम हलका होकर ऊपरको उड नहीं जाता है और न लोहेके गोलेके समान एकदम भारी होकर नाच पड़ नहीं जाता है उसका अगुरुलघु नामकर्म कहते है ।
उपवास नामकर्म - जिस धर्मके उदयसे जीव अपने शरीर के वंधन से स्वय मर जावे या अपने श्वासोश्वास के विरोध करने पर अपने शरीरकी क्रिया अपने आप ही मृत्यु हो अथवा अपने त्रिकट सींग आदि शरीर के अवयव ही अपने शरीरको घात करनेमें कारण हो वह उपघात नामकर्म है । यह उपघात नाम अग्नि प्रवेश जल प्रपात यादिके द्वारा भी अपने शरीर के द्वारा हो अपने शरीरका घात करता है। जैसे बारहसिंगा के सींग वास आदिमें अटक कर मृत्युके कारण होते हैं ।
परघातनान कर्म - जिस कमके उदयसे जीवोंके शरीरकी रचना ऐसी हो जिससे दूसरे जीवों के शरीरका घात हो दूसरे, जीवों की मृत्यु हो । जैसे सर्प, सर्पके द्वारा बहुतसे नीवोंका घात
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सकर्म-विचार । होता है। विच्छुकी पूछ सिंहके पंजा, रीक्षकी जीभ आदि। श. स्त्रादिक्के द्वारा भी जिससे दूसरे जीवोंको घात हो घह परघात नामकर्म है। ___आताप नामम-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीर में आताप हो यह आताप नामकर्म है।
आताप नामकमके उदयसे जीवोंको ऐसा शरीर प्राप्त होना जिसमें आताप होता हो । सूयमडल-पृथ्वीपाय आदिमें आताप होता है । और वह प्रत्यक्ष दोखता है। इसलिये इस कर्मका अभाव नहीं मानलक।
उद्योत नामम-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें चन्द्र मंडलके समान उद्योत हो-यह उद्योत नामकर्म है। इस कर्मका अभाव नहीं कह सक्त हैं। क्योंकि नक्षत्र चद्र मंडल आदिमें उद्योत प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होरहा है।
श्वासोश्वासनामम-जिस धर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें श्वासोश्वास क्रिया उत्पन्न हो वह श्वासोश्वास नामर्म है ।
प्रशस्तविहायोगतिनामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको ऐसा शरीर प्राप्त हो-जिससे आकाशमें हंस विद्याधर-देवोंके समान सुदर गति हो वह प्रशस्त विहायोगनि नामकर्म है।
अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म-जिस कर्सके उदयसे जोबोंको ऐसा शरीर प्राप्त हो जिससे ऊँट गदहा-सियाल मक्षिका पक्षी आदिके लमान गमन हो ।
इस फर्मका अभाव कह नहीं सकते हैं क्योंकि छोटे २ पक्षियोंमें अप्रशस्न विहायोगति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है।
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जीव और कम-विचार १८६ प्रत्येक शरीर नामकर्म-जिस कर्मफे उदयसे जीचॉको पेसा शरीर प्राप्त हो कि जिस शरीरका पक ही जीवात्मा स्वामी हो। मावार्थ-एक शरीरका एक ही आत्मा स्वामी हो । एक शरीरमें एक ही जीव रहता हो । यद्यपि सूक्ष्म जीव मनुप्यके शरीरमें भी मर्माणत है। क्षण क्षणमें उत्पन्न होते है। और क्षणक्षणमें नाशको प्राप्त होते हैं तोभी मनुष्यका शरीर उन छोटे २ सूक्ष्म जीवोंके प्रभावसे न तो बढता है और न घटता है केवल वे सूक्ष्म जीव उसमें आधारभूनसे रहते हैं परन्तु मनुप्यके मूल शरीरको पृद्धि एक जीव आश्रित है। वही जीव उस शरीरका मालिक है। वही मनुष्य पर्यायको प्राप्त हुआ है। इतर जीव मनुष्य-पर्यायको प्राप्त नहीं है। यह दृष्टांतमात्र है परन्तु प्रत्येक नाममका उदय एकंद्रिय जीवमें होता है।
साधारण शरीर-जिस कर्मके उदयसे एक शरीरके स्वामी अनेक जीव हों वह शरीर उन समस्त जीवोंके आहारपानसे चढता हो। वे समस्त जीव उस शरीरमें एक साथ जन्म मरण किया करते है माहार ग्रहण करते है और अपना पालन पोपन सब एक साथ ही धरते है भावार्थक शरीरका भोग अनेक जीव फरते हैं। उसको साधारण शरीर कहते है जैसे कंद (मूली-गाजर यालु यादि) में निगोदिया जीवोंका शरीर साधारण शरीर कह. लाता है । दशकद साधारण ही होते हैं वे मिसी अवम्यामें प्रत्येक नहीं होते है। एक निगोद शरीरमें सिद्धराशिके अनंतगुणे जीव रहते हैं । इसलिये कदफा सेवन नहीं करना चाहिये। सुखाकर
पकारक खाने में भी अनंत जीपोंको हानि होती है।
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* जीव और कर्म विचार |
त्रस नामकर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको पर्याय ( दो इन्द्रिय-तीन इन्द्रिय-वार इन्द्रिय- पाव इन्द्रिय शरीरको शरीर कहते हैं, प्राप्त हो वह त्रस पर्याय है । जो गमन करे वह त्रस और स्थिर रहे वह स्थावर ऐसा अर्थ नहीं करना चाहिये क्योंकि हवा ( पवनकाय) के जीव गमन करने पर भी स्थावर हैं । और बहुतसे त्रस जोवों में गमन करने की शक्ति नहीं होनेपर भी नाम कर्मके उदयसे वे दो इन्द्रिय आदि पर्याय कहे जाते है । इस कर्मका भाव कह नहीं सके है क्योकि इस कर्मके बिता दो इन्द्रिय आदि इन्द्रियों का अभाव होगा जो प्रत्यक्ष सबको दृष्टिगोचर हो रही है ।
स्यावर नामक — जिस कर्मके उदद्यते जीवोंको पृथ्वोकाय आपकाय तेजकाय वायुजाय - वनस्पतिकाय शरीर प्राप्त हो । एकेन्द्रिय शरीरधारी जीवको स्थावर कहते हैं ।
सुभगनाम - जिल कर्मके उसे जीवोको जनमन रजन क नेत्राला परम सौभाग्य युक्त देखने में सबको प्रिय शरीर प्राप्त हो वह सुभग नामकर्म है।
दुर्भग नामकर्म - जिल कर्मके उदयसे स्त्री पुरुष के शरीर मे सुंदरता होने पर भी परस्पर प्रोनिकर न हो वह दुभंग नामस्मे है । दुभंग कर्मके उदयले सुंदर शरीर होनेपर भी दूसरों को प्यारा नहीं लगता है जिससे उसको कोई भी नहीं चाहता है ।
सुखर नामकर्म - जिस कर्म के उदयसे शरीर में सर्वजन क्पंप्रिय-अतिशय मनोश और मधुर स्वरकी प्राप्ति हो वह सुखर
नामकर्म है । जैसे कोयलका स्वर ।
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जोव और धर्म-विवार। [१६१ दु.स्वर नामकर्म-जिस फमके उदयसे जीवोंके शरीर में कर्णभेदो-टुक-अप्रिय एवं सुनने मात्रसे ग्लानि उत्पन्न हो ऐसा स्वर प्रकट हो वा दुःस्वर नामकर्म है जैसे काक गदहा आदि जीवोंका स्वर बहुत ही पीडाफर होता है वह सब दु.स्वर नामकर्म का उदय है।
शुमनामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें ऐसे मनोहर मागोपागको रचना हो कि जिसको देखने मात्रसे ही सत्य जीवोंका मन लुभाय जाय-नेत्र और मन वश होजाय वह शुभनामकर्म है। __ अशुभनामकर्म--जिस धर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें ऐसे विरूप आगोपागकी रचना हो जिसको देखने मात्रसे अन्य जोवासो ग्लानि अप्रियता और पोडा हो वह अशुभ नामर्म
बादर नामर्म-जिम्म फर्मके उदयसे जीवोंको ऐसा शरीर प्रात हो जिससे अन्य जीवोंके शरीरको बाधा हो। दूसरे जीवोंके शरीरको रोकता हो और स्वयं दूसरे जीवोंके शरीरसे रुक जाता हा । वह वादर नामकर्म हैं।
सूक्ष्म नामर्भ-जिल कर्मके उदयसे जीवोंको सुक्ष्म शरीर प्राप्त हो वह सूक्ष्म नामकर्म है सूक्ष्म जीव किसी भी,जीवको व्याघात नहीं पहुंचाते हैं और न उनका व्याघान कोई कर सका है।
पर्याप्ति नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको ( आहारशरीर-इन्द्रिय श्वासोश्वास-मापा और मन ये छह) पर्याप्ति परि
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जीव और कर्म-विचार । पूर्ण हो वह पर्याप्ति नामकर्म है। एकेंद्रिय जीवोंके वार पर्याप्ति होती हैं। दो इन्द्रियसे असैनी पंचेन्द्रिय जीवों तक पांच पर्याप्ति होती है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके छह पर्याप्ति होती है।
अपर्याप्ति नामकर्म-जिप्स मैके उदयसे जीवोंको आहारादि पर्याप्ति परिपुर्ण करनेकी सामर्थ्य नहीं हो-पर्याप्ति परिपूर्ण करे विना ही मृत्युको प्राप्त होजावे वह अपर्याप्ति नामकर्म है।
स्थिर नामर्म-जिस शुभकर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें ऐसी विलक्षण शक्ति प्राप्त हो जिससे कि दुसर तपश्चरण-उपचासादि कायक्लश करने पर भी शरीर और शरीरके अंगोपागमें चरावर स्थिरता बनी रहे। किसी प्रकारको अस्थिरता शरीर और अंगोपांगमें प्रकट न हो । वह स्थिर नामर्म है। भावार्थ मनु. प्योंका शरीर आहार पानी के न मिलनेसे थोडेसे समयमें हो कृश होने लगता है। तपश्चरणसे आहार पानीका निरोध और इच्छाका निरोध होता है इसलिये साधारण मनुष्योंका शरीर व अंगोपाग तपश्चरणसे कृश हो जाते हैं मांस रुधिर मेदा धातु और उपधातु की स्थिरता नहीं रहती है। परंतु जिन जीवोंको स्थिर नामकर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें मांस रुधिर मेदा धातु मादि रलोपरस कायक्लेश करने पर भी स्थिर रहते हैं। यह पुण्यकर्मके योगले प्राप्त होता है।
अस्थिर नामकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीरमें रस उपरसकी स्थिरता न हो, वह अस्थिर नामकर्म हैं। जरा सा शीत-या सहज उष्ण लहन करने में जो शरीर या आगोपांग सहन
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जीव और कर्म विचार ।
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में समय हो जरासे कायक्लेशमें शरीर कृश होजावे वह
अस्थिर नाम है ।
आदेयनामर्क्स - जिस कर्मके उदयसे जीवोंके शरीर में कानि उत्पन्न हो वह आदेय नामकर्म है ।
अनायता
उत्पन्न न हो वह सनादेय कर्म है ।
- जिस क्मेके उदयसे जीवोंके शरीर में काति
यश. कीर्ति नामवर्क्स -जिल कर्मके उदयसे जीवोंके प्रशस्त कार्य व गुणोंके निमित्तले फीति होना सो यश. कांतिः नामकर्म है अथवा अप्रशस्त कार्य करने पर भी और दुर्गुण समापन्न होनेपर यश कीर्ति नामकर्मके उदयसे कीर्ति होना सो यश, कीनि नामधर्म है। भावार्थ - यशःकीति कर्मके उदयसे मलिन कार्य करने पर भी प्रसंशा होती है। अनीनिके कार्य करने पर भी प्रसंशा और यश होता है यह सन यशःकीर्ति कर्मका उदय है । मथवा अपने में गुण हों या न हों हो, तो भी लोकमें प्रस्थापन हो वह यशःकीर्ति नाम कर्मके उदयका फल है ।
अयशःकीर्तिनामकर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको प्रशस्त गुण विद्यमान होनेपर भी प्रशंसा न हो। अच्छे कार्य करने पर भी प्रशंसा न हो । नीति और सदाचार पूर्वक प्रकृति करने पर भी प्रशंसा न हो वह अयश कीर्ति नाम है । अथवा अपने में दोषों. का सद्भाव नहीं होने पर भी दोपोंकी प्रगटता होना सो अयश:- कीर्ति नामवर्ग है।
तीर्थंकर नामर्श - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको नीन जग•
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ति
१६४] जीव और कर्म-विवार । सको आनदित एवं आश्चर्य करनेवाला-पंचकल्याणक द्वारा देवोपुनीत वमत्कार सहित-तीन जगतके जीवोंको परम अभयदान देनेवाला धर्मचक्रको धारण करनेवाला तीर्थंकर परमदेव पदकी प्राप्ति हो यह तीर्थंकर नामकर्म है।
तीर्थकर पद सर्वोत्कृष्ट हैं सर्व जगत पूज्य है-निजगत मान्य है-तीन जगतके जीवोंको अभयदान देनेवाला है, समस्त जीवोंको सुख करनेवाला है । देवोंसे परमपूज्य है।
इस प्रकार नामकर्मके उदयसे जीवोंका अनेक प्रकारको अव. स्थाएं प्राप्त होता है जैसे वित्रकार अनेकप्रकारके चित्र बनाता है वैसे हो नामकर्मके उदयसे अनेकप्रकारके नर नारकी देवतियंच आदि अवस्थाको जीव प्राप्त होता है।
गोत्रकर्म-जिस कर्मके उदयसे जीवोंको महावतके योग्य व महावत धारण करनेके अयोग्य ऊंच नीच गोत्र प्राप्त हो गोत्र है। जिसप्रकार कुम्हार छोटे बड़े वर्तन बनाता है वैसे ही गोत्रकर्म ऊ चनीव कुलमें जन्म प्राप्त कराता है। ऊंच गोत्रकर्म जिसके उदयसे मोक्षमार्ग धारण करने लायक गोत्र प्राप्त हो।
मोक्षमार्गका प्रगट करनेवाला एक गोत्रकर्म है, ऊबगोत्रकर्म महान पुण्यकर्मके फलसे ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार संयमकी प्राप्तिके लिये मनुष्य पर्यायकी प्राप्ति जैनधर्मकी प्राप्ति और सर्व प्रकारकी निराकुलताकी आवश्यकता है अथवा आसन्नभव्यता और सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिकी जैसी आवश्यकता संयम धारण करनेके लिये नियामक है वैसे ही ऊवगोत्र प्राप्त करलेनेकी परमावश्य..
