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________________ जोव और कर्म-विवार | [ १८५ वाला संस्थान प्राप्त हो वह आनुपूव्य नामकर्म पदलाता है । भावार्थ जैसे एक जीवने मनुष्यपर्यायका परित्याग कर देवपर्याप्त तो मनुष्य पर्याय छोड़नेके बाद और देवपर्याय प्राप्त करनेके प्रथम ( दोनों पर्यायके अंतराल में ) विग्रहगतिमें मनुष्य के शरीरके समान कार्मण शरीरका आकार बना रहे वह आनुपू है । यह गतिके भेदले चार प्रकार है । नरकगत्यानुपूर्य नामकर्म - जिस कर्मके उदयसे नरक गति को गमन करते जावको विग्र गतिमँ ( दोनों पर्यायक अंतराल में ) पूर्वभत्रका आकार बना रहे ( जिस पर्याय छोडकर नरक में जा रहा है ) उसको नरकगति आनुपूर्व्य पहने है भावार्थ जब तक नरक शरीरका धारण नहीं दिया है। उस जीन के कार्मण गरीरमा आकार पूर्व पर्याय ( जिस पर्यायको त्यागकर वह नरक जा रहा है ) के आकार का होना वह आनुपूव्ये नामकर्म है । निर्यग्गत्यानुपूर्व्य नामकर्म - जिम कर्मके उदयसे जीवोको नियंच गतिमें गमन करते समय विग्रहगतिमें कार्मण शरीरका आकार पूर्व पर्याय (जिस पर्यायकों छोड़कर तिर्यग्गतिमें जा रहा है ) के आकारका हा वह निर्यग्गत्यानुपूर्व्यं नामकर्म है । मनुष्यगत्यानुपूढ नामकर्म - जिस धर्मके उदयसे जीