________________
१८६]
जीव और कर्म विचार। देवगत्यानुपर्व्य नामकर्म-जिस धर्मले उदय जीवोंको देव. पर्यायके प्रति गमन करते समय विप्रहगतिमें फार्माण शरीरका आप र पर्व पर्णन (जिस पर्यायता परित्याग कर देव-पर्यायमें गमन करनेको जा रहा है) के आकारके समान हो वह देवगत्या. नुपर्य नामर्म है। ___गत्यानुष्य में दो चाते हैं। एक गति दूसरी आनुपूर्वी । सो गति तो जिस पर्यायको जाना है वह ग्रहण की नायगो। जैसे एक मनुष्यो मर कर देव पर्यायको जाना है तो यहाँ पर गति तो देवगत नहलायेगी । परन्तु आनु:-मनुष्य पर्यायकी होगी गनु वा अर्ध विग्रहगतिमें जीवका आकार लो मनुष्य प. यले मरकर देवपर्यायमें जा रहा है। इसलिये विग्रहगतिमें मनुष्य पर्यायका ही आकार रहेगा। जिस पर्यायसे भरकर आयेगा उस त्यक पर्यारो आकारको ही विग्रहगतिमें धारण करता रहेगा यह आनुपूर्तीका अर्थ है । अर्थात जिस गतिमें जा रहा है उसले पहले भत्रके शरीराकारको जीव धारण करे सो गत्यानुपूर्वी कम है।
यदि गनुपी जर्मन माना जाय तो जामीण शरीरका आकार नहीं मानना पड़ेगा। कार्मणा आकार माने बिना उसको शरीर संज्ञा ही नहीं होती है। जो कार्मण पिडका कोई भी प्रकारका आकार नहीं माने तो फार्मण पिंडको शरीर नहीं कह सकते और कार्मण पिंडको शरीर माने बिना जीव मरने पर शरीर रहित हो जायगा तो तपश्चरण ध्यान अध्ययन आदि क्रियायें व्यर्थ