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जीव और कर्म-विचार।
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कता है। ऊंच गोत्र प्राप्त क्येि विना मुनिव्रत ही नहीं होता है तो विशेष संयम किस प्रकार होसक्ता है ? जिलसे साक्षात मोक्षमार्गता व्यक्त होजाय ? इसलिये ऊवगोत्रका प्राप्त करलेना महान पुण्यका फल बतलाया है। केवल बाह्य स्नान शुद्धि या ऊपरकी सफाईको ही ऊब गोत्र नहीं कह सकते हैं या उत्तम व्यवहार करनेवाले वर्णशंकरको ऊंचगोत्र नहीं कहते हैं ऊचगोत्रका प्राप्त करलेना पूर्वभर के पुण्यकर्मका फल है जिस कुलमें रजशुद्धिवीर्यशुद्धि-आवरणशुद्धि और सदाचारशुद्धि और पिंडशुद्धि नियमितरूपसे वंशपरंपरागत चली आई है। जिस कुलमें घरेजा नहीं हुआ है जाति शंफरता नहीं हुई है और आचार निवार एवं खान पात नीवजाति भ्रष्ट तथा जातिच्युन (दशा आदि ) के साथ नहीं हुआ है वह कुल ऊंच गोत्र कहलाता है ऐसे कुलमें उत्पन्न हुए मनुष्य व्रत ( महाव्रत ) धारण कर सकते हैं। ऐसे मनुष्यों की ही पूर्वभवके पुण्योदयसे महाव्रत धारण करनेकी दृढ धारणा होती है परीक्षाके समय वे च्युत नहीं होते हैं। विचारों के रूप जार और श्रद्धासे मलिन नहीं होते हैं । भावोंकी दृढता प्रतिष्टा गोरव आदि के प्रलोभनसे सकंप नहीं होती है।
जिसकी उत्पत्ति मलिन है उसकी भावोंकी परणति भी पतित रूप होती है । और जो नीच कुलमे उत्पन्न हुआ है उसके भावोंमें धर्मकी रम आदर्शताको ग्रहण करनेकी शक्ति नहीं होती है। इसीलिये शास्त्रोंमें विवाह शुद्ध कुल अपनी शुद्ध जातिमें बतलाया है। "अथ कन्या सजातीया विशुद्धकुलसंभवा" ऐसी
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जीव और कर्म-विचार। शास्त्रीय आज्ञा वतलाई है। विजातीय विवाहसे उच्च गोत्रों हानि होती है।
इम्मी प्रकार विधवा विवाहसे उच्च गोत्रता नष्ट हो जाती है इसी प्रकार मद्य-माल मधुसेवी महावतकी शक्तिसे रहित नीच कुलके मनुप्यके हाथका भोजन पान करनेसे ऊच गोत्रकी हानि होती है। दस्साके साथ व्यवहार करनेसे ( जो दस्ता विधवा विवाहादि कारणोंसे जातिच्युत हैं ) भी जाति ज्युत न होता हैं। ऊंच गोत्रता नष्ट होती है।
जितने तीर्थंकर हुए विशुद्ध क्षत्रियकुलमें ही उत्पन्न हुए हैं।
वर्णशंकरता विधवा विवाह और छताछूतका लोप तीर्थंकर माता पिताके कुलमें नहीं था।
नुनिगण शूद्रके हाथका पानी पीनेशले श्रावकका भोजन ग्रहण नहीं करते हैं । इससे मालुम पड़ता है कि छूताछूतका लोप करना आगम विरुद्ध है। ऊंच गोत्रको हानि करनेवाला है। मुनिका स्पर्श नीच कुल मातंगके साथ हो जाय तो मुनिको स्नान (दंड स्नान ) करना पड़ता है और प्रायश्चित लेना पड़ता है। प्रतिमाका शद्र स्पर्श कर लेवे तो प्रतिमाको शुद्धि करानी पडती है इसलिये ऊंचगोत्रको हानि करनेवाला छूताछूतका लोप करना है।
नीचगोत्र-जिस पापके फलसे नीचकुल (महाव्रतके धारण करनेके अयोज्ञ ) में जन्म लेवे वह नीच गोत्र है।
गोत्रकर्म न माना जाय तो मोक्षमार्गका ही लोप होजायगा
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तथा उत्तम सदावारकी क्रियायें संस्कार - फुल विशुद्धि - पिढशुद्धि आदि समस्त मोक्षमार्ग के उपयोगी कार्योंका लोप होजायगा दीक्षा शिक्षाका भी अभाव होगा
कितने ही लोग स्नान करना - सफेदपोप रहना-सावू लगा-. कर उजले बाजले रहना यही ऊंचगोत्र ( अपने व्यापार कर्म से होता है) है ऐसा मानते हैं । परंतु जैनशासन में श्रीॠषभतीर्थंकरसे लेकर महावीर पर्यन्त २४ तीर्थंकरोंने ही आठ कर्म बतलाये हैं । सात कर्म किसीने नहीं बतलाये । न गोत्रका अभाव बतलाया प्रत्येक युगमें आठों कर्मो का उदय रहता है । इसलिये ऊपरी भवका या व्यापारके निमित्तसे ऊंचनीच गोत्र संज्ञा नहीं है । भरपेट मनमाने पाप करे और ऊपर सफेदपोष वने उनको ऊंच गोत्र नहीं माना है । क्तुि पूर्वभव के पुण्योदयसे इक्ष्वाकु आदि वंश में जन्म लेना सो ऊंच गोत्र है ऊं वगोत्रकी महिमा सबको प्रत्यक्ष है । इसलिये गोत्रकर्म भी प्रत्यक्ष हैं ।
अंतराय कर्म - जिस कर्मके उदयसे जीवोंको सब प्रकारको सामग्री मौजूद होने पर भो तथा सत्र प्रकारके साधन उपस्थित होनेपर जो भोगने नहीं देवे विघ्न कर देवे वह अन्तरायकर्म है ।
जिसप्रकार भंडारी राजाको आज्ञा प्राप्त करलेने पर भी कार्यमें नादिक कार्यमें ) विघ्न करता है । अथवा राजासे ऐसी आज्ञा प्राप्त करनेमें ही बाधा करता है उसीप्रकार अंतरायकर्म वाघक
होता है ।
दानांतराय - दान देने योग्य अपने पास सामग्री धन संपत्ति
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जीव और कर्म-विवार।
और सब प्रकारकी योग्यता प्राप्त होने पर भी तथा उत्तम पात्रका समागम होने पर भी जो मै दान प्रदान करने में विन करे, दान देनेके भाव न होने दे। तथा भावोंमें लोम रसको उत्पन्न कर दान देने में विपरीत बुद्धि होजावे। दान देते हुये भी मनमें मलिन वासना और मुर्छा परिणाम बना रहे वह दानातराय नामर्ग है मलिन वासनासे दिये हुए दानका फल भी उत्तम नहीं होता है
लोमांतराय-अनेक प्रकारका उत्तमोत्तम और प्रत्यक्ष लाभजनक व्यापार करने पर भी लाभकी प्राप्ति न हो। अपने व्यापारसे अपनेको लाभ न होकर उसी व्यापारसे दूसरोंको लाभ हो जाय प्राप्त कीहुई संपत्तिका स्वभावरूपसे विनाश होजावे। आती हुई संपत्तिमें राजा या कोई महान पुरुप बाधक बन जावे। इत्यादि अनेक प्रकारले सुख साधनोंका लाम होने में जो कर्म विधन करे वह लाभांतराय नामकर्म है।
मोगांतराय-भोग सामग्री उपस्थित होने पर भी जो भोगन सके, भोजन खान पान सामनी परोसी जाने पर भी उसका भोग न ले सके। वह भोगान्तराय है।
उपमोगान्तराय-उपभोग सामग्री उपस्थित होने पर भी जा उपभोग पदार्थोको सेवन न कर सके। वह उपमोगातराय है। ___धीर्यान्तराय-जिस कर्मके उदयसे संपूर्ण प्रकारके कार्य फरनेकी शक्ति उपस्थित होनेपर भी कार्य करने में असमर्थता हो, समस्त बातोंके सहन करनेकी शक्ति मौजूद होने पर भी सहन करने में अन्तरंग भावोंकी कायरता हो । परिणामोंमें धैर्य न हो,
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जोव और कम-विवार।
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भावोंकी स्थिरता न हो, मनकी गंभीरता न हो। वह सब वीर्या. न्तराय कर्म हैं। अथवा शक्तिको जो उत्पन्न न होने दे वह वीर्यास्तराय धर्म है।
अन्तगयनर्मको न माना जाय तो व्यापारादिक में होनेवाली हानिका लोप होगा। जो प्रत्यक्ष सबको अनुभत्रित है। इसी प्रकार भोग उपभोग आदि सामग्रो सेवन करने में भी कभी ऐला विन दीखता है कि पदार्थ सामने हाथ पर आजाने पर भी उसका सेवन नहीं होता है। इच्छा होनेपर प्राप्त नही होता है।
दान देनेके परिणाम होने पर या दान देने पर भी उस वस्तुसे ममत्व भार नहीं जाना है सो सव अतराय कर्मका उदय ही समझना चाहिये।
इसोप्रकार वीर्यान्तरायका कार्य सबको प्रत्यक्ष प्रतिभा. सित है। कौन कौनसे कार्य करनेसे कौन कौनसे कर्मका
बंध होता है। 'नावर्ण कर्मके बंधके कारण नानके साधनोंमें विघ्न करना, जान साधनोंका लोप करना, सत्य और प्रमाणित ज्ञानको पित फरना, विद्वानोंसे जैन पंडितोंसे मत्सर भाव रखना, पडिनोंको मिथ्या अवर्णवाद लगाकर जानकी दृष्टिमें रोडा करना, सस्कृत पाठशालाके चंदामें विधन करना, शास्त्रोंकी मिथ्या समालोचना करना, ज्ञानी आचार्योंके वीतराग भावोंको दूषित बनाना, अपनी
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__२००१ जीव और फर्म-विचार । मौजमजाके लिये धर्मशास्त्रोंका (आगम विरुद्ध विधवाविवाह
आदि) रूपान्तर गढ़ना । मिथ्या मतको रढानेवाले मोर पापोंकी वृद्धि करनेवाले कपोलकल्पित लेख लिखना उन लेखोंको धर्मरहस्य के नामसे प्रगट करना । सर्वज्ञको वाणीमें संदेह कराना । जिना. गमके स्वरूपको अन्य मिथ्यामतके स्वरूपके साथ मिलानेका प्रयत्न करना इत्यादि सर्व कार्य करनेसे ज्ञानावरण कर्मका वध होता है। जैसे आजकल इस कार्यको पढे लिखे सुधारक अपने मनलबकी सिद्धि के लिये कर रहे है।
दर्शनावरण कर्मके वधके कारण (सक्षिप्त ) दूसरोंकी आंख फोडना, जिनेन्द्र भगवान की मूर्तिके दर्शन करनेमें विघ्न करना शराब पीना, दिवसमें शयन करना,दूसरों की संपत्ति देखकर रोना । आत परिणाम करना । मुनियोंकी निन्दा करना । मन्दिर वधाने को रोकना, पंचकल्याणके करानेमें व्यर्थ खर्च करवाना, रात्रिमें होटलमें खाना, अभक्ष सेवन करना, जातिपांतिका लोप फरना, शास्त्रोंकी प्रमाणता नष्ट करना इन्द्रियोंको छेदन करना मन्न पान रोकना । इत्यादि सर्ग दर्शनावरणके बंधके कारण है। दर्शनावरणके बंधके कारण अनेक है । ऊपर संक्षिप्तमें बतलाये हैं। और भी मन्दिरकी आवक बन्द करना, मूर्तिपूजाका लोप करना, पापका उपदेश देना, मन्दिरफा द्रव्य अपहरण करना ! पाप कार्यों को उत्तम पतलाना इत्यादि अनेक कारण दर्शनावरणके बन्धके कारण हैं । वर्तमान समयमें लोग अज्ञान भावसे या स्वार्थबुद्धिसे दर्शनावरण कर्मके वन्धके कारण यहुत करते हैं।
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जोव और फर्म-विचार। [२०१ । कुशिक्षासे ज्ञानवरण और दर्शनावरण कर्मके बन्धके कारण अनायाल ही मनुष्य स्वयमेव करने लगता है, कुशिक्षाले अज्ञान होता है । विवेक और विचार-बुद्धि नष्ट हो जाती हैं। जिससे वह जिनवाणीको वृद्धि को रोक कर ज्ञानावरण कर्मका चन्ध करता है । पण्डितोझी निन्दा कर और मुनियोंकी निन्दा फर प्रशस्त ज्ञानकी वृद्धिको रोकता हैं। इसलिये मानावरण कर्मका बन्ध फरता हैं। रात्रिमे अभक्ष भक्षण होटलमें करता है। जिन दर्श. नको रोकता हैं पाठशालाओंकी बुद्धिको अपने स्वार्थके सामने कंटक समझता है । इसलिये उनके चन्दामें विघ्न करता है यह सब ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्मके बन्धके कारण हैं। बु.शि. क्षासे ही शास्त्रों की मूखता पूर्ण समालोचना की जाती हैं यह भी प्रशस्त ज्ञानको दुषण लगाकर प्रशस्त ज्ञानको रोकता है यह सब ज्ञानावरण व दर्शनावरणके कारण हैं।
वेदनीकर्मके बन्यके कारण जीवोंको मारना, जीवोंकी दुख देना, यज्ञमें पशबघ करना, देवी देवता पर बलि चढाना, दसरोंक संपत्तिको अन्याय पूर्वक छीन लेने के लिये ( साम्यवाद ) वोलसेविजम जैसी दुर्नीतिको नीति मानकर श्रीमानोंकी हत्या करना, रोटोन्नतिके बहाने दूसरोंका धन संपत्ति लुटना, स्वतंत्रताकी प्राप्ति के बहानेसे जगतके भोले प्राणियोंको ठगना। पुण्य पापका लोपः करना, कर्मको नहीं मानना, परलोक नहीं मानना पढे लिखे होकर घूस लेकर दूसरे जीवोंको दुख देना, जिनपुजन करना, वात्लत्यभाव रखना, साथर्मा भाइयोंको धर्मबंधु समझकर सेवा करना
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२०२ ]
जीव और क-विचार |
प्रतिष्ठा करना, रथोत्सव करना, गजरथ चलाना, मुनियोंको दान देना, वैयावृत्य करना, उपवास करना, जिनेन्द्रपुजनको ग्राम पुण्य करना, तीर्थयात्रा करना, प्रभावना करना, व्रतोंको पालन करना इत्यादि सव वेदनकर्मके ववके कारण है ।
चेदनी कम दो प्रकार है - साता और असाता चेदनी । साता वेदनी का वध अच्छे कारणों के करनेसे होता है । और असाता वेदनी कर्मका बन्ध बुरे काम ( अनीति और असदाचार ) करनेसे होता है ।
मोहनी कर्मके कारण - ( दर्शन मोहनी कर्मके बंधके कारण ) देव में अवर्णवाद लगाना । श्वेतांवर दिगंबर और स्थानक चालियों को एकरूप बनानेके लिये देवके रूप में परिवर्तन करना, परिवर्तन करनेके लेख लिखना, मूर्ति (अरहत भगवान ) पूजा चंद करना मिथ्या देवों की प्रशंसा करना ( जैसे पढे लिखे अपनी प्रति ठाके लिये सब देवों की प्रशंसा करते हैं ) रजस्वला स्त्री से मग. वानकी पूजन व अभिषेक करनेका उपदेश देना, शूद्र के हाथसे भगवान की मूर्तिकी अवहेलना करना, भगवान की मूर्तिको तोड़ने का उपदेश देना, ग्लानि करना, मंदिरमें कामसेवन करना सो दर्शन मोहनो कर्मके बंधके कारण है ।
धर्मका स्वरूप परिवर्तन कर व्यभिचार ( विधवा विवाह ) में धर्म बतलाना जिनधर्म में श्रवणंवाद लगाना, आगमकी मर्यादा का लोप करना | आगमको मिथ्या बतलाना आगम में अवर्णवाद लगाना। गुरु मुनि और आचार्य महाराजको निंदा करना, मुनि
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जीव और कर्म-विचार।
[२०३
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योंको व्यभिचारजात कहना । संघका अवर्णवाद करना । व्यभि. चारियोंको ब्रह्मचारी कहना। श्रावको मलिन च फलंकितकरनेके लिये यागमको थानाको न मानना । सो सर दर्शन मोह. नीय कर्मके कारण है।
चारित्रमोहनीय कर्मके कारण-कपायके वश होकर धर्मके पवित्र स्वस्पको मलिन बनाना । धर्मकी पवित्रताका नाश करना, धावकको पवित्र क्रियाका लोप करना, मुनिक्रियाओंका लोप करना, वरणानुयोगके स्वरूपमें परिवर्तन करने के लिये जिनागम विरुद्ध धर्मका स्वरूप बनलाना, परिणामोंकी लग्न विषयकपाय और पापवासनामं लगाना, विषयकपायके सेवन करनेम धर्म मानना ।सो चारित्राइनायकर्मबंधके कारण है। ___ नीति, सदाचार, धार्मिक संस्कारका लोप करना, विवाहको सामाजिकबंधन बनलाकर आगमके विरुद्ध पाप-प्रवृति करना सो सब चारित्र मोहनीय कर्मके कारण है।
विधवाओंझा विवाह कराना, आचारसे भ्रष्ट करना, सो भी चारित्रमोहनीवर्मक वधका कारण हैं।
विना छाना पानी पीना, मांस भक्षण करना, प्रहके हाथका भोजन करना सो मी चारित्र मोहनीय कर्मक घंधका कारण है।
क्रोध करना, मान करना, लोभ करना यार मायाचारसे धर्मके मेषको धारण कर लोगोंको उगना-पाय मावोंसे लोगों को पापमागेमें लगाना सोभी चारित्रमोहनीयकमेके बंधके कारण हैं।
नरक आयुकर्म के बंधके कारण तीर्थका पैसा खाना, तीर्थ
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जीव और कर्म-विचार ।
का लोप कर अपना घर धनाना, तीथे पर मासादना करना, देव द्रन्यको भक्षण करना, बहुत ससारके बढ़ानेका पापमार्ग बतलाना हिंसादि पापोंका आरंभ करना अधिक मुजनित परिणाम रखना सो नरक आयुके बंधके कारण हैं।
मुनियोंको उपसर्ग करना, शीलसे भ्रष्ट घराना, आगमको जलाना आगम शास्त्रों पर सोना, आगम शास्त्रको पावोंसे कुचलना, आगमके अर्थमें मनमाना भाव मिला देना सो भो नरकायुके वधके कारण हैं।
त्यिंच आयुकर्मके बंधके कारण-मायाचारसे रहना मायासे धर्मभेष धारण कर पापाचरण सेवन करना, कुटिल परिणाम रखना, सो सब तियंच मायुकर्मबंधके कारण है।
मनुष्य आयुकर्मबंधके कारण-संतोषसे नीति पूर्वक चलना, धर्मका पवित्रताका उद्देश्य रखकर अपना व्यापार-व्यवहार चालवलन पवित्र रखना, देवपूजा गुरुसेवा स्वाध्याय सयम और दान करना भगवानकी आज्ञाको मानकर आगमविरुद्ध नहीं चलना, शीलव्रत पालना जीवोंकी दया करना, सत्य बोलना लो सब मनुच्य मायुके कर्मबंधके कारण हैं।
देव आयुकर्मवधके कारण-जिनधर्मका उद्योत करना जैन. “धर्मकी प्रभावना आगमके अनुकूल करना, तपश्चरण करना सम्य. ग्दर्शनकी विशुद्धि रखना, भगवान की पूजा करना गुरुसेवा-( वया• पृत्य ) करना, जिनमदिर और जिनायतनोंकी रक्षा करना ज्ञानी विद्वानों (जो धर्मके पंडित हैं) की सेवा करना, वात्सल्यभाव
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जीव और कर्म-पिवार। [२०५ धारण करना, जिनागममें संदेह नहीं करना, धर्मके स्वरूपमें वितं. डावाद कर धर्मकी पवित्रताका नाश नहीं करना, प्राणोंसे अधिक प्यारे धर्मकी रक्षाके लिये सदैव तैयार रहना, तन मन धन धर्मकी रक्षा और उन्नतिमें लगाना सो देव आयु फर्मबंधके कारण हैं।
शुभ नामके बंधके कारण-मन वचनकायकी प्रकृति सरल व भोली रखना, ज्ञानके दुरुपयोगसे मन वचन कायफी प्रवृति वंचल धर्मविरुद्ध नहीं करना, बुद्धि व ज्ञानको विवेक पूर्वक रखना दूसरोंके दिव्य रूपको देखकर हसना नहीं, आंगोपाग छेदन नहीं करना, नासिकादि नहीं काटना, मुनिके शरीरको देखकर ग्लानि नहीं करना, रोगी मनुष्यको संवा करना, दुखी जीवोंकी रक्षा करना, पोडशभावना भाना, दशधर्मको पालन करना, देव गुरू और थागमकी श्रद्धा करना, साधर्मी भाइयोंकी रक्षा करना, सो सव शुभ नामकर्मवधके कारण हैं। ____ अशुभ नामर्मवधके कारण-मन वचन कायको वक्र रखना दूसरोंको देखकर हंसना, रोगी मनुष्यको मार देना, दुखी मनुष्यके मारनेमें धर्म क्तलाना, पागल कुत्तोंको मारनेमें धर्म बतलाना, असमर्थ प्राणियोंको मारनेमें इपित होना, जातिशंकरके कार्य करना, विजातीय विवाहका उपदेश देना, विधवाविवाहके प्रचारसे शील भ्रष्ट करना, यममें जीववधका उपदेश देना, धर्मात्मा भाइयों को पीडा देना, धर्मात्मा भाइयोंके साथ विसंवाद कर मनमाना पापकर्म करना व भोली समाजसे पापकर्म कराना सो सब अशुभनामपर्मवधके कारण है।
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जोच और कर्म-विचार।
ऊच गोत्र फर्मबंधके कारण-पवित्र सदाचारका उपदेश देना जनतामें पवित्र सदावारकी वृद्धि करना अपने कुलफा गौरव रख. कर कुलमे मलिन काय (विधवा विवाह विजातीय विवाह ) कर कलंकित नहीं करना । व्रतोंकी रक्षा करना। शीलवतोंको महिमाका प्रचार करना। जैनयिधिले विगह कराना, संस्कारोंकी वृद्धि करना, गुरुओंकी रक्षा करना, धर्मायतनों की रक्षा करना, गुरुओंकी आज्ञा शिरोधार्यकर किरी भी भाईले विसंवाद नहीं करना, साधर्मी भाइयोंके साथ निष्कपट व्यवहार करना सदावा. रकी समस्त क्रियाओंका पालन करना सो ऊचगोत्रका कारण है।
रसोईकी शुद्ध क्रियाको लिये जितना उत्तम और उत्कृष्ट विचार किया जावेगा उतने ही परिणाम ऊंचगोरके अधिक होंगे।
शूद्रके हाथका पानी नहीं पोना, मलिन और रजस्वलाके हाथ का पानी पीना, विनाछाना पानी नहीं पीना, निद्य लोकके हाथका पानी नहीं पीना, मुर्दा जलाकर आये हुए-अशौच (शुद्धि नहीं की) मनुष्य के हाथका पानी नहीं पीना, मलिन आहार (वजारकी पूडी आदि ) नहीं भक्षण करना-पिडशुद्धि पालन करना, वस्त्र शुद्धि मनशुद्धि रखना और पंवपरमेष्ठीकी विनय करना सो सब अच गोत्र हैं।
नीच गोत्रके कर्मबंधके कारण-मलिनाचार धारण करना अभिमानसे अन्य दीनहीन प्राणियोंको तुच्छ समझ कर उनको हानि पहुंचाना । उनको मारण ताडन करना अपने कुलमें दुष्ट काम करके पलक लगाना सदाचारमें बट्टा लगाना, भोले भाइयोंको
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जोध भी कर्म विचार ।
[ २०७ पतिन करना धर्म भ्रष्ट करना, शीलको मर्यादा लोवना, खान पानमें विवेक नहीं रखना, नीच मनुष्य के साथ भोजन करना, समक्ष सेवन करना, मद्य मास मधु सेवन करना, अनार्य लोगोंका उच्ष्टि पाना, मर्यादा विरुद्ध पदार्थ सेवन करना, साधर्मी माइयोंसे तकरार कर उनको पवित्र आचरण से गिराना, संस्कार लोप करानेके लेख लिखना, कुलात्ययका नाश करना, बिना छाना पानी पीना, अपनी प्रशंसा करना और दूसरोंकी निंदा करना सस्कृत नहीं पढे लिखे होने पर भी अपनेको मानी संस्कृतका पंडित प्रगट करना, और संस्कृत पढे लिखे ज्ञानियों की रिल्लो उडाना, अपने निय पापमय मलिनाचारोंको छिपाना, और दूसरोंके उत्तम आचा• शैको मलिन बनानेका प्रयत्न करना, धर्मको पवित्र आशा अपने झानकी दुर्मदनाले अवनित्र पनाना, हीनाचार और पतित अवस्था दूसरे भोले भाईकी फरके हमना दूसगेका घर जलाफर तापना, ट्रेनरोंकी सपत्ति पुत्र मित्रोंको देखकर झडना, आमर्ष करना, हेप करना, मत्सरभाव रखना इत्यादि सर्व नीचगोत्र के कारण है । फुशिक्षासे प्राय पढ़े लिखे ( अपनेको ज्ञानी व पंडितकी मार कर अपना मतलव घनानेवाले ) ही मनुष्य नीन्रगोत्र कर्मके कारणको अधिकतर उत्पन्न करते हैं। भविष्य में तो नीवकुटमें जन्म लेवेंगे ही। परन्तु इस वर्तमान मीच बनने में दो अपना सौभाग्य समझते हैं। अस्पर्श मनुष्यों के साथ खान पान करते हैं ।
पर्याय में भी तो वे
और प्रत्यक्ष नीव
अन्तरायकर्म धके कारण - दानादिक पवित्र कायोंमें विघ्न
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२०८]
जीव और कर्म-विचार। करना, भोगोपमोग संपदामें विष्ट करना सो अन्तराय फर्म है।
दानान्तरायकर्म-मुनियोंको दान करने में :विघ्न फरना, धर्म, तीर्थके दान कार्य में विघ्न करना, जिनायतन और सप्तक्षेत्रमें दान फरते हुए रोकना, मंदिरका द्रव्य जो तीर्थयात्रा-रथोत्सव जीर्णो. द्धार प्रतिष्ठा और नित्य पूजनके लिये रखा है उसका भक्षण करना, तार्थ के प्रबंधक बनकर तीर्थका द्रव्य खाना आवश्यक धर्म कार्य बतलाकर चंदा एकत्रित करना और उसको खा जाना, पैसा कमानेके लिये नेता धनता सो सर दानात्तरायकर्मके बंधक कारण हैं। ___ भोगातराय-दूसरोंके भोग पदार्थों को देखकर लालायित होना भोगोंके सेवन करने में विघ्न करना । नगर दाह करना, दूस. रोशो खाते-पीते फले फले देख कर उनको हानि पहंचानेका इगदा परना, सो भोगांतराय कर्मवधके कारण है।
उपभोगांतराय-दूसरोंके उपभोगोंके सेवन करने में विघ्न फरना दूसरोंकी स्त्रीको ताकना । अन्नपानका निरोध करना, पींजरे में पक्षियोंको रखना लो सब उपभोगांतराय है।
वीर्यान्तराय-व्रत तप आदिके धारण करने में शक्ति होनेपर भो अपनी असमर्थता प्रकट करना दूसरोंके व्रत भंग करना, इन्द्रि. थोंका छेद करना, विधवा विवाह कराना, भोगविलालोंमें मन होना । धार्मिक आचरणोंको ढोंग बतलाना, पशुओंके लिंगको पाटना, भोगोंकी (विषय कषाय ) लालसासे मन्न होकर अनुभ. घानंद प्रकट करना सो घीर्यान्तराय कर्मबंधके कारण हैं।
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जीन और फर्म-विवार। [२०६ प्रत्येक प्रकृतियोंके संक्षिप्त आश्रवफा दिग्दर्शन ऊपर किया है कितने ही कार्य ऐसे होते है कि जिनसे शुभकर्म प्रकृतिका बंध होता है । और क्तिने ही कार्य ऐसे हैं कि जिनसे केवल ससारको बढ़ानेवाला वध होता हैं। कितने कार्योंसे सप्त परमस्थान प्राप्त होते हैं। इसलिये समस्त कार्यों का वध करनेवाले कारणोंशा स्वरूप संक्षिप्तमें यतला देना परमावश्यक होगा।
सबसे दीर्धतर बंध मिथ्यात्य सेवन करनेसे होता है। कुदेव कुशास्त्र-कुगुरुका संवा करना, सूर्य ग्रहणमें दान करना, गगाम स्नानकर धर्म मानना, सती होना (जल मरकर ) जैनधर्मको हंमी फरना, मुनीश्वरोंकी निन्दा करना, शास्त्रोंकी प्रमाणता और पवित्रतायो नष्ट करना कुशिक्षामें दान देना जिल शिक्षासे धर्मशास्त्रका बडन पिया जाय । और सदाचार पुण्य पाप तथा उनके फलोंका पेच करना, केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष पदार्थोंको मानना आदि नास्ति भावों का पैदा करनेवाली विद्याका कुशिक्षा कह. से हैं। अपात्रम दान देना, मिध्यामागेको बढ़ाना, धर्मशाल विरुद्ध कार्य करना, राजाके विरुद्ध पटयंत्र रचना, वन दाह करना, क्तले याम मचाना, मक्खियोंके छत्ताको तोडना कसाईखाना खोलना, मंदिर तोड़ना, शास्त्रोंपर सोना ,खाना पीना, मूर्तिको तोडना, मुनिहत्या करना मास खाना, झूठे दस्तावेज बनाना । मलिन मापाचारपूर्ण भाव रखना अति रौद्र परिणामसे ससा. रफो हानि पहुचाना धर्मात्मा भाइयोंको ठगना इत्यादि, सर्व दीर्थ ससारके कारण है।
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२१०] जीव और कर्म-विचार । । संस्कारोका पालन करना जैनधर्मको पवित्र भावोंसे सेवन करना, देव शास्त्र गुरुको श्रद्धा करना, जिनपूजन करना, व्रतः धारण करना, सम्यकदर्शनके आठ अंगोंका पालन करना, प्राणोंकी. नोछावर कर जिनधर्म और जिनायतनोंकी रक्षा करना, धर्मायतनो में दान देना, सप्तक्षेत्रको पुष्ट करना, जैन धार्मिक विद्यालय और धर्मात्मा पंडितों की तन मन धनसे प्रेमपूर्वक सहायता करना सो सब संसारको त करने के कारण है। पुण्यकाय है।
पुण्यप्रकृतियोंके उदयसे जीवों को सुख प्राप्त होता है । और पाप प्रकृतियों के उदयस जीवोंको दुःप प्राप्त होता है। धन भोग संपदा स्त्री पुन मित्र महल हाथी घोडा रत्न, नोकर चाकर भादि साधन पुण्यकमेके फल हैं। दुख दरिद्रता पुत्र वियोग, स्त्री वियोग-रोग अल्पायु-चिता शोक संताप-अनिष्ट संयोग आदि पापक मोका फल है। इसलिये पुण्यकार्यको सदैव परते रहना
चाहिये । भावोंकी संभाल रखबर पुण्यकार्य करना चाहिये । परि__णामोकी निर्मलताके साथ पुण्यकार्य किये जाय तो अचित्य फल प्रदान करते हैं। पुण्यकार्यों में गृहस्थोंके लिये दो मुख्य कार्य है पूजा और दान । पटआवश्यक कार्य ये सब पूजा और दानके ही भेद हैं व्यापार और पंचसूना पापोंसे जो परिणामोंमें मलिनता प्राप्त होती है, वह जिनपूजन और दानसे नष्ट हो जाती है परिणामोंमें निर्मलता आती है यहापर दान शब्दका अर्थ सुपात्र. दान या सप्तक्षेत्र दान ही समझना चाहिये, कुपात्र और कुशिक्षामें प्रदान किया हुभा दान मिथ्यात्वका कारण होनेसे उलटे परिणा..
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जाव और धर्म-विचार। [२२१ मोको मलिन बनाना है जिससे नरकादि दुर्गनि होती है। "बंध -कृपेवर क्षिप्त" सधा कुआमें धनको जानबूझफर पटक देना और सुखी मानना अच्छा है परंतु कुशिक्षा । धर्मविरुद्ध शिक्षा शिक्षितोंके छोडिंग स्कूल और मिथ्या अन्योंको पढ़ाई के लिये दान देना अच्छा नहीं है ) और लपात्रमें दान देना अच्छा नहीं है।
लोग पुण्यके फल सुस्न धन संपत्तिको चाहते हैं परंतु पुण्य परना नहीं जानते या पूण संपादन परना आता नहीं है । भगवानकी पूजा और पात्रदानको भूलकर व्यसनोंकी वृद्धि दान देते है । स्वाध्यायके बदले उपन्यास व अखबार पढ़ते हैं। पूजाके बदले व्यभितारके प्रचारकी बातें करते हैं।
इसी प्रकार फल दुम्ब दरिद्रता रोग शोफ पीडा आदिको चाहने नहीं है। परंतु परते है पाप! परस्त्री सेवन, हिंसा-ठ चोरी और पापाचरणोंको सेवन करते हैं । परंतु पापकार्योंसे सुख नहीं प्राप्त होता है। दुख दूर नहीं होता है। दरिद्रता नष्ट नहीं होती है। किसी कविने कहा है कि
पुण्यस्य फल मिच्छंति पुण्यं नेच्छंति मानवाः । पापस्य फल नेच्छति पापं कुर्वन्ति मानवाः ।। अर्थ-मनुष्य पुण्यके फल सुखको तो चाहते है। परंतु पुण्यकार्योको नहीं करते हैं । पापके फलको तो नहीं चाहते हैं परंतु 'पाप कार्योको करते ही हैं। __ मान बडाईके लिये विषयवासना और कपायकी पुष्टि में एवं संसारफी वृद्धि में मनमाना धन खर्च करता है फज करके दान
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११२]
जीव और कर्म-विचार । फरता है। शक्तिसे अधिक कार्य करता है। कैदमें जाता है। राज्य विद्रोह मचाता है लोगोंको प्यारी २ मोहक बात सुनाता है
और धर्मके लिये एक पाई नहीं देता है । वरांडी भिस्की आदिकी मिजमानी दिल खोलकर मान वडाईके लिये करता है । उच्च कुलो. त्पन्न पढ़ा लिखा युवक मान वडाईके लिये मालका भोज देता है हजारों रुपया लुटाता है परन्तु धर्म कर्ममें एक पाई देना नहीं चाहता है। यह सब मिथ्यात्वके भावों को व कुशिक्षाकी लि. हारी है। ___इसलिये आवाोंने बतलाया है कि भाई धर्म, प्रतिष्ठा लोभ
और माशासे अधिक कीमती है उसको वरावर पहिचान बरा. वर परीक्षा कर निश्चय कर, अनुभव कर, निर्धारित कर, फिर मी बहुनसे पढे लिखे ( अपनेको ज्ञानोका नगाड़ा अपने मुंहके द्वारा ही पीटने वाले) कुशिक्षित स्त्रीके लोभमें धर्मको छोड देते. है। जानि पतिका लोप करते है छुनातका झगडा मिटाना चाहते हैं। जगले टुक्डेके लिये चट पट धर्मको छोड़ देते हैं। जरासी वाह वाहीके लिये धर्ममें कलंक (विधवाविवाह आदि द्वारा ) लगाते हैं। यह सब कुशिक्षाका फल है। ___ आचार्योंने गृहीत मिथ्यात्वका मार्ग कशास्त्रांका अध्ययन' बतलाया है । वर्तमान समयकी पश्चिम पद्धतिको शिक्षामें कुशास्त्रोंका हो खुलम खुला पठन पाठन होनेसे कोमल बच्चों व वाल. कोके हदयमें ग्रहीत मिथ्यात्वके अंकुर स्वयमेव उत्पन्न हो जाते है इसका फल यह होता हैं कि कुशिक्षाकी वासनासे धार्मिक
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जीव और कर्म- विचार ।
[ २१३
भाव उठ जाते हैं । और मास भक्षण मंदिरा पान, मोजमजा के भाव जाग्रत हो जाते है । रात्रिमें भोजन करना नीच मनुष्य के हाथ का खाना पाप कर्मों में धर्म मानना आदि समस्त दुराचरण आजाते हैं। और ऐसे भावोंसे हो तीव्र कर्म बन्ध होता है । इसलिये विवेक पूर्वक चलना चाहिये | सद्बुद्धिसे कार्य करना चाहिये । सदाचार और नोति मार्गको भूल जाना नहीं चाहिये । व्यभिचार धर्म नहीं मानना चाहिये । जिससे अनत संसारका बघहो । भव्य प्राणियोंका प्रधान कर्तव्य है कि जहां तक हो मिथ्यास्वका सर्वथा त्याग करे । तथा पुण्य कर्मों को मोक्षमार्गकी अभिलाषा ( उद्देश्य ) से सेवन करे । अपने कर्तव्य पवित्र और उत्तम बनायें सच्चरित्र वने और सर्व समाजको या जीवमात्रको सच्चरित्र बनाने का उपदेश देवे । सब जीवोंको आत्मबंधु समझकर सन्मार्ग पर लानेका प्रयत्न करे । यह नहीं कि हाथमें दीपक लेकर स्वयं कुममें गिरे तथा भोले भाइयों को भी कुआमें गिरानेका प्रयत्न करे ।
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जो लोग पुण्य पापको जानते हैं, वे कर्म बंधको जानते हैं वेही संसार और मोक्षको जानते हैं, सुख दुखको जानते हैं, भलाई बुराई को जानते हैं । हिताहितको पहचानते हैं, कर्तव्य और अकर्तव्यको जानते हैं ।
"जिनको सुखी होने की इच्छा है। जिनको दुखोंसे डर है जिनको संसारका अन्त करना है जिनको अपनी उन्नति करना है | जिनको स्वतन्त्र बनना है उनको चाहिये कि सर्व संकल्प विकल्पों
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२१४ ]
को छोड कर और देव शास्त्र गुरुका श्रद्धान र पुण्यके कार्य देव पूजा सत्पात्रमें दान, शुद्ध अन्न पान सेवन, आचार विचारोंकी शुद्धता, पिंड शुद्धि कुल शुद्धि जानि शुद्धि आदि को कायम रखकर सदाचार और सच्चरित्रले अपनी आत्माको भूषिन करे । पापाचरणोंको छोडे । कुशिक्षा में धन व्यय न करे । कुसंगति से हवे ।
जीव और कर्म विचार |
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पुण्य प्रकृतियोंके नाम, जिनसे जीवोंको सुख प्राप्त होता है
सातावेदनीय १ मनुष्यायु २ देवायु ३ तिर्यगायु ४ मनुष्यगति ५ देवर्गात ६ पंचेंद्रियजाति ७ पांच शरीर १२ तीन अंगोपांग १५ निर्माण १६ समचतुरस्त्रसंस्थान १७ वज्रनृपभनाराच संहनन १८ प्रशस्त स्पर्श १६ प्रशस्त रस २० प्रशस्तगंध २१ प्रशस्तवर्ण २२ मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व २३ देवगति प्रायोग्यानुपूर्व २४ अगुरुलघु २५ परघात २६ आताप२७ उद्योत २८ श्वासोच्छ्वास २६ प्रशस्नत्रिहायेोगनि ३० प्रत्येक शरीर ३१ त्रस ३२ सुभग ३३. सुस्वर ३४ शुभ ३५ वदर ३६ पर्याप्त ३७ स्थिर ३८ आदेय ३६ यशकीर्ति ४० तीर्थंकर ४९ ऊंच गोत्र ४२,
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इस प्रकार ४२ प्रकृति पुण्योत्पादक मानी है इन प्रकृतियोंके उदयले जीवों को सुखकर पुलों शुभकर्मो का संबंध होता है । सव प्रकार के साधन प्रशस्त और उत्तम प्राप्त होते है
- पाप प्रकृतियोंके नाम, जिनसे जीवोंको दुःख प्राप्त होता है पंचज्ञानावरण ५ नवदर्शनावरण १४ सोलहकषाय ( अनंतानुबंधी क्रोधादिक ) ३० नोअंकपाय ( हास्यादिक ) ३६ मिथ्यात्वं
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जोव और कर्म-विचार |
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४० पात्र अन्तराय ४५ नरकानि ४६ दियंगनि ४७ वार जाति ( एक इष्ट्रिय दो इन्द्रिय तीन- इन्द्रिय चार इन्द्रिय ) ५१ पाच संस्थान ५ पांच संहनन प्रस्तपर्ण ६२ अप्रस्नग्स ६३ सप्ररास्तगंध ६४ अप्रशस्त वर्णं ६५ नरकगति प्रायोग्यानुपुष्ये ६६ तिर्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य ६ उपधान ६८ न विद्यायोगति साधारण शरीर ७ स्थावर ७१ दुभंग ७२ दुस्वर 03 अशुभ ७३ सूक्ष्म ७५ पति ७६ बस्थिर 95 बनाय ७८ अयशस्वीति ce असातावेदनीय ८०नोवगोत्र ८१ नरकायु ८२ इनकार ये ८२ प्रकुति पापोत्पादक मानी है इन प्रकृतियोंके उदयसे जीवों से दुखकर साधन उत्पन्न होते हैं इसलिये इनका यंत्र नहीं करना चाहिये। इन प्रकृतियोंके तंत्र होने के जो कार्य बताये गये हैं उन्हें नहीं करना चाहिये | फिर कारणके अभाव में कार्य भी नहि होगा। जब बुरे कार्य नहीं करोगे तो बुरे कर्म भा नहीं वधंगे ।
सारासारका विचार |
कार पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृतियों का निदर्शन कराया है, far कार्योंसे केवल पाप कर्मोंका या हो जीवोंको दुर्गति प्राप्त हो, रोग शोक संताप और दरिद्रता प्राप्त हो, ऐसे कार्य - हिला झूठ चोरी कुशील पापाचरण अभक्षमक्षण अन्याय सेवन - सप्त व्यसन मद्य मांस मधु भक्षण रात्रिभोजन और जिनागम तथा जिनगुरुले द्वेष आदि भयंकर पापकायको यथाशक्ति महर्निश छोड़नेशा ध्यान करना चाहिये विचार करना चाहिये । और यथासाध्य छोड़ना चाहिये |
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जीव और कर्म-विवार।
आत्माका स्वभाव और आत्माका स्वरूप पर वस्तुसे सर्वथा, भिन्न है शुद्ध वुद्ध ज्ञायकस्वभाव टंकोत्कीर्ण निर्मल अचलं विमल परम बीतराग निरंजन परम पवित्र और सर्व उपाधि रहित सुख मय शातिमय ज्ञानमय दर्शनमय अनंतवीर्यमय चिदानदमय अक्षय अनंत स्वभाव मय आत्मा है। वह न तो पुण्यमय है और न पाप मय है। पुण्य पापसे सर्वथा भिन्न है। संहारके समस्त पदार्थ मात्माके एक भी उपयोगी नहीं हैं। कोई भी पदार्थोले आत्माका संबंध नहीं है जिससे कि आत्माको इन संसारी पाप पुण्य पदा. थोसे लाभ या हानि होसके इसोप्रकार आत्मा अजर अमर अक्षय है निराकार है अमूर्तीक है अनादि निधन है। अव्यय है अनत है इसलिये औत्मा न तो स्त्री है न पुरुष है न नपुंसक है न गोरूप हैं, न नरक रूप हैं न देवरूप हैं न नियंवरूप है न क्रोधी हैं न मानी है न लोभी है न मायावी हैं। इन समस्त प्रकारके जालसे रहित परम विशुद्ध स्वस्वभावमें परणत ज्ञानदर्शनमय है । यह शुद्धा. त्माका स्वरूप है। परन्तु संसारी आत्मा कर्मोसे बद्ध है। । इसलिये पुण्यकर्मके उदयमें हर्षित होना, या पापकर्मके उद. यमें दुखी होना, संतापित होना यह विवेकी पुरुषका कार्य नहीं है पुण्य पाप दोनोंप्रकारकी परणात पर अपने भावोंको न रखकर पुण्य पाप फलोंकी इच्छाका परित्याग कर अपने आत्म स्वरूपकी. भावना करना चाहिये।
इस लिये किसी भी पदार्थ में राग नहीं करना चाहिये किसी भी पदार्थको आत्मस्वरूप नहीं समझना चाहिये। किसी भी पदा
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जोव और फर्म- विचार ।
[ २१०
को सुग्ररूप नहीं मानना चाहिये (क्योंकि सुख एक आत्माकाही धर्म है ) किसी भी पदार्थ की प्राप्तिको इच्छा गर्दी करनी चाहिये या ससारके पार्थाकी प्राप्ति के लिये लालसा नहीं रखना चाहिये ममत्व भी परिणामोंसे किसी पदार्थ सेवनका न करना चाहिए किसी भी पदार्थको प्राप्ति के लिए आरि णाम नहीं करना चाहिये । अमुक पदार्थ की प्राप्ति नहीं होगी तो मेरा अनिष्ट दोगा मरण होगा इस प्रकारको भावना नहीं करना चाहिए ।
कोई भी किसीका दुश्मन नहीं है कोई भी किसीको छानि नहीं पहुचाता है न कोई किसीको मार सक्ता है न किसीको कोई जन्म देवका छैन कोई किसीका पालन पोषण कर शरणभून रख सता है इसलिए किसी के साथ द्वेष नहीं करना चाहिए। किसी भी पदार्थ की प्राप्तिसे शोकातुर नहीं होना चाहिए ।
पदार्थोंके स्वरूपये जाननेवाला भव्यजीव समस्त पदार्थोंसे अपने मित्र समझे समस्त पदार्थो का कर्ता या भोक्ता नहीं माने मैं इस पदार्थका भोगनेवाला है ऐसा भी विचार अपने भावों में नहीं रखे । अपनेको सर्व पदाधसे सर्वथा अलिप्त माने । धन पुत्र मित्र गृह स्त्री ये तो प्रत्यक्ष भिन्न है ही परन्तु अपने शरीरको भी अपने से सर्वथा भिन्न माने-इतना ही नहीं द्रव्यकर्म और भाव कर्म अथवा मतिज्ञान आदिके भावोंको भी अपना स्वरूप नहीं माने । इन्द्रिय और मनके कार्य भी अपने नहि है ऐसा सर्वथा जाने | इसलिए इन्द्रिय और मनके संतोषार्थ हिंसा झूठ चोरी
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२१८ ]
: जीव और कर्म विचार ।
पापाचार - कुशील- अन्याय -- अनीति-कपट विश्वासघात मारन ताडन आदि पापकर्मो को कभी नहीं करे ।
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परन्तु जीव इस समय अशुद्ध अवस्थामें है कर्माधीन है इसलिए ऐसा व्यवहार ऐसी नीति और ऐसे आवरणोंको करे जिससे आत्मा अपने स्वरुपको प्राप्त होजाय ! अपने अनंतज्ञान- अनंतदर्शन अनंतवीर्य और अनंत सुख एवं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूप निधिको प्राप्त होजाय । अजर अमर अक्षय अनंत अविनाशी अविनवर नित्य निराबाध-नि प्रकंप मचल वन जाय । इसलिए पुण्यकार्यों की प्राप्तिके लिए उद्योग बरे क्योकि पुण्यके बिना जिनधर्मकी प्राप्ति नही होलकती है, पुण्यके बिना श्रावक कुल प्राप्त नहीं होता है पुण्यके बिना नीरोग शरीर प्राप्त नहीं होता है पुण्यके बिना सप्त परम स्थानोंकी प्राप्ति नहीं होती है पुण्यके विना आचार विचार और धर्मको धारण करनेवाला उत्तम गोत्र प्राप्त नहीं होता है।
पुण्यके बिना निराकुलताके साधन स्त्री पुत्र धन संपदा प्राप्त नहीं होती है। पुण्यके बिना ध्यानके लायक उत्तम संहननोंकी प्राप्ति नहीं होती है। पुण्यके बिना पूर्ण आयु प्राप्त नही होती हैं । पुण्यके बिना मोक्षमार्ग के समस्त साधन प्राप्त नहीं होते हैं पुण्यके 'बिना जगत के परम उपकारी निःकारण चंधु परम पवित्र दिगंबर गुरुओका समागम भी नही होता है जिससे जीव धर्मको ग्रहण कर संसारके दुःखोंसे छूटकर परमसुखको प्राप्त हो । पुन्यके बिना भगवानकी पूजा और सत्पात्र में दान देनेके भात्र तक नहीं
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जीव और कर्म- विचार |
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होते हैं पुन्य विना श्रावकाचारको आशाको पालन करनेके भाव नहीं होते हैं बल्कि श्रावकाचारकी आज्ञाको मलिन और दुष्ट बनानेके भाव होजाते है । पुन्यके बिना रसोई की शुद्धि-चौकाकी शुद्धि अन्नपानी शुद्धि पिडशुद्धि सस्कार शुद्धि और भात्रोंकी शुद्धि नहीं होती है । इसलिए आचार्यो की जगतके भलाई के लिए एक यही आज्ञा है कि भव्यजोवो अपना सुख चाहते हो तो पुण्य संपादन करो। जिनपूजन करो। सत्पात्रमें दानदो स्वाध्याय करो । उपवास करो अपनप करो । कुशिक्षाको एकदम त्याग करो कुसंगतिको छोड़ो। मिध्यात्व को छोड़ो। जिनागमकी आज्ञा सर्वच प्रभुकी आज्ञा समझकर एक अक्षरकी भी शंका मन करो । अपने ज्ञान और बुद्धिमें पदार्थों के समझने की ताकत न हो तो मोह जाल में पड़कर आगमको फलकित करनेका उद्योग मत करो अपनी आत्मा पर सबसे प्रथम दया पालो जो स्व ( अपनी आत्मा की) दिसाका त्याग होगा तो संसारके समस्त जीवों की हिंसाका त्याग होजायगा जो स्वआत्माकी ( अपनी आत्माकी ) दया पालनकी जायगो तो संसारके प्राणी मात्रको दया पालन हो जायगी। परन्तु यह पापी जीवड़ा दूसरोंके उपकार भावोंको दिखाता हुआ (मान घडाई या स्वार्थ के लिए ) दूसरों की दया करने का ढोंग खूब पीटता है परन्तु अपनो आत्माकी दया व मात्र नहीं करना है । मायाचारसे दुनियांको ठगता है । कहता है कि स्त्रियों पर दया करो और भावना रखता है उनके साथ व्यभिचार सेवन करने की। कहता है कि अपनी उन्नति करो और
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२२०] जीव और धर्म-विचार । वाहता है उनसे प्रतिष्ठा धन तथा मौजमजा। कहता है कि धर्म करो और उपदेश देता है ( मलिनवासनाकी भावना मनमें रख. कर ) कि इंद्रियोंको पुष्ट किए बिना शरीरमें कुवत नहीं होगी और उसके बिना धर्म नहीं होगा। कहता है कि समाजकी संख्या घटी और इशारा करता है मिथ्यादृष्टि मद्य मास भक्षण करनेवालों के साथ भोजन पान करनेको। कहता है देवकी पूजा करो परन्तु एकातमे बतलाता है कि ये सब ढोंग है। कहता है कि देवको पहिवानो परन्तु दिगंबर श्वेतावर या अन्य समस्त देवोंकी विनय करनेके कार्य करता है । ऐर लेख लिखता है जिससे देवकी 'परीक्षा न होसके । फहता है मैं जंनी हू परंतु देव गुरु और शास्त्रको मानता ही नहीं । वहता है मैं जैनियोंश पडित (मंने जैनियोंके धर्मकी विद्या सोखनेके लिए और धर्मकी सेवा करनेके लिए हजागे काया समाजके दान धर्मके खाए ) और मानता नहीं है जिनागम । तथा जिनागमकी नय निक्षेप प्रमाण कोटिको प्रमाण नहीं मानता है आगमको ही तोड़कर आगमकं विरुद्ध मलिन कार्योको आगममें प्रवेश करा देना चाहता है सत्यको नष्ट कर
में धर्म बतलाना चाहता है, कोई जातिपाति तोड़ने में समुन्नति बतलाता है और इसके द्वारा धर्म कर्म एव पवित्र आचरणोंको नष्ट करना चाहता है। कोई स्वराज्यप्राप्तिका प्रलोभन देकर खादी पहरनेमे धर्म बतलाता है राजद्रोह करनेसें धर्म बतलाता है कैद नानेमें धर्म बतलाता है आत्महत्या और पर हत्यामें धर्म बतला. ता है कोई कहता है कि हमारे हृदयमें दया है, हम सबको एक
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जीव यौर धर्म.विचार । अपने अन्तरंगका पवित्र रखो मनकी शुद्धि करो। ज्ञानको शुद्धि करो। फिर अपने आवरण शुद्ध करो तो पुण्यकर्म संपादन कर सकोगे।
जिनका मन मैला है। जिनका हृद्य कलुषित है, जिनका पेट साफ नहीं है जिनके माव मैले है जिनके परिणाम मलिन है जिनकी बुद्धिपर कुशिक्षा और कुसंगतिका मैलो परदा पड़ा है वे धर्मका कितना ही ढोंग बतलावे परन्तु वे धर्म कर्मको जानते हो नहीं। वे पुण्य और पापको समझतेहा नहीं है । और इसीलिये वे पुण्यकार्यको करना नहीं चाहते हैं। तथा पापकर्मको छोड़ना नहीं चाहते हैं।
हे भाई! जो तू अपना हित चाहता है तो सत्यभावोंले धर्मकी परीक्षा कर । सत्याल्त्यका विद्यारकर राग द्वेष पक्षपातको छोड़ कर विचार कर । नय निक्षेपके द्वारा वस्तु स्वरूप विचार अपना मतलब या दुष्ट अभिप्रायको लामने मत रत! मनको पवित्र रख कर और वुद्धिकी पवित्रताको बराबर स्थिर रखकर धर्मको परोक्षा कर। अपनी वुद्धि ( मलिन दुद्धि) के योग्य तर्क पर विश्वास मत कर किंतु अपनी बुद्धि और ज्ञानको आगमके अनुकूल रख कर तर्क कलौटीपर धर्मकी परीक्षार । अपने पवित्र भावोंकी अनुभव अग्निके द्वारा धर्मखरी सुवर्णको तपाकर परीक्षाकर परतु अहिल. मदोन्मत्त और स्वच्छ बनकर धर्मकी परीक्षा मृतकर, देखाना जो तूने लोगोंके देखादेखी मदोन्मन बनकर धर्मकी परीक्षाकी तो त सबसे प्रथम अपनी आत्माकोही ठगेगा ठहर जरा धैर्य रख जरा सोचविचार
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• जीव और कर्मविचार। [२२३ कर कार्यकर । खुय गहरा विचारकर' मनको स्थिर रखकर विचार कर बुद्धि परसे रागद्वेषका परदा उठाकर विचार कर और सत्य भावोंसे अपने हितको पहिचान अपनी मलाई घुराई अपना सुख दुग्न अपना मार्ग कुमार्ग देख । जो उत्तम हो जिसमें निराकुलता हों जिसमें संत्यता हो, जिसमें दुख नहीं हो, जिसने आत्मा पसिन' न बनना हो, जो संमारके मार्गको नहीं बढ़ाना हो, जो कर्मका नाश भारला हो, जो आत्माको निमल यनाता है । जो अननमानदर्शन सुनवीर्य प्रकट करता ह, उस धर्मको धारण कर ! सच्चे भावोंसे वारण कर, माशचार छोडकर धारणकर, अनीति और दुर्भाधाको छोड़कर धारण कर मश्य सन्मार्ग मिलेगा। विषय कपायोंकी: विजय अवश्य ही की जायगा । फर्म बंधन अश्य हो तोडे जायंगे बंधन मुक अवस्था अवश्य प्राप्त होगी। स्वतंत्रताको अवश्य प्राप्त करेगा जन्म मरणके पंदसे अवश्य ही मुक होगा; पापोले छूटेगा कौर पुण्यका प्राप्त होगा। दुःलोंमे मुक्त होगा और सुखों को प्राप्त होगा अचल अविनाशी अनुपम निरोवाध राज्यको प्राप्त होगा।
विपद नारायणपद-प्रतिनारायणपद मढलेश्वर पद साव भौमपद सम्राटपद आदि,महान पदको प्राप्त होगा। - । - जगाले मौतिक स्वराज्यके लिये (जिसका मिलना-हाथमें नहीं,
मगियोंक-साथ भोजनपान रोटी बेटी करना चाहता है, विधवा विवाह करना चाहता है हिंसा करना चाहता है कण्ट, शोर पापाचारस दुनियाको, ठाना चाहता है, अनौति और अधममें ससारको ढकेलना चाहता है। माना वाहना हैं मोर दूसरों को
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२२४ ] .
जोव और बमे-विचार |
मारना चाहता है। अरे भाई ! इस प्रकार अपनी आत्माको पतित मत बना कर्म बंधका विचार कर, पुण्य और पापके स्वरूपको रिवार, गौर अपनी आत्माको संभाल जिस प्रकार भाबोंकी
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विशुद्धि स्थिर हो, जिस प्रकार परिणामों में निर्मलता प्राप्त हो जिस प्रकार सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो अथवा सम्यग्दर्शनकी दृढ़ना हो वह कार्य कर जिससे तेरा अवश्य ही भला होगा ।
- पुण्य पाप प्रकृतियोंके विषय में, अंतिम दो शब्द
पुण्य पाप प्रकृतियोंके विषय में प्रकाश डोला जाचुका है। तो मी मुख्य दो बातों को ध्यान में रखना चाहिये | सबसे निकृष्ट अनंतानंत दुखको प्रदान करनेवाली मननानंत संसार में परिभ्रमण करानेवाली तीन लोक और तीन कालमें मिथ्यात्व के समान अन्य कोई पाप प्रकृति नहीं है । पाप प्रकृतियोंकी जन्मदादा मिथ्यात्व प्रकृति है । एक मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय है तो समस्त पापप्रकृतियोंका उदय नियमसे है ही, मित्व प्रकृतिके कारण ही कर्म बंघ (संसारका ) होता है कर्मबंधके कारण - मिथ्यात्व अत्रिरते प्रमाद कषाय और योग ये पांच कारण है परंतु पाँचों में मुख्य एक मिथ्यात्व ही है अन्य चार अविरतादि कारण संसारके कर्म बंधके कारण नहीं है अविरतादि चार कारण मिथ्यात्वके साथ होवे तो तीव्रतम कर्मबंध होता हैं । घोर कर्मबंध होता है शीघ्र नहीं छूटनेवाला 'कर्मबंध होता है इसलिये भव्य जीवोंको
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प्रथम मिध्यात्वका त्याग करना चाहिये ।.
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जीव और कर्म विचार। २२५ पुण्य प्रतियों में सबसे उत्शष्ट तायंकर प्रकृति है नीपंकर प्रकृतिके उदयफे प्रधम ही (गर्भायतार अवस्थाके छह महीना प्रथम हो) रत्तवृष्टि होती है। नगरीकी रचना होती है देव देविया इन्द्र इन्द्राणी गर्भ महोत्सव और जन्म महोत्सव करती है तीन लोकर जीयाको जन्म समय सुख प्राप्त होता तपकल्याण ज्ञानकल्याण और निर्वाण फ्ल्याणमें समस्त जगतफे जीव उत्सव मनाते है। जैसा पुण्यका प्रभाव तीर्थकर प्रतिके उदयसे होता है वसा अन्य पुण्य प्रतिसे नहीं होता है। समोसरणफा वेभत्र भी इसी प्रकृतिक उदयसे जगनको साक्षात पतला देता है कि इन्द्र चंद्र नागेन्द्र महमिन्द्र चकरा नारायण ति नारायण आदि किसीमा पुरुषको यह अतुल संपत्ति प्राप्त नहीं है इसलिये तीर्थकर प्रकृतिफे तमान पुण्य प्रकृति अन्य नहीं है, परन्तु तीर्थंकर प्रकृतिका पध सम्यग्दर्शनका विशुद्धिसे होता है। इसलिये सम्यग्दर्शनकी विशुद्धि जिस प्रकार जेस जितने प्रयत्न द्वारा हो सके वह कार्य फरना चाहिये।
सम्यग्दर्शनके समान तीन लोक तीन फालमें फल्योण करने याला अन्य कोई भी नहीं है यधु है तो सम्यग्दर्शन है निधि तोसम्यदर्शन, संपति है नो सम्यग्दर्शन सुखका खजाना है तो सम्यग्दर्शन संसारसेपार होनेफा साधन है तो एक सम्यग्दर्शन दुास्त्रोंका नाश करनेवाला है तो एक सम्पादर्शन और कर्मबंधन तोडनेका उपाय है तो एक मात्र सम्यादर्शन । । । - इसलिये समस्त प्रयत्नों के द्वारा सम्यादर्शनकी प्राप्ति करो
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२२६] जीव और कर्म-विचार । देव शास्त्र गुरुकी अविचल श्रद्धा ही सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करने वाली है। परंतु लोस मोह प्रतिष्ठा गोरष आदिके प्रलोभनसे जिनागम जिनधर्म जिनगुरु और जिनदेयके स्वरूपमें किसी प्रकारका विपर्यास मत करो देव गुरु शास्त्रके स्वरूपको पैसाके लिये भोग विलासके लिये और गगन बडाईके पानेकी गरजसे अन्यथा मत करो अपने मतलब ( संसारकी इच्छाओंकी पनि ) के लिये देव शास्त्र गुरु और धर्मका स्वरूप परिवर्तन मत करो। देव शास्त्र गुरु धर्मकी सर्वोत्कृष्टता-सर्वोच्चता-परमपवित्रता और सबोंस्कृष्ट निर्दोषताको नष्ट मत करों । पूर्णभावोंसे विशुद्ध परिणामोंसे देवशास्त्र गुरु और धर्मकी श्रद्धा करो बस इसीमें सवका हित है । इसीमें भलाई है और यही सुखका मार्ग है।
बधार्वधक प्रकृतियोंका विवरण पांच ज्ञानावरण ५ नव दर्शनावरण १४ दो प्रकारकी वेदनीय ६ सोलहकपाय ३२ नर नोकषाय ४१ मिथ्यात्व ४२ चार प्रकारके आयुकर्म ४६ चारों प्रकारकी गति ५० पांच प्रकारको जाति ५५ पांच प्रकारके शरीर ६. तीन आगोपाग ६३ छह संहनन ६६ छह संस्थान ७५ स्पर्श ७६ रस ७७ गंध ७८ वर्ण ७६ चार भानुपूर्व्य ८३ मगुरुलघु ८४ उपद्यात ८५परघात ८६ आतम ८७ उचोत ८८ उच्छ्वा स८६ दो प्रकार विहायोगति ६१ प्रत्येक शरीर ६२ साधारणशरीर ६३ अस ६४ स्धारर ६५ सुभग ६६ दुर्भग १७ सुखर १८ दुस्वर. २६ शुम १०० अशुभ १०१ सूक्ष्म,१०२ वादर १०३. पर्याप्ति,१०४ अपर्याप्ति १०५ स्थिर १०६ अस्थिर १०७ आदेय १०८ जनादेय १०६
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जोच और फर्म-विचार। [२२० यशकीर्ति ११० अयशः कोनि १११ तीर्थकर ११२-दो गोत्र १११ पांच अंतराय ११६ निर्माण १२०
इसप्रकार एस सी वोम प्रकृति वंधके योग्य होती है। नाना लोवॉकी अनेक्षा एक समयमें एक्सी वीस १२० प्रजातियोंकाबंध हो सका है। __ सबंधपनि सम्यक्प्रकृति १ सम्यगमिथ्यात्व २ पांच गरीर पंच शरीर संघात १२ सान स्पर्श १६ चार रस २३ गंध २४ चार वर्ण २८ ये अष्टाविंशति प्रकृति अबंध सा है।
गुणस्थानोंकी अपेक्षा कृतियोंका विवरण निध्यात्व गुणस्थानमें आहार शरीर आहारक अंगोपांग और नीकर प्रति इस प्रकार तीन प्रकृतिका बंध पहले गुणस्थान नहीं होता है इसलिर १२० प्रतिशमसे तीन प्रति कम कर देनेले एकमो मन्ह ११७ प्रतियोका बन्ध मिथ्यात्व स्थानमें हो सकता है।
मिथ्याशी जीशेको एक्मौ सत्रह प्रकृतिका दध होता है इसलिये मिथ्यात्वका त्याग करना बहुत हो श्रेयस्कर है।
पांव ज्ञानावण ५ नव दर्शनावरपा १४ द्विधा वेदनी १६ सोलह क्याय ३२ हास्यादि षट ३८ स्त्री वेद ३६ पुवेद ४. तिर्यवायु ४१ मनुष्यायु ४२ देवायु ४३ तिर्यंच गति ४४ मनुष्यगनि ४५ देवगति ४६ पंचेन्द्रिय जाति ४७ औदारिक शरीर ४८ क्रियक शरार ४६ तेजस ५० कार्माण ५१ बौदारिक आंगोपांग ५२ वैकियिक सांगोपांग ५३ निर्माणे ५४ { समचतुत्र निरोध परिमंडल
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जीव और कर्म विचार |
-X
५
स्वाति वामन कुजक संस्थान ) ५९ (वज्रवृषभ' नाराव नृपम नाराच नागेचे अर्ध नाराच कोलक) पांच संहनन ६४ प ६५ रस ६६ गंध ६७ वर्ण ६८ ( विर्यगति मनुष्य गतिं देवगति मनुपूर्व ) तो पु १ बघु ७२ उपघात ७३ परघात ७४. उद्योत : अभ्वाल : द्विधाविहायोगति 84 प्रत्येक शरीर
२२८ ]
स ८० सुभग ८६ दुभंग ८२ सुखर ८३ दुखर ८४ शुभ ८५ अशुभ ८६ वादर ८७ पर्यात ८८ स्थिर ८६ अस्थिरं ६० बष ६१ अनादेव ६२ यत्रः कीर्ति ६३ यशः कीर्ति ६२ द्विगोत्र ६६ पंच
अन्तरय २०११
इसप्रकार एक्सो एक प्रकृतियोंका वन्य दूसरे गुणस्थान ( सासादन गुणस्य न ) में होना है ।
मिथ्यात्व १ नपुंसन् वेद २ नरक्यु ३ नरक गति सानुपूर्व्य 8 नरकगति ५ चार जाति (एकेन्द्रिय जाति दो इन्द्रिय जाति तीन इन्द्रिय जाति चार इन्द्रिय जाति) हुंडक संस्थान १० असं प्रतापादिका संहनन ११ आतप १२ स्थावर १३ साधारण १४. सूक्ष्म १५ वार्यात १६
इन सोलह प्रकृतियोंका बंध दूपरे सासादन गुणस्थानमें नहीं होता हैं इसलिये ये प्रकृति अबंधक है। क्योंकि ये प्रकृतियां पहले गुणस्थान में ही वन्त्र सक्ती हैं ।
पांच ज्ञानावरण ५ : चक्षु अवक्षु अवधि केवल निद्रा प्रचला) छर्द दर्शनावरण २१ द्विद्या वेदनी १३ ( मप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन ) वारह कपाय २५ (हास्य दिपट हास्य अरति रति शोक
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जोव और कर्म-विचार |
'[२२६
मय जुगुप्सा ३२ पुछेद ३२ देवगति २३ मनुष्यगति ३४ पंचेन्द्रिय अनि ३५ चार शरीर ( गोदारिफ चैकियक तेजस फार्माण ) ३६ तारिफ भागोपांग ४० पेलिपफ आगापा ४१ निर्माण ४२ समचतुरस्त्र संस्थान ४३ व नाराव संहनन ४४ ४१ इस ४ग ४७ वर्ण ४८ देवगतिप्रायोग्नानुपूर्व ४६ मनुष्य गति प्रायाग्यानुपूर्व ५० गुरु लघु ५१ उपघात ५२ परघान ५३ ॥ बस ५४ प्रशस्त वायोगति ५५ प्रत्येक शरार ५६ ५७ सुभग ५८ नुप्पर ५१ शुभ ६० अशुभ ६१ चादर ६२ पर्याप्त ६३ स्थिर अस्थिर ६५ आदेव ६६ या काति ६० यशःकानि ६८ ऊन गोत्र ६ पाव अन्तराय 38
०४ चहत्तर व प्रकृतिका बंध समित्य गुणस्थान में तीसरे गुणस्थानमें ) होता है ।
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हिंद्रा निद्रा ? प्राचलता २ स्त्यानगृद्धि ३ चार अनंतानुयय खो वेद ८ तिर्यगायु ६ मनुष्यालु १० देयु ११ तिगति १२ ( निग्रोध परिमंदर साति वायन फुक) चार सपान १६ (नृपभ नाराच नाराच अर्द्धनाराच कीलक ) चार संहनन २० तिर्यग्गनि प्रायोग्यानुपूर्य २१ दयोत २२ अप्रशस्त निहायागनि २३ दुर्भग २४ र २५ बाय २६ नोव गोत्र २७
इस प्रकार २७ सत्ताईस फर्म प्रकृतियोंका कर्म बंध तीसरे मिश्र गुणस्थान में नहीं होता है । इसलिये २७ प्रकृति यह तीसरे गुणस्थान में अवधक है ।
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२३०] । लीव और फर्म-विचार ।
बौथे गुण स्थानमें- .. ... .. · पांच ज्ञानाधरण ५ ( चक्षु-प्रचक्षु अवधि केवले निद्रा अनला) छ दर्शनावरण ११ दो वेदनी १३ चारह कपाय (अप्रत्यास्थान प्रत्याख्यान संज्वलन ) २५ हास्यादिषट् नौ कपाय ३१ पुवेद ३२ देवगत ३३ मन्प्यात ३४ पंचेन्द्रिय जाति ३५ चार शरीर ( औदारिका क्रियिक तेजस कार्मण) ३६ औदारिक मांगोपाग ४० क्रियिक भागोग'४१. निर्माण ४२ सम चतुरन रूस्था ४३ चल वृषम नागच संहसनन ४४ स्पर्श ४५ रस ४६ गंध ४७ वर्ण ४८ देनगति प्रायोग्यानुपूर्व ४६ मनुष्यगति प्रायोग्यानुः पुज्यं ५० गुरु लघु ५१ उपधान ५२ परघात ५३ उश्वास ५४ प्रशस्त विहायोगति ५५ प्रत्येक शरीर ५६ वस ७ सुभग ५८ सुस्वर ५६ शुभ ६०.अशुभ ६१ वादर ६२ पर्याप्ति ६३ स्थिर ६४ अस्थिर ६५ आदेय ६६ यशः कीर्ति ६.७ अयशः कीनि ६८ ऊब गोत्र १ पात्र अन्तराय'७४ मनुष्यायु ७५ देवायु ७ तीर्थकर ७७ - इस प्रबार चोथे ( अविरत गुणस्थानमें ) ७७ प्रकृतियोंका कर्म बन्ध होता है। " पनवे संयता संग्रत गणस्थान- .. .
पाच ज्ञानावरण ५ ( चक्षु अनक्षु.अवधि-फेवल निद्रा प्रचल) छह दर्शनावरण ११ दो वेदनो १३ माठ कपाय (प्रत्याख्यान सं ज्वलन ) २२ पुवेद २२ हास्यदिपट २८ देवायु २६ देवगति ३० पंचेन्द्रिय जाति ३१ वैक्रियिक तेजसं फार्मण) नीन. शरीर ३४ वैक्रियिक आंगोपांग ३५ निर्माण ३६ समवेतुरस्त्र संस्थान ३७
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जोव और कर्म-विचार। । २३४ 'स्पर्श ३८ रस ३६ गंध ४० वर्ण ४१ देवगति प्रायोग्या पूर्व ४२ 'मगुरु लघु ४३ उपधान ४४ परधात ४५ उश्वास ४६ प्रशस्त विहायोगति ४७ प्रत्येक शी ४८ प्रल ४६ सुभग ५० सुस्वर ५६ शुभ ५२ अशुभ ५३ वादर .४ पर्याप्ति ५५ रिचा ५६ आस्थेर ५७ मादेय ५८ यशः कोति ५६ अयशः कानि ६० नार्थ करत्व ६१ ऊंच गोत्र २ पंच अन्तराय ६७ , इस प्रकार ६७ सेंडसट प्रकृतियों का वध पांचवें देश विस्त गुणस्थानमें होता है।
पाचवे गुणस्थानमें अवंध प्रफनि
अप्रत्याख्यान पाय ४ मनुष्य ५ मनुष्यगति ६ औदारिक शरीर ७ औदारिक आगोवाग ८६ज्र वृषम नागव संहनन ह मनुध्य गति प्रायोग्यानुपूर्ण १०
पानवें गुगस्थ नमें उक्त दश प्रक नियोंका फर्मबंध नहीं होता है इसलिये ये कति अवधक है।
उटे प्रमत्त संयत गुणस्थानमें
पांच ज्ञाना रण ५ (चक्ष अन्नक्ष अवधि केवल निद्रा प्रचला ) छह दशनावरण ११ दो वेदनी १३ संचलन काय १७ हम्यादि पट नो कषाय २३ पुवेद २४ देवायु २५ देवगति २६ पंचेन्द्रिय जाति ७ चार शरीर (वैक्रियिकाहारक तेजस कार्मण ) ३१ वै. क्रियिक मागोपांग ३२ आहारक आगोपाग ३३ निर्याण ३४ समचतुरस्त्र संस्थान ३५ स्पर्श ३६ रस ३० गध ३८ वर्ण ३६ देवगति प्रायोग्यानुपूर्व ४० अगुरु लघु ४१ उपघात ४२ परघात ४३
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२३२] । जीव और कर्म विचार । उश्वास ४४ प्रशस्त विहायोगति ४५ प्रत्येक शरीर ४६. स. सुभग ४८ सुस्वर ४६ शुभ ५० वादर ५१ पर्याप्ति ५२ स्थिर -५३ अस्थिर ५४ आदेय ५५ यशःकीर्ति ५६ अयश वीनि ५७ तीर्थपरत्व ५८ अंच गोत्र ५६ पांच राय ६४.
इस प्रकार ६५ प्रकृति छ गुणस्थानमें बंधरूप है ६५ प्रकतियोंफा चर्म रत्व होता है।
छठे गुणस्थानमें (प्रमत्त गुणस्थान ) प्रत्याख्यान क्रोध मान माया रोभ ये चार प्रकृति अवधक है-प्रत्याख्यान पायका बंध नहीं होता है।
सातवें चप्रमत्त गुण स्थानमें वध होने योग्य प्रकृति- ।
पांच ज्ञानावरण ५ छह दर्शनावरण ११ सातावेदनी १२ चार संचलन यपाय (१६ हास्य १७ रति १८ भय १६ जुगुप्सा २० पुवेद २१ देवायु २२ देवगति २३ पचेन्द्रिय जाति २४ चार शर (वैकियिक आहारक तेजस कार्मण ) २८ क्रियिल आंगोपांग २६ आहारक मांगोपांग ३० निर्माण ३१ समचतुरस्त्र संस्थान ३२ आद्य संहनन ३३ स्पर्श ३४ रस ३५ गंध ३६ वर्ण ३७ देवगति ३८ मगुरुलघु ३६ उद्यात ४० परवात ४१ उश्वास ४२ प्रशस्त रिहा. योगति ४३ प्रत्येक शरीर ४४ ल ४५ सुभग ४६ सुस्वर ४७ शुम ४८ पर्याप्ति ४६ स्थिर ५० आदेय ५१ यशः कीत्ति ५२ तीर्थकरत्व ५३ पांच गय ५६ . ..
इस प्रकार सातव गुणस्थानमें ५६ प्रकृतियोका बंध होता है सातव गुणस्थानमें प्रबंधक कर्म प्रकृति- .
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, जोव और कर्म-विचार। १९३३ ___ असातावेदनी १ अरति २ शोक ३ अस्थिर ४ अशुभ.५ अयशः कीर्ति ६ ये छह प्रकृतियोंका बंध नहीं होता है। ...' ___ माट- अपूर्व परण गुण स्थानमें ५८ धर्म प्रकृतियों का बंध होता है। सातवें गुणस्थानमें जो ५६ वर्म प्रकृति बनलाई है उनमें देवायु फर्म प्रकृतिको छोडकर शेष ५८ धर्म प्रकृतियोंका धर्म बंध होता है यह एक कर्म प्रकृति आठवेके प्रथम अंशमे कम होती हैं। परंतु दूसरे भागमें निद्रा और प्रचला इन दो कर्म प्रकृतियों का वंध कम नहीं होजाता है इसलिये पाठवं गुणस्थान ५६ प्रकृतिदोंको कर्म बंध होता है। तीसरे भागमें-पंचेंद्रिय जाति (क्रियिक तेजस आहारक कार्मण शरीर ) चार शरीर ६ समचतुरल सस्थान ७ वैक्रियिक शरीर आगोपाग आहारक मागोपांग वर्ण १० गंध १२ रस १२ स्पर्श १ः देवगति प्रायोग्यानुपूर्व २४ अगुरुलघु १५ उपघात १६ परघात १७ उश्वाल १८ प्रशस्त विहायोगात १६ त्रस २० वादर २१ पर्याप्ति २२ प्रत्येक शरीर २३ स्थिर २४ शुभ २५ सुभग २६नुस्वर २७ आदेय २८ निर्माण २६ तीर्थकरत्व ३व्ये तीस प्रकृतिको छोड़कर अवशेष २६ प्रकृतियोंका बंध होता हैं। ___ आठवे गुणस्थानमें वध योग्य कर्म प्रकृति
पंच ज्ञानावरण ५ चार दर्शनावरण (चक्षु अवक्षु अवधि केवल) सातावेदनी १० चार सज्वलन छपाय १४ हास्य १५ रति १६ मय १७ जुगुप्सा १८ पु वेद १६ यशकीत्ति २० ऊंच गोत्र २१ पंच मंतराय २६
इन २६ कर्म प्रकृतियोंका कर्मबंध होता है।
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२३४ |
- जीव और कर्म विचार ।
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नवमें गुणस्थान ( अनिवृत्ति करण ) के प्रथम भाग में - पांच ज्ञानावरण ५ चार दर्शनावरण सातावेदनी १० चार संज्वलन १४ पुवॆद १५ यशः कीर्त्ति २६ ऊंचगोत्र १७ पंच अंत
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राय २२
इस प्रकार नवमें गुण स्थानके प्रथम भागमें २२ फम प्रकृति बंध होता है ।
नत्रमें गुणस्थानके द्वितीय भाग में उक्त २२ धर्म कृप्रतियों में से पुवेद नामकी प्रकृतिको छोडकर २१ प्रकृतियोंका कर्मबंध
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होता है ।
तीसरे भाग में - संचलन क्रोध प्रकृतिको छोडकर २० प्रकृति कर्म होता है ।
चौथे भाग -संज्चलन मान प्रकृतिको छोड़कर १६ प्रकृतिका कर्मबंध होता है ।
पाचवें भाग -संज्वलन माया प्रकृतिको छोडकर १८ प्रकृतिषा वर्मबंध होता है । ( पांच ज्ञानावरण ५ चार दर्शनावरण ६ सातावेदनी १० सूक्ष्म लोभ ११ यशकीति १२ ऊंच गोत्र १३ पांच अंतराय १८ इसप्रकार १६ क प्रकृतिबंध होता है ।
दशवे - सूक्ष्म सांपराय गुणस्थानमें-पांव ज्ञानावरण ५ चार दर्शनावरण ६ सातावेदनी १० यशः कीर्ति ११ ऊंच गोत्र १२ पांच अंतराय १७
इस प्रकार १० कर्म प्रकृतियोंका कर्मवध होता है ।
इसके बाद उपशांत व पाय क्षोण पाय सयोग देवली इन तीन
गुण स्थानोंमें एक सातावेदनी वर्म प्रकृतिका बंध होता है ।
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जोव और धर्म-विचार। [२३५ भयोग फेवली गुणस्थानमें किसी भी रम प्रकृतिका धंध नहीं, होता।
स्थितिबंध पर्म पुगल वर्गणा जो आत्माके साथ संबंधित होती है ये पितने समय पयंत भात्माके साथ रहते हैं। उनकी स्थिति कितने समर पपेन रहती है। जैसे पक मनुष्यने आदार लिया आहारका रस वन पर सहारका भाग कितने समय पयत रहेगा इस प्रकार की स्थिनिक स्थिनिबंध मदते है।
पांच मानावरण, नविध दर्शनावरण, सातावेदनी पाच अंतराय, इन बाँकी स्थिति बंध तीसोडाफोडि मागरको है।
मिथ्यात्वकी (दर्शन मोहनी कम) उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडा कोडि मागरफी है।
सातावेदनी स्त्री वेदनी मनुष्य गति प्रायोग्यानु पूर्व्यसी उत्कृष्ट यिनि २५ फोडाकोडिसागरकी है।।
अनंतानुबंध क्रोधमान माया लोभ, अप्रत्यारयान-प्रत्याख्यान और सध्यनन कोध मान माया लोभ इन सोलइ कपायको उत्कृष्ट स्थिति ५० कोटाकोडि सागरको!
पुवेद, दाम्य, देवगति, समचतुरस्त्र संस्थान, बनवृषभनाराच संहनन, देवाति प्रायोग्यानु पूर्व्य, प्रशस्न विहायोगति, स्थिर, शुम, सुभग, सुस्वर, मादेय, यशफीति अयशः कीर्ति उंचगोत्र इन फर्मों की स्थिति १० कोटाकोडि सागरकी है।
नपुंसक वेद, रति, अरति शोक, भयजुगुप्सा, नरकगति तिर्य.
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__ ] जीव और कर्म-विवार ।
गति, एकोन्द्रिय नाति पचेन्द्रिय जाति औदारिक क्रियिक तेजस फार्मण शरीर हुडक संस्थान औदारिक वैक्रियिक मांगोपांग असे प्राप्तामृपाटिका संहनन वर्ण गंध सार्श नरकगति प्रायोग्यानु पर्व तियोगति प्रायोग्यानुपूर्व अगुरुलघु उपघात परघात उच्छाप्त. सातप उद्योत अप्रशस्न विहायोगति प्रत स्थावर वादर पर्याप्ति प्रत्येक शरीर यस्थिर अशुभ दुर्मग दुस्वर अनादेय अयशाकोनि निर्माण नीव गोत्र इन कोकी स्थिति २० कोडाकोडि सागर
नरक देव पर्यायकी आयु धर्मकी स्थिति ३३ सागरकी हैं। मनुष्य निर्यवकी वायु धर्मकी स्थिति तीन पल्यकी है।
(हींद्रिय तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय जाति) तीन जाति वामन संस्थान कीलक संहनन सूक्ष्म, अपर्याप्ति साधारण इन प्रकृतियोंकी . उत्कृष्ट स्थिति १८ कोडाकोडि लागरकी है। ___ स्वाति संस्थान, नागच संहनन इन दो धर्म प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति १४ कोडाकोडि सागर की है। - कुन्जक संस्थान भर्द्ध नाराच संहननकी उत्कृष्ट स्थिति १६ फोडाकोडि सागरकी है। __ आहारक शरीर आहारक मांगोपांग तीर्थंकर इन फर्म प्रकृति. योका उत्कट स्थिति अंन कोडाकोडि प्रमाण है। । __निग्रोध संहनन यत्र नाराव संहननकी उत्कृष्ट स्थिति २२ कोटाकोडि सागर प्रमाण है। - नोट~इन कर्म प्रकृतियोंकी उत्कृष्टस्थिति जितने कोडाकोहि
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जीव और कर्म-विचार।
[२३०
हे उतने दी सफडा वपोंकी आवाधो स्थिति होती है या. भावाधो।
जिन फर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति मंत फोटायोडि सागरकी है उनका भावाधाकाल मतमुहर्त है।
यह फर्म स्थिति संज्ञा पचेन्द्रिय जीवोंकी समझना
भावार्थ-जैसे स्वाति सस्थान या नागच संहननकी १४ कोटामोडि सागरफी उत्कष्ट स्थित हैं तो इनफा आवाधाफाल २४ मौ वर्ष होगा या फुजक संस्थानकी उत्कट स्थिति १६ फोडाफोदि सागरफी है तो इस पर्म प्रकृतिका भावाधाफाल सौगह सोच होगा। एफ घोडाकोडि सागरकी यायुका बाया. धापाल सौ वर्ष होगा। मावाधामाल विना फर्मको स्थिति नही होती है जिन फोकी स्थिति संत: कोडाफोडि सागरको है उन कमोका आवाघाफाल तमुहर्त है। बंधकी अपेक्षासे सर्वत्र पद क्रम होता है।
एफन्द्रिय जीवकी तो मिथ्यात्व (दर्शनमोहनीके धमकी स्थिति एक सागरकी है बंधको अपेक्षा यह कर्म स्थिति और आवाधाकारका वर्णन है। .
पायोंकी स्थिति ( एफ इन्द्रिय लोधफी अपेक्षासे) एक सागरफे सातमाग फरना चाहिये उसमेंसे चार भाग भागकी मायु है। एक सागरफे ४ भाग है । शानावरण दर्शनावरण अंतराय सातावेदनी फर्मकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरके सातभागमेंसे तीन मागको आयु है। सागरके । माग स्थिति हैं। नाम गोत्र और
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२३८ ]
‘जीव और कर्म-विवार । नो पायका उत्कृष्ट स्थिति एक सागरने सात भाग २ भाग' ( स गर ) सागर स्थित है। ___ उक मोको उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षासे है। दो इन्द्रिय तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षासे मौकी स्थिति नीचे लिखे प्रमाण है। . . ! ~ " ..
द्वीन्द्रिय जीवोंके दर्शन मोहनीय कर्म ( मिथ्यात्व) की स्थिति पचास सागरके समान है। चार इन्द्रिय जीवोंके दर्शन मोहनी. (मिथ्यात्म धर्म) धर्मकी उत्कृष्ट स्थिति -सौ सागरके समान
___ अलेनी पंचेन्द्रिय जीयोके मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्धिति एक हजार सागरके समान है।
· , . .. . , दो इन्द्रिय आदि असेनी पंचेन्द्रिय जीवोंके अन्य कोको स्थि. ति आगमसे जानना . ... - - . .
पाच ज्ञानावरण चक्षु अचक्षु अवधि और पेवल, दर्शनावरण संज्वलन लोभ पांच अंतराय इन काँकी स्थिति (जघन्य-अंत
साता वेदनो कर्मकी जघन्य स्थिति ६२ मुहर्त सी है। 3 यशकीर्ति कंगोत्र की जघन्य स्थिति ८ मुहर्त की है ,क्रोध संज्मलनदी जघन्य (स्थिति) दो मास है. संचलना मायाजी स्थिति आधामास है (१५ दिवस) संज्वलन मानकी स्थिति एको मास है। . पुल्य वेदको जयन्य स्थिति आठ वर्षे हैं।
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जोव और कर्म- विचार ।
[[२३६
निद्रा निद्रा निद्रा, प्रवला प्रवला प्रवला, स्त्यान गृद्धि वेदनी कर्मको जघन्य स्थिति सागर के सात भागमेंले तीन भाग
सागरके भाग प्रमाण है ।
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तथा पहपके संख्यात भागकम, भावार्थ-एक सागर के सात भागमें से तीन भाग, परंतु पल्योपमके असंख्यात भाग कम चाहिये । शि के एक सागर के सात सात भाग किये जाय उसमेंभी पल्योपमके भाग हीन स्थिति होती हैं ।
अनन्तानुबन्धो अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यानकी स्थिति सागरके, सात भागमेंसे चार भाग स्थिति हैं । परन्तु वह भो पत्योपम संख्यात भाग होन है । एक सागर के पत्योपय
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वर्ष छीन ।
आठ नो कषायों की स्थिति एक सागरके सात भागों में
·
भाग परन्तु पल्योपमके सत्यात भाग हीन ।
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नरककी जघन्यं भायु दश हजार वर्ष है देवोंकी जघन्य आयु दश हजार वर्ष है । तिचोकी जघन्य आयु अंतर्मुहुर्तकी हैं।
मनुष्यों की जघन्य मागु अंतर्मुहूर्त की है।
नरक गांत देव गति वैकियिक आंगोपांग नरकगति प्रायोग्यानुपूर्व्यं देवगति प्रायोग्यानुपूर्व्य की अघन्य स्थिति एक साम रके सात भागमें से दो भाग पत्योपम संख्यात भाग हीन संस्पात भाग हीन १६
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लीव और कमे-विचार।
आहारक आगोमांग तीर्थंकर फर्म प्रकृनिकी स्थिति सागरो. परकोडाफोडि है।
, 2 .. इससे अवशेष नाम र्मको प्रकृतियों की जघन्य स्थिति सागरोपमफे सात मागमेंसे दो भाग पल्योपम संख्यात माग होना " .
. . . नोट-कर्मोंकी जघन्य स्थितिमें सर्वत्र आवाधा काल भी अंतमुहूर्त है । आवाधाके बिना स्थिति बंध नहीं होता है।
जघन्य स्थिति बंध सामान्य संज्ञो पंचेन्द्रिय जीवोंकी सम. झनी चाहिये । दो इन्द्रिय तीन इन्द्रिय चार इन्द्रिय और असैनी असंही पद्रिय जीवोंकी जघन्य स्थिति आगमसे जानना तो भी सामान्य अपेक्षामं जघन्य ही कहीं पर उत्कृष्ट स्थिति बंध होता हैं। पल्पक सख्यात भाग हीन भी स्थिति बन्ध होता
__ अनुभाग बंध। . -: - जिम प्रकार मेघका पानो क्षुमे रहकर मीठा पन उत्पन्न कर देता है जिसके गुण वैद्यक्रमें भिन्न भिन्न रूपसे बतलाये हैं। इसी प्रकार माहार, रस, उपरस, धातु उपधातु यादिको उत्पन्न करता है जिसका भिन्न भिनाफलसवको अनुभवमें आता है। पदार्शमें जो जो गुण होते हैं उन गुणोंके स्वरूपका अनुभवमें आना मास्वाद में आना वहो उसका फल है।" , :
मदिरा पीनेका फल मद उत्पन होना है। विष भिक्षणका
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जीव और कर्म-विचार। [२४१ फल मरा प्राप्त होना है। इसीप्रकार जिनने फर्म है उनका फल भिन्न भिन्न प्रकार होता है। ___ जिस प्रकार गो दूधमा फल शांति और पौष्टिक है पाचक है सादु है परन्तु सारके दूरका फल गर्म उन्मादक है । और प्राणों फा व्यत्यय कराने वाला रेवक।
जिम प्रसार मीठा पानी संतापमारफ और दाहको दूर करने घाला है हमीप्रकार द्वारा पानी दाहकारक योर असंतोपको उत्पन्न करने वाला है।
इली पर मोरे मृर मेदोका फलं भिन्न मिन्न प्रकारसे होना है। पानाला फल मानका आवरण है दर्शनावरण का फल दफा आरण, येदनाका फल मुख दुम्बका प्रदान करना है। मोदनी (दर्शन मानो ) का फल विपरोन अनुभव मरना हे। या प्रारमा म गुगामें गिरानता प्राप्त कराना है। पार्योका फल वारिसमा घान माना है अथवा क्रोधादिक दुर्भागका प्रन्ट होना है नररु प्रायुम फल नरकमें स्थिति करना है । देवायुका 'फट देव पर्यायका यिनि पूर्ण करना है । नाम फर्मका फल भिन्न मिन्न प्रकारमं नो कर्म (गर) की रचना होना है गोन कर्मका फल नाच कंन गो में जन्म लेना है। अन्तरायका फल दान लाभ आदिकी अप्राप्ति है। - इस प्रकार मूल प्रकृतियोंका अनुभाग (फल) सामान्य रूपसे - हे विशेष मागमसे जानना चाहिये।
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२४२
जीव और कर्म-विचार । " अनुभाग बंधका कुछ विशेष खुलासा । ____ ज्ञानावरणादि कर्मों का जो रस अथवा जो अनुभव अथवा विपाक' जनित फल, अथवा ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियोंका अपने स्वभावानुरूप कार्य अथवा जिसप्रकार आमके वीजका आमफल
और नीवके वीजका नीव फल, इमलीके वोजका इमलीफल होनाउसके स्वभाव गुण-व कार्य प्रकट होना सो अनुभागबन्ध है । * " अनुभागवध दो प्रकार है । एक शुभ दूसरा मशुम (क्योंकि कमोंके कारण भी शुभ और अशुभ रूप दो प्रकार है। जिसको पुण्य और पाप कहते है। अथवा हिंसादि प्रवृत्ति रूप या हिंसादि निवृति रूप अथवा अशुभ चितवन आर्त रौद्र -ध्यान रूप या दश धर्म चितवनरूप) शुभ कर्मों का फल शुभ होता है । लोक्में इसको पुण्य कर्म कहते हैं । शुभ कर्मोका फल अशुभ होता है जिसको पाप कहते हैं।
शुभ फोका फल .(पुण्य) सुख-रूप ,अनुभवमें आता हैं अशम काँका फल दुख रूप अनुभवमें आता है। . , परिणामोंमें जैसी कंपायोंका' विशेप या कम (मंदोदय) 'उदय होता है कर्मोके रसमें स्थिति और अनुभागमें विशेपता
पैसे २ अधिक होती हैं गोके दूधसे भेड़के दूधमें चिकनता अधिक है। इसी प्रकार कोई आममें खट्टा रस फम और विकारी रस होता है तो कोई आमका रस मीठा बहुत और गुणकारी होता है यह जीवोंके परिणामोंकी शक्ति और वाहाँ निमित्तका कारण है।
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जोव और धर्म विचार ।
[ २४३
1
आत्मा के भावोंके निमित्त और वाह्य कारणोंके निमित्तसे पुद्गल परमाणुओंमें जिल प्रकार धर्म रूप होने की शक्ति होती है उसी प्रकार आत्माक स्वाय जनित परिणामों द्वारा व द्रव्य क्षेत्र कालके तीव्रतर निमित्तों द्वारा उन फर्म परमाणुओं में (फर्म प्रकृ तियोंमें) ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है जिससे वे जीवों को एक्दम शनका आवरण कर देती है ( अक्षरके यन्न भाग पर्यंत ) या न्यूनाधिक पनासे नावरण कर देती है जिसका फल ( अनुभाग ) मानका नहीं होना है।
अनुभागमें रस शक्तिकी विशेषतासे विशेष फल दान शक्ति होती है । जेंस नीव कत कटुरु है नीवले निरायता कुछ अधिक बटुक है निरायतासे इन्द्रायणकी जड़ अधिक कटुक हे । इन्द्रायजसे कुटको अधिक कटुक है । इसीप्रकार कमोंमें रस भाग शक्तिफी जैसे जैसे विशेषता होगी वैसे २ दो फल दान शक्तिमें विशेषता होगी ।
तीव्र तीव्रतर तीव्रतम आदि भेदोंसे अनेक प्रकारका अनुभाग होगा । इसी प्रकार जैसे २ भात्रों की परणति से कमवन किया है वैसा हो अनुभाग होगा । जघन्य मध्यम उत्कृष्ट परिणामोंके भेद अनन्त है
पर आत्मा के शुभ परिणामों को विशेष प्रकर्तता होनेसे शुभ प्रकृतियोंका ही प्रकर्ष अनुभाग होता है और आत्माके अशुभ परिणामों की प्रकर्षतासे केवल अशुभ प्रकृतियों का ही प्रकर्ष अनुभाग होता है । उभयरूप परिणाम होनेसे मिश्र अनुभाग होता है परिणा
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४]
जीव और कम-विचार। माँकी मंदतास मंद अनुभाग होता है | कमा २ परिणामों में विशेष विशुद्धि होनेम शुम प्रकृति ही अनुमानमें मुख्यतासे आती है इतर प्रकृतियों का अनुभाग नहीं होता है। इसी प्रकार परिणामों को विशेष मलिनताले केवल अशुन प्रकृतिका अनुभाग होता है, कमी शुभका विशेष और अशुमका कम, अशुम मा विशेष नो शुभका. कम अनुमाग होता है। ___ अनुमाग दो प्रकार होता है स्वप्रत्यय (स्वमुख ) और पर प्रत्यय (पामुख) मूल प्रकृतियों की सामान्यदृष्टिने विचार किया जाय ता स्वत्र स्वमुख ही अनुमा होगा। और उत्तर प्रकृतियों का परमुग्न अनुमान होगा। परंतु यह नियम सर्वत्र ही कार्यकारी नहीं है। आयुर्म और चारित्र मोहनोमका अनुमाग नियाले स्वप्रत्यय (स्वमुत्र) ही होता है। क्योंकि नरकायुका अनुभाग कभी भी किसी में निर्यदायुरूप वा मनुष्य वायुरूप नहीं होता है। इसीप्रकार दान मोहनीका अनुमाग चरित माहीरूप नहीं होता है और चारित्रमोहनीका अनुभाग दर्शन मोहनोलप नहीं होता है। • इसीप्रकार देशघानिप्रकृति और सर्ववानि प्रकृनियों की अपेक्षा से अनुभाग दोप्रकार होता है। देशघाती अत्माके गुणोमें सर्वाश कपसे घात नहीं करती हैं उसमें ऐसा अनुभाग नहीं होता है जिससे आत्माके सर्वाश गुणोंका घात हो और जिसका अनुमाँग आत्माके सर्वाश रूपले गुणोंका घात करनेवाला हो वह. संबंधोति प्रति है।
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जीव सौ कर्म-विवार ।
॥ २४५
सर्वात प्रकृति वनावरण केवलदर्शनावरण निद्रा निद्रा प्रचाप्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धि
४
( अनवा
*
४
नुवान प्रानानुचोकी मान माया होम.)
पाप १२ २०
कृति
के मस्तगुणांका घात करनी है जिस प्रकार गमि नमन वनको प्रशनित कर देती है उलोप्रकार आना मनहर गुगको आवदा करनेगली उक्त ग्रीस प्रकृति है।
देशनोक कु
१
fen
२
_F-श्रु
1
३
-अवधि-मन परोय ज्ञान
9
२ ३
वरण ४--अधिदर्शनावरण ७ दान-लाभ भोग उपभोग - पाप अन १२ मानो मान लाया भ
४
५
7
२ ३ ४ "
६
७
२६ ननस्य (दाहन शक भय जुगुप्सा पुवेद खार्इ नपुंसकनेद ) २५ इन प्रकृ'नयाँ अनुभाग देशघाना है । परन्तु जिन उक - ५ प्रकृ नेत्रों का उत्कृष्ट अनुभागवध होना है। चिन इनका परिणमन सर्वधानी के समान ही होना है। इसलिये उपयुक्त प्रकृतियों से देवघाती वा सर्दधानी दोनों प्रकार भी कह सके हैं। अनुभाग के रस विशेषता की अपेक्षा इनमें देशवातित्व वा सर्व घातित्न दोनों प्रकार ही होसके है। अपना जघन्यं या विन्मध्येम अनुभागको देशवानि समझना नांदिये 1
मधवा सर्वधाति प्रकृतियोंके साहचर्यके बिना जिन प्रकृति
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२४] जीव और कर्म विचार । वोंमें कार्य करने आत्माके गुणोंको घात करनेकी सामथ्य नहीं रहे उनको अधाती प्रकृति कहते हैं। इन अघाति फर्म प्रकृतियोंको पुण्य पाप रूप दोनों प्रकारसे कहते हैं परन्तु धाती प्रकृतियों को पापरूप ही कहते हैं।
अशुभ पकृतियों के अनुगगके चार स्थान है नीव बाजीर विप कालकूट । भावार्थ जिमप्रकार नीबसे कांजीर विशेष विकारो होता है काजीरस पि विशेष विधारी होता है और विपसे कालहर [हालाहला एकदम विकारी है रसोप्रकार अशुभ प्रकृनियोंके अनु. माग भी चार प्रकार होते है कोई अनुभाग तो नींवके समान कम विकारी होता है पुण्य पुरुषों ने ऐसा अनुभाग विशेष दुखका प्रदान करनेवाला नहीं होता हैं। काजीरके समान शुभ प्रकृतियोषा गनुभाग मनुष्यादि पर्यायमें कुछ विशेष दुःख प्रदान करता है, तो भो आत्माके स्वरूप चितवनमें विशेष हानि नहीं पहुंचा वक्ता । ____ विष और हालाहलके समान अशुभ प्रकृतियां निगोद आदि अशुभ पर्यायमें अपना ऐसा अनुभाग कराती हैं कि जिससे आत्माके सर्वगुणों घात होजाता है।
इसी प्रकार शुभ प्रकृतियोंका अनुभाग स्थान बार प्रकार होता है । गुढ खांड शर्करा अमृत, जैसे गुड खांड और शर्करा और अमृतमें उत्तरोत्तर स्वाद और सुख है उसीप्रकार शुभ प्रकृतियोंमें उत्तरोत्तर चार मेद ऐसे होते है जो विशेष विशेष सुख पैदा करते है। -
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N
' जीव और कर्म विचार ।
मों को संभाल न कीजाय ना सवैधानि प्रकनियों का कर्मचंध सतत होता रहेगा। आत्मा संस रसे मुंफ कभी नहीं होगा।
जो सुख चाहते हो, जो मनुक्त होना चाहते हो, जो कमों का अनुभाग न भागकर की। अविपाक निरा करना चाहते हो तो परिणामांकी संभाल रखा। रागद्वे पसे परिणामों को बचामो मलिन भावों का परिणति ो रक्षा क्रोमिथ्यात्व परिणतिमे दूर रहो सदैव जप तप ध्यान संयम गुप्ते धर्म चारित्र आदि द्वारा अपने परिणामोंको सरल आजार भार्द मय सत्यमय मिलोममयः बनायो । बस यही अनुभाग बंध जाननेका फल है।
चाहे पुण्य रूप अनुमाग हो चाहे पाप रूर हो परन्तु कर्मों का अनुभाग फिलो प्रकार भी उत्तम नहीं है।
प्रदेशबंध प्रदेश बंधका स्वरूप खास विचार करने योग्य है।
लाकाकाशमें मवें व कामेण वर्गणार्य खचा खच भरी हुई हैं। आकाशका ऐसाकोई प्रदेश नहीं है कि जिसमें कार्मण वर्गणाका अस्तित्व न हो। वे पुद्गल परमाणु अनंतानंत है। अत्यंत सूक्षन है अतीन्द्रिय हैं।
उन परमाणुओं को आत्मा समय समयमें ग्रहण करता है जिस समय आत्माके साथ उनका सवैध हो जाता है तब उनमें मानव रणादि कर्म प्रतिके योग्य परिणमन' होनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
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जीव और धर्म-विचार।
[२४६
शानावणादि में प्रकृतियों के योग्य सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) मनन पुन परमाणुको अत्मा अपने मन वचन कायके व्यापारसे अपने आत्मा के समस्त प्रदेशों के साथ चारों तरफ (ऊर्य अधः तिर्यग रूपले ) एक क्षेत्रावगाहा संश्लेप रूर संवध करता है उसको प्रदेशबंध कहते हैं।
प्रदेशबंध पुनरमाणु के प्रदेशोंकी गणना होती है एक साथ एक आत्मामें मन कवन कायके पृथक पृथक व्यापार द्वारा जिनने अनंत या अननानत पुद्गल परमाणु भात्मा के समस्त प्रदे: शोके साथ पास एक क्षेपाचगाहो हाते हैं मो प्रदेश वत्र है।
धर्मवध चाहे मन याग हो, चाहे बचन योग हो, चाहे काय योग हा, परन्तु एक स थ पुद्गल परमाणु -नन संख्यामें ग्रहण होते है। समय समयमें पुद्गल परमाणु पिड श्नत संख्यामे ग्रहण होते है । उसको प्रदेशवध रहते हैं । जिन्ने प्रदेशों (परमाणुओं) की संख्याको लेकर वध होता है । इमोका नाम प्रदेशवध है।
कमसे कम उन पुद्गल परमाणुमोको सख्या (जो समय प्रवद्ध होकर आत्माके साथ सबध होते है ) अनंत रूप है । सिद्ध राशिसे भनंन भागमय है। अननके मनत भेद हे सो कम (s मध्यम-उत्कृष्ट रूपसे भा विचार किया जाय तो भी समस्त अनंत रूप ही होगा।
पोछेसे उसमें कर्म प्रकृतियोंके योग्य विभाग होता है इसलिये प्रदेशवेधको सामान्य यही अर्थ होता है कि उन पुगाल परमाणु.. मोकी संख्याका प्रबंधारण कितना है।
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२५०] जीव और कर्म-विचार। । बंधके दशभेद है-------
वध १ उत्कर्पण २ संमाम ३ अपकर्षण ४. उदीरणा ५ सत्व ६ उदय ७ उपशम ८ निर्धात्त ह नि:काचना १०। "
कर्म और आत्म प्रदेशोंके साथ परस्पर दूध पानीके एकमेक (क्षेत्रागाही ) संश्लेष रूप संबंध होना सोबंध है । '
जिन कर्मोकेबंध सम में जितनी स्थिति हुई है उससे अधिक होना सो उत्कर्षण है। स्म्यक्त व मिथ्यात्वके प्रभावसे मायुका उत्कर्षण होता है। सम्म्दृष्टो जीव अपने भावोंकी विशुद्रनासे पुण्य प्रकृति तथा सायुधमकी स्थितिका उत्कर्पण करना है इसी प्रकार मिथ्यादृष्टी जीव अपने भावोंकी मलिनतासे अशुभ प्रकृति तथा आयुमको स्थितिको बढ़ाता है। इस प्रकार स्थितिका चढ़ाना लो उत्कर्षण बंध है।
मायुषा बढ़ना वध्यमान मायुमें ही नियमसे होता है भुज्य. मानमें नहीं।
संक्रमणवंध-साविशय पुण्यके योगले जिस समय पाप प्रा. तियोंका उद्घ पलटकर पुन्य रूप अनुभागमे भाता है उसको संक्र. मण कहते है। इसी प्रकार पापके तीव्र योगसे पुण्य प्रकृतियोंका उदय पाप रूप पलट कर होता है उसको संक्रमण कहते हैं । पर प्रकृति रूप परिणमनको संक्रमण कहते हैं। . , अपकर्षण-सातिशय पुण्य पापके योगले (सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनके प्रभावसे ) जिस समय आयुकर्मादि, प्रकृतियोंको स्थितिमें ह्रास होता है उसको अपकर्षण कहते है।
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जीव और कर्म दिवार ।
[ २५१
यह भी मान आयुमें होता है भुज्यमान आयुमें नहीं ? श्रेणिक महाराजकी आयुबंध तेतीस सागरसे केवल ८४ हजार
वर्षका ही रह गया ।
इसी प्रकार मिध्यादृष्टि जीवोंकी पुण्य प्रकृतियों की स्थितिका घटना सो अपकर्षण है ।
उदीरणा-जिस कमका अनुभाग उदय कालके प्रथम ही हो जावे । धर्मका फल उदयकालके प्रथमद्दी उदयमें आ जावे या उदय कालके प्रथम हो उदय रूप ले आना तो उदीरणा है ।
सत्य-कमका मस्तित्व आवाधा काल पर्यंत घरावर रहना सो सत्य कहलाता है। कर्मके मस्तित्वको सत्व कहते हैं ।
उदय-कर्म अपना फल कालानुसार प्रदान करे अनुभाग रूपमें प्रवर्तित हो जाये उसको उदय कहते हैं ।
उपशम-सत्तामें रहकर कर्म उदय काल होनेपर भी अपना फल नहीं प्रदान करे उसको उपशम कहते है ।
निघत्ति-जिस धर्म की उदीरणा हो सकी हो परन्तु संक्रमण न हो सके उसको निधत्ति कहते है ।
निःकाचन- जिस कर्मकी उदीरणा व संक्रमण ये दोनों नहीं हो सके कर्म अपना अनुभाग पूर्णरूपले प्रदान करे उसको निःकाचन बंध कहते हैं ।
"कर्मविधि टारी न टरे, कर्म अपना फल दियेविना नहीं रहते हैं। पुण्य पुरुषों को भी अपना कार्य घतला देते है जिसको भकि संष्यता कहते हैं। वह निःकावन नामका कर्मबंध है । यों तो
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२५२] जीव और Eम-विचार । समस्त कर्मो काफल प्रायः संसारी जीव मागते ही हैं. परंतु कितने हो कर्मोको संक्रमण भी करते हैं। अशुभस शुभ कर सके हैं। दान पूजा जप तप आदि पुण्य कार्योस शुभधर्मके; रसको बदलकर शुभरूप करसके है। जो फर्म अशुभ उदग्ररूप होरहा है उसको पूजा दानादि शुभकार्यों के द्वारा शुभरूप परिणमन करा सक्त है परंतु जिनको नि:काचन पंध हुआ है यह मर्म अपना रस (फल) दिये विना सर्वथा वहीं रहता है । चाहे पुण्य कर यो और कुछ भी महान कार्य (उत्तम जप तप) करो उसका फल तो भोगनाही पडेगा।" ,
. ., एक निकाचन मर्मबंधयो छोडफर इतर (अन्य ) कर्मवं के रस ( फल अनुमाग) का परिणमन शुभाशुभ: रूप हो सकता
TO
।' कितने ही भाई यह प्रश्न करते रहते है कि जिनपूजन करने वाले हमने बहुतसे दरिद्र देखे फिर पूजनका फल क्या? दान देनेका फल क्या? . . . .
उन भाइयोंको विचार करना चाहिये कि कोई भी कर्म (जिन पूजा दान आदि कमे) तत्काल ही, उदय रूप नहीं आता है। माघाधा फालके पश्चात् ही उदयमें आता है। इससे तत्काल पूजादि कार्योंका फल सबको नहीं दीखता है। दूसरे भावोंकी सात्तिशय विशुद्धता हो तो पूजादि शुभ कार्योंका फल. तत्काल भी दृष्टि गोचर हो परंतु जिनको प्रथम ; नि:काधन नामफा धर्मबंधका उदया है मह तो "टारेना टरे" 'कर्म, विधि मिटेना मेटेसे' उनको
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जीव और धर्म.विचार।
[२५३
तत्काल पुजादि शुभ कार्योका फल नहीं प्राप्त होता है फालातर में अवश्य ही पुण्य कर्मक्षा फल नियम प्राप्त होता है। ___ कमी कमा मायोंकी विशुद्धतासं कितने ही जीवोंवो उनके मशुम स्मोका परिणमन पूजादि शुभकार्यों के फलसे तत्काल ही शमरूप हो गया है। सर्पपी फलमाला होगई, दरिद्र लक्ष्मीवान होगये, गेगी पंचन काया बन गये। नि:पुत्रसंतति पाले बन गये। सप्रकार पूजादि शभ कार्योसानिशय पुण्य तत्काल हो फल प्रद होकर मनन जीशे के बडे बडे भारी सक्टाको दूरपर उन्हें परम सुखी बना देना । . इसलिये समान भरजीनोंको दर्मबंधका स्वरूर जानकर यह यित्रार करना चाहिये कि विस भी प्रकारमे पुण्य संपादन पर रिसा भी समय जिन् पृजन-निगु स्मरग-जिनस्पचितवन जिन ग्तुतिगायन आदिले पुण्य वृद्धि करें।
पुष्य अवश्य हा अपना फल, सुररुप बतलायेगा। दुखोंसे एचायेगा और संपटोंको दूर परंगा परतु पुण्य अपना फल दिये विना नहीं रहेगा। - इसीप्रकार पापकार करते समय विचार करना चाहिये कि पाप फार्थीका फल (जीव तिसावारी परस्त्री सेवन अन्याय आदि पापकार्योंका फल) अवश्य ही मिलेगा। अत्यन्त घोर पाप कमेके फलसे अपने पूर्व भवय पुण्य कर्मोंका फल भी अशुभ परिणमन हो जाता है और वर्तमान पापका फल भी तत्काल ही प्राप्त हो जाता है।
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२५४] जीव और कर्म-विवार ।
मनुध्यपध-मुनिहत्या. राजवच प्रजा पोडन और घोर अत्या. चार का फल तत्काल हो उदय रूपमें आता है जिससे लक्ष्मीका विनाश होजाता है पुत्र स्त्रो भाई कुटंब परिवारका वियोग होजाता है, समस्त वैरी बन जाते है, रोग शोक आधिव्याधि और . उपाधि आ धमकती है फिर चारो तरफसे दुःखहो दुख गोकर होता है। इसलिये पापकार्यों के फरते समय विचार करो परोपकार करनेके लिये भी जीव वध या अन्यान्य सेवन मत करो जैसे कि राष्ट्रोन्नतिको परोपकार यतलाकर क्रान्तिकारी दुर्नीतिक द्वारा घोर पाप करते हैं। और अपनेको नेता- ( सन्मार्ग प्रकाशक ] बनने की डीग मारकर जगतको ठगते हैं । दूसरोंके धन संपत्ति पर ताधिन्ना ताधिन्ना करते है मौज मजा करते हैं। सैल सपाटे उड़ाते हैं और चाहे जो खाते पीते हैं।
मनुष्य भवप्राप्तकरनेका फल विचार करना चाहिये कुशिक्षाके दुर्शानमे मनुष्यभव प्राप्त करने का सौभाग्य व्यर्थ ही नहीं खो देना चाहिये कुछ पुण्यसंपादन कर अपना भला करना चाहिये।
प्रदेश बंध मन वचन कायके व्यापारसे ५ क्रियाले) होता है इस लिये मन वचन कायक द्वारा ऐसे कार्य करना चाहिये जिससे विशेष पुण्य बंध हो, और पापकर्माका अनुमाग शुमरूप परिणमन हो । वे पुण्य कार्य में हैं। : । कायके पुण्यकार्य-
, , , "हढ आसनसे सामायिक- करना, कायोत्सर्ग धारण करना निर्यिकार गुरुसेवा करना भगवानका प्रक्षाल करना तीर्थयात्रा
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जीव और कर्म-विचार। [२५५ (परोसे ) फरना, दानदेना, दानके लिये रसोई घनाना, मदिरजीको साफ करना, गुरुजनोंकी यावृत्य करना, गुरुजनोंको नमस्कार करना, घोडफर विनयम वंदना करना, ढोक देना, इविथ पूर्वक चलना, जाबाकी हिम अपने शोरके व्यापारसे न हो इस प्रकार शरीरकी प्रवृत्ति फरना, शगेम्स गैगामी संवाकरना भगवानको पूजन बयत भकि साय नृत्य पूर्वक करना इत्यादि पुण्यकार्यका कापरे द्वारा मांपादन करना चाहिये।
ववनके द्वारा दिन मित परको सुख फरने गले ठागमके अनुकूल धनन पालना, णमाकार मंत्र का जाप देन', भगवानकी स्तुतिकरना, शास्त्रों का पठन करना, जीवोंको दयामा उपदेश देना शास्त्रार्य कर जिनमार्गको जगदम्न प्रमाना करना, आगमके यवनोंका प्रचारकरना, गुरुजनोंके ( आचार्य उपाध्याय साधु ऐल पक्षुल्लक आदि ) समक्ष यिनीत भावले आगमके रहस्यको पूछना, शास्त्रोंका पहाता यर्थ बतलाना पाठ करना, नत्यायसूत्र, सहस्त्र माम, मक्कामरादि पाठोंका योलना) सो सय यवनके शुमकार्य है।
मनके शुमकार्य-तत्वोंका श्रद्धान करना, प्रभुका ध्यान धरना, मगवानके गुणोफा चितवन करना, संसार देश भोगोंसे वैगग्य मावनामोका चितवन करना आगमकी आशाका सर्वत्र प्रचार हो ऐसी भावना करना, जिनागमकी पवित्रता सर्वकालमें सवत्र मविछिन्न बना रहे ऐसा विचार करना, समस्त जीव जिनराजकी मामाफी शिरोधार्य फर क्व पापोंसे बचें ऐसा विचार करना, जिन धर्मपर घरके मिथ्यात्वी व अन्य मतोंके द्वारा जो मिथ्या अवर्ण
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२५६] जीव और कर्म-विचार । बाद होरहे हैं उनका मैं किसप्रकार नाश फर ऐसा विचार करना, मुनिजनोंके पवित्र उद्योगमें जो मनुष्य रोडा लगाफर मुनिजनोंकी निदार अथवा अवर्णमाद लगाफर जो पवित्र मार्गका घात कर रहा है उसको मैं किसप्रकार निवारणफर सच्ची प्रभावना कर ऐसा विचार करना स्त्रियों का पवित्र शील अज्ञानी लोग कुशिक्षा के प्रभावसे भ्रष्ट करते हैं मैं उनके शोलकी रक्षा फिसप्रकार करू ऐसा विचार करना सो सब मनके द्वारा पुण्यकर्म है।
पापकर्म-शरीरके द्वारा जीवोंका वध फरना, भावानकी मतिका तोडना, शास्त्रोंका अर्थ विपरीत लिखना, मिथ्या लेख लिखना, स्वच्छद होपर अनर्गल चलना, मद्य मांस भक्षण करना, अन्यायके कार्य करना, व्यभिचार सेवन करना, आदि शरीरके पापकर्म है।
झूठ बोलना, आगमके विरुद्ध बोलना, मिथ्या शास्त्रों का उपदेश देना, जीववध युद्ध लडाई और कलहका उपदेश देना, विधवाविवादका उपदेश देना, जातिपांतिके लोपका भाषण करना, मुक्यिोंकी निदा करना, जिनधर्म में अपर्णवाद लगाना, धर्मात्मा भाइयोंकी निंदा करना और उनको कष्ट देनेकी संभाषणा देना।
जिनागममें पलक प्राप्त हो जिनागमकी पवित्रता नष्ट हो जावे ऐसा उपदेश देना, राष्ट्रकथा करना, स्त्री कथा करना, अन्यमत प्रशंसन करना, जि.गिमको असत्य ठहरानेका मिथ्या वचन बोलना अशानी छमस्थ लोगोंकी तत्व रवनाको सत्य मादि समस्त पाप कार्य पवन द्वारा होते हैं।
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जीव और कर्म-धिवार।
[२५०
परस्त्री हरण करनेफा विचार परना, त्रियोंको व्यभिचारी पना नेका विचार करना, मुनियोंको उपसर्ग या कष्ट देने का विचार करना, धर्मकी पवित्रता नष्ट फरनेका विचार करना, जीवोंको दुख देनेका विचार करना दूसरोंको लूटने मारने और यध फरनेका रिचार करना, मातरौद्र ध्यानके द्वारा भले पुरे विचार करना, विषय पाय और भोग विलासकी वृद्धि के विचार करना, भोग. बिलास और अनुभवानंदके लिये व्यभिचारका विचार करना जिनागमकी आशाका अन्यथा विचार करना जिनागमके मर्थको मनमाने स्वार्थ के लिये मनर्थ रूप अथ परनेका विचार करना इत्यादि सर्व मनके पाप कार्य है।
इसीप्रकार मन वचन कायकेद्वारा महान निद्यकार्य करना दूल. रोको षष्ट देना अपने स्वार्थ के लिये कसाई स्वाना खोलना विडियो घर बोलना फतलेआम करना, समथ गो आदिको मारकर धर्म बतलाना दुःखी पीडित मनुप्यों के मारनेमें धर्म पतलाना देवीपर घध करना, युद्धकी भावना करना, चोरी करना धूस लेना धकी वैरिस्टर बनकर न्यायालयमें झूठ बोलना।।
मास नाना दारु सेवन करना, शुदके हाथका भोजन पान फरना सो समस्त पापके काम है।
मुमुक्षुजन हो! जरा विचार करो। फितने दुख कौके -निमित्तसे सहन किये। नरक, ताडन मारन शूली रोपण आदि. दुखोंको पाया तिथंच योनिके दुःन प्रत्यक्ष हैं। एक समय भी ऐसा व्यतीत नहीं हवा कि जिसमें तुझको दुःखोंके आनेकी
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२५८] , जीव और कर्म-विवार । आशंका न रही हो। मनुष्य भव बार बार प्राप्त नहीं होता है। कठिनतासे प्राप्त हुवा है। फिर भी पुण्ययोगसे जिनागमका उप. देश सिला सत्संगति व सद्धर्मका सहयोग मिला। सद्बुद्धि प्राप्त हुई। फिर भी विचार नहीं करता है। हा!, पापोंमें ही धर्म मान कर पापोंके कार्यमें चटपट दौड़ता है। जवानीकी अंधतामें विचारहीन होता है। माता बहिन तकका बिचार नहीं करता है। सबके पवित्र शीलको नष्ट कर पापमार्गके बढ़ानेमें खुश होता है। व्यभिचारमें धर्म घतलाता है यह तेरा कैसा विचार ? यह तेरह जैसा ज्ञान ? यह तेरो कैसी शिक्षा ? जिस भारतके गौरवको प्रथम अनेक राजा महाराजा और पुण्य पुरुषोंने शोलधर्मकी रक्षा फर बढ़ाया उसको तु कुशिक्षाके प्रभावसे जवानीकी अधतामें खोता है नष्ट करता है। ___ हे भव्य ! अब भी चेत ! व्यर्थ ही पापकर्मके विचारों के द्वारा अपना और असंख्य भोले संसारीजीवोंका हित नष्ट मत कर सन्मार्गका विचार कर, जिनागमकी पवित्र आज्ञाका विचार कर, विषयों की पुतलीमें मग्न होकर व्यभिचार (विधवा विवाह ) का उपदेश मत दे। ___ हे भव्यजीव ! धनमदों उन्मत्त होकर पापके कार्य करनेमें विचार शक्तिको नष्ट न कर। तारा और चंद्रके समान चमकने घाली यह विभूति क्षणमात्रमें नष्ट हो जायगी और देखते देखते विलीन हो जायगी। और तू होलीका नाथू बनकर अपनेको तथा जगतके भोले अज्ञानी प्राणियोंको कूपमें मत 'ढकेल।
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जीव और धर्म-विचार। [२५६ यद धन और या मनुष्य भर महान् पुण्यफे योगसे प्राप्त हुमा है उसो त अपनी धनकी उन्मत्ततामें विचाराध होकर च्यामनार, हिंसा,नठ, सन्याय, परखी हरण सप्तव्यसनसेयन और अत्याचारोंक फाषिो बनर्गल सेवन कर रहा है। रे भाई ! सुष विचार और गन्छी सोच, फिर ऐसा मौका नहीं मिलेगा
और नये सयोग मिलंगे। इसलिये धन और बुद्धिशे प्राप्त कर जिन पूजन, सत्यानदान, गुरु सेवा, जिनप्रतिमा निर्माण, जिन मंदिगंदार, ग्धोत्तय, धर्मात्मा भाइयोंकी मुश्रपा, जिनागमकी सेवा आदि उत्तर फार्यो में धनको रगार यात्म पल्याण कर। जगन जोगशोसन्मार्ग पर लगा। पवित्र जैनधर्मकी सेवा कर मोर जग जीवोंको जैनधर्म की पवित्रता एवं सर्वोत्कएनाका योघ फरा।
भव्यात्मन् ! मानका प्राप्त करना महान् दुलंम है पुण्यके योगले मानकी प्राप्ति होती है। एक सम्मान द्वारा अनंत भवफे फर्म बधन पफ क्षणाप्रमें नष्ट हो जाते है। तो मौकी निर्जरा सनत भरमें घोर तपश्चरणके द्वारा (बडे २ कर सहन फर) करता दै उन फर्मों की निर्जरा जागी त्रिगुप्तिमे लोला मात्र फर लेता है। हे भव्य तु यो० ए० हुआ, वकील हुबा, ज्ञानका प्रोफेसर पना, शानफा वैरिएर दुया, मानको प्राप्त कर अपनेको ज्ञानी समझने लगा परन्तु जान प्राप्नफर चाहे जो चाहे जैसा खाया, मदिरा पान किया, गरिमें भोजन फिया, होटलमें जुना पहनकर अभक्ष भक्षण किया, परस्त्री रपटी धना, व्यभिवार और अनीतिका प्रचार करनेवाला
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२६०] जीव और कर्म-विचार । नेता वना, जगतके भोले जीवोंके धन और स्त्रीको हरण करनेवाला बना, मागमको मिश्या टहराने घाला घना, गुरुओंकी निन्दा करने थाला बना, भगवानकी मूर्तिका निरादर करने वाला बना जैनधर्म में अवर्णवाद लगानेवाला धना, जैनधर्मकी पवित्रताको नष्ट करनेवाला चना, जैनधर्मके पवित्र भेषको धारणफर चांडालोंके साथ भोजन पान करनेवाला वना, विषयक्षाय और मिथ्या मार्गकी पुष्टि करने वाला बना, अनंत संसारको बढानेवाला बना ऐसी दशामें धिकार है तेरे ज्ञानको! धिक्कार है तेरी समझको! धिकार है तेरो नीतिको! धिकार है तेरी शिक्षा को!
रे विचार शील! जरा तो विचार कर कि ज्ञानके द्वारा कैसे पवित्र गौर उत्तम कार्य होते है ज्ञानी पुरुपोंके कार्य लोकोत्तर होते हैं परंतु हे ज्ञानिन् ! तू ज्ञान संपादन कर एवं शानका प्रोफेसर बन फर जिनागमके विरुद्ध मिथ्यात्वकी वृद्धि करता है। मिथ्यात्यकी वृद्धिमें धर्म मानता है, जिनागमके लोप करनेमें ही अपना सौभाग्य समझता है परन्तु तेरो यह भूल तुझको अवश्यही दुख देगी, तेरे दुष्ट कार्य तुझको अवश्यही नरफका दुख देंगे, तुझे गदा सुअरकी पर्यायमें पटफेगें कमौका फल अवश्यही मिलेगा। __ हे विचार शील ! मिथ्यात्वके समान अन्य कोई पाप नहीं है मिथ्यात्वकी वृद्धि जिनागमकी पवित्रता नष्ट करनेसे, जिनागमकी आशाको नहीं माननेसे, जिनागमको सत्य स्वरूप नहीं जाननेसे, जिनोगमके अर्थ में विपर्यास करनेसे, देव गुरुकी मिथ्या निदा, करनेसे होती है। इसलिये चाहे जो हो परन्तु पेसा परोपकाए
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जोध और फर्म-विचार।
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करना मत सीखो जिससे तुम्हारा धर्म नष्ट हो, तुम्हारा मागम नष्ट हो, धर्म मायतनमें मिथ्या मपर्णवाद लगाफर । मेद्रोही मत बनो। पापके प्रवारफ मत पनो, धर्मके निदफ मत पनो, शील धमके लोप फरनेगले मत यनो, हिंसा झुठ चोरीके पढानेवाले मत यनो, हिन्दी भो धर्मात्मा भाइयोंका दिल दुसानेवाले मत बनो, मानके जालमें दुनियाको ठगने घाले मत पनो, जान तलवार भी अधिक कर है तलवारस एक ही मनुष्यका बघ होता है परन्तु ज्ञान हजारों अनुप्पोंका यध एक साथ होजाता है इसलिये हे ज्ञानवारो! मातका दुरुपयाग मत करो । ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानले अन्याय मत फरो। मानने वारिन पालो, नानसे शुद्धताफा विचार करो । बामवर्षका संचन फगे।
दी जानी। जिसने अपने को पापस बनाया है। जिला पाग फोका त्याग है। जिसने पिढशुद्धि भोजनशुद्धिका पालनगर अन्याय और अत्याचारको स्वत: छोडा है तथा संसारस अन्याय और अत्याचारस अपने को पचाया है।
मानो मनुष्य सम्यग्दर्शनको वृद्धि करता है । सम्यग्दर्शनको विशुद्धि करता है, जिनागमकी पवित्रताका सर्वत्र प्रचार घरना है, यात्माको पहिचानता है, सब जीवोंपर दया करता है, समस्त जीवॉका हित चाहता है, स्वार्थ या मोज मजाके लिये अन्यायका सेवन नहीं करता है, सदावारको नष्ट नहीं करता है, पाप पुण्यको पहिचानता है कर्मबंधको समझना है।
परन्तु वर्तमान समयमें जिनागमको श्रद्धा रखकर जिनागमके
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२६२] जीव और कम-विचार । ज्ञान द्वाग ज्ञानी बननेका अभाव हो गया और पश्चिम विधा (नास्तिक विधा ) की कुशिक्षासे अपनेको ज्ञानी (नक्ली ज्ञानीका) बाधंवर पहरनेवाले मनुष्य झोनका सदुपयाग नहीं करते हैं। घास्तविकमै उनका ज्ञान मचा नहीं होने से पुण्य पापके कार्यो में विक जग भी नहीं रहता है। वास्तविक दया नहीं पालते है। कायदा कानूनसे बचना वास यही महिला धर्म समझते है। घोडा नहीं चले ना मार देने में हिंसा नहीं, पशु पक्षीमें जीव नहीं, पायर और असमर्थमे मात्मा नहीं हैं ऐसे मलिन विनासे हिसा और पहिसाका स्वरूप जानते ही नहीं।
जाने हासेक्यांकि जिनागमके पवन उनके भोग विलास मोज मनामे अनीति घतलाते है। असदाचार पतलाते हैं। इसलिये वर्तमानके कुशिक्षित ज्ञानी जिनागमफा विश्वास नहीं करते है। मिथ्यात्वसं वचो मिथ्यात्वको छोडो, मिथ्यात्यके त्यागमें धर्म मानो, हे भाई! इसी में सपका हित है।
कर्मबंधका क्षय असंयत सम्यग्दृष्टी (चोथागुणस्थान) संयता संयत (पांचवां गुणस्थान) प्रमत्त गुण स्थान ( छहागुणस्थान ) अप्रमत्त । सातवागुणस्थान ) में क्रमसे दश प्रकृतिका क्षय होता है। - अनंतानुवंधी क्रोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ मिथ्यात्व ५ सम्यमिथ्यात्व ६ सम्यक्त्व प्रकृति ७ तिर्यगायु ८ देवायु'६ नर. कायु १० इस प्रकार दश प्रकृतियोंका क्षय बौथा पांचवा छट्टा सातवें गुण स्थानमें होता है।
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जाव और फर्म- विचार ।
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नवमें गुण स्थानके नौ विभाग माने है उनमें कमसे नीचे ीि प्रकृतियोंका क्षय होता है ।
प्रथममागने - स्त्यानगृद्धि १ नद्रा निद्रा २ प्रचलाप्रचला ३ नरकगति ४ निर्यग्गति ५ एकेद्रिय जाति ६ द्वीन्द्रिय जाति ७ तीन इन्द्रिय जाति ८ तुरिन्द्रिय जाति नरकगति प्रायोग्यानु पुव्व १० तिर्यगति मनु पुर्च ११ मत १२ उद्योत १३ स्थावर १४ सूक्ष्म १५ साधारण १६ इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय नवमें गुण स्थान के प्रथम भाग में होता है ।
द्वितीयभागमें- अप्रत्याख्यान कोध १ मान २ माया ३ लोभ ४ प्रत्याख्यान क्रोध ५ मान / माया ७ लोभ ८ इन आठ कम प्रकृतियोंका क्षय नवमें गुण स्थानके द्वितीयभागमें होता है । तृतीयभागमें - नपुंसक वेदका क्षय होता है ।
चतुर्थभाग-स्त्रीवेदका क्षय होता है ।
पचमभागमें - हास्य १ रति २ अति ३ शोक ४ भय ५ जुगुसाई इसप्रकार न गुणस्थानके सबमें भागमें क्षय होता है ।
छठे भागमें- पुंवेदका क्षय होता है ।
सप्तम भाग में संज्वलन कोधका क्षय होना है आठवे भागमें संज्चलन मानका क्षय होता है । नव भाग में - संज्वलन मायाका क्षय होता है
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इस प्रकार नवमें गुण स्थानके नत्र विभागों में छत्तीस फम प्रकृतियों का क्षय होता है ।
दशवे गुणस्थान में संञ्चलन लोभका क्षय होता है चारहव
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२६४] बीव और फर्म-विवार । गुणस्थान (क्षीणकपाय) के द्विचरमस्थानमें निद्रा प्रचलाप्रचलाफा क्षय होता है।
वारहर्वके अंत समयमें पांच ज्ञानावरण ५ चार दर्शनावरण : पांच अंतराय १४ इस प्रकार चौदह कम प्रकृतियोंका बारहवें गुण स्थानके अंत समयमें क्षय होता है।
इस प्रकार घारहवें गुण स्थानमें १६ कर्म प्रकृतिमोंका झप होता है।
इस प्रकार वोथे गुण स्थानसे प्रारंभ कर वारहवें गुणस्थान के अंत पयंत ६३ बम प्रकृतियोंका क्षय होता है।
तेरहवें गुणस्थानमें किसोभी फर्मप्रकृतिका क्षय नहीं होता है। चौदहवे गुणस्थानके द्विवरमसमय में
पान शरीर ५ पाच संघात ५ पांच बंध ५ तोन मांगोपांग २ छह संहनन छह लस्थान ६ पांचवर्ण ५ दो गंध २ पांव रस ५ माठ स्पर्श ८ देवगति १ अपर्याप्ति १ प्रत्येक शरीर स्थिर १ शुभ १ अशुभ १ दुर्भग १ दुस्खर १ सुस्वर १ अनादेय अयश:कीर्ति १ म. साता वेदनी १ अगुरुलघु १ परघात १ उपघात १ उभ्यास १ नीच गोत्र १ निर्माण १ देवगत्यानु पूर्व १ दो विहायोगति २ अनादेय १
इस प्रकार ७२ कम प्रकृतियों का क्षय बोदहा गुण स्थानके द्विचरम लमयमें होता है।
चौदहवें गुण स्थानके अंत समयमें
आदेय १ मनुष्यगति २ मनुष्यगति मानुष्यं ३ पंचेन्द्रिय जाति ४ मनुष्यायु ५ पर्याप्ति ६ त्रस ७,घादरः ८ सुभग ६ यार कीर्ति १० सातावेदनो ११ गोत्र १२ तीर्थकर १३
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जीव सौर धर्म-विचार । [२६५ इस प्रकार १३ प्रतियों का क्षय अयोग फेवली करते हैं।
इसप्रकार चोधे गुणसे बौदा गुणस्थान पर्यंत गुणस्थानोंमें यपाकमसे १४८ कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है । इसप्रकार समस्त कोपा समूल नाराफर मात्मा परमात्मा होता है। जिस प्रकार सावरके ऊपरका छिलफा दूर करने पर वह पुनः अंकुरित होने के लिये सर्वधा असमर्थ होनाता है ऐसे ही परमात्मा फौंका समूल नाश पर देनेसे जन्ममरण रहित होजाते है। इस प्रकार प्रत्येक मात्मा अपने आत्मीय शुद्ध पुरुषार्थसे परमात्म पद प्राप्त कर सकता है यही जन सिद्धान्तका उदार आशय है।
समस्त फोसे रहित, निरंजन, निर्विकार, निदोप, अमृतीन, निगकुल, नि, निर्भय, अशरीर, निर्मल, संसारसे परातीत, जन्म. मरण रहित, शोक रहिन. जुगुप्पा दन, खेद स्वेदहित, रोगरहित क्षुधा रहित, विवामा रहित, अनंतशान अनंत दर्शन अनत सुख संपन्न, अनंत घीर्य सहित, आत्मा अविनाशी नित्य अष्ट गुण मंडिन होजाता है। फिर यह परमात्मा संसारमें लौटकर भो नहीं आ सकता है।
हे मव्यात्मन् ! जो संसारके जन्म मरणके दुखोंसे सदाके लिए हटना चाहते हो तो कोका नाश करनेका उद्योग करो। फमके सिवाय अन्य कोई भी जीवका दुश्मन नहीं है, दुख्न प्रदान करने वाला नहीं हैं, जन्म मरणका प्रदान करनेवाला नहीं है, पशु पक्षी नरक आदि पर्यायमें वर्णनातीत वेदनाका देनेवाला नहीं है।
जीवोंको जो फष्ट हो रहा है यह सर्व फर्म जनित है कर्म बडे
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२६६ ।
जीव और कर्म-विवार ।
चलवान है जगतके जीवोंको अपने स्वाधीनकर मनमाना दुख देते हैं ।
जो स्वतंत्र होना चाहते हो, जो जन्म मरणके दुग्वोंसे छूटना चाहते हो, जो सुख शातिको प्राप्त होना चाहते हो तो कर्मोके नाश करनेका उद्याग करो ।
कर्मो का नाश निर्बंध अवस्थासे प्राप्त होना है इसीलिये गुरुओं को तरण तारण दुख निवारण करनेवाला, जन्म मरणको उच्छेद करनेवाला, परम सुखको प्रदान करनेवाला माना हैं ।
गुरु ही अकारण बंधु है, मसार समुद्रके जहाज है; विपदा दू करनेवाले हैं और दुखोंसे बचानेवाले हैं ।
को
६ शरणभूत
गुरु ही माता हैं पिता हैं वधु हे रक्षकलोकोतम है परम मंगलके प्रदान करनेवाले मंगल मय है परमपुरुष हैं योगी है, योगीश्वर है, काम क्राध मान माया लोभ ईर्षा द्वेष रागमोह छल प्रपचको जीतनेवाले है ।
गुरु ही त्रिकालज्ञानी हूँ भवदधिले तारने वाले हैं। सफल दर्शी हैं । सकल हितैषी हैं। सबके कल्याण करने वाले हैं, सबको सन्मार्ग बतलानेवाले हैं, निःस्वार्थ बुद्धिसे निराकांक्षित होकर सबके दुःखोंको मिटाने वाले हैं, सत्र जीवोंका परोपकार करनेवाले हैं, शत्रु और मित्र दोनों को एक समान जाननेवाले परम वीतराग हैं, जिनको अपनी निदामें क्रोध नहीं है, और अपनी कीर्तिमान प्रतिष्ठा में हर्ष नहीं हैं, इस प्रकार क्षमा सत्य शौध त्याग ब्रह्मचर्य आदि उत्कृष्ट गुणोंके धारण करने वाले हैं।
इसलिये मोक्षमार्गका बिकाश गुरुसे ही होता है । वे ही धीर
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जीव और धर्म विचरि। [२६४ बोर उप्र साहसी समस्न परापहोंको सदनकर घोर तपश्चरण और मविवल ध्यान द्वारा फर्मोके नाश करने वाले होते हैं।
हे भाई! जो तू सपने फर्माका नाश करना चाहता है तो गुरुफी सेवा करना सोख गुरुकी शरण प्राप्त हो । गुरुको परम पूज्यदेव समझ, इन्द्र नरेन्द्र धरणेन्द्र और जगतके जीवोंसे पूज्य माननीय वदनीय एवं अवनीय समझ ।
यहुतसे समयसे गुरुओंका दर्शन नहीं था इसलिये मोक्षमार्ग भी व्यक नहीं था। अय त्रिलोकके जीवोंको पावन करनेवाले, जैन धर्मका उद्धार करनेवाले, संसारसे तारने वाले, मोक्ष मार्गको प्रदान करने वाले, अनंत सुखोंको देनेवाले, श्री १०८ श्रीदिगम्बरा. चार्य शांनिसागर महाराजका अवतार हुआ है उनका सघ जगतमें सुर्य के समान प्रकाश कर रहा है।
__ अय जागो! अब जागो! जागृत हो! जागृत हो!! संसारके बहुतसे प्राणियोंने मोह रूपी गाढ अंधकारको भेदकर गुरुके संघ द्वारा सम्यक्त रत्नको प्राप्त कर लिया है। अपनी खोई हुई निधि जो मिथ्यात्व अन्धकारमें विलीन थी वह गुरु सूर्यके प्रकाशमें स्वय. मेव प्रकाशित हो गई है । इसलिये सोनेका समय नहीं है।
गुरुसेवाके द्वारा मोक्ष मार्गको प्राप्त हो अपना मात्म कल्याण करो। और दुखोंका नाश कर कर्म बंधन रहित अजरामर पद मोक्ष सुखको प्राप्त हो। शिवमस्तु सवुद्धिग्स्तु
कल्याणमस्तु .
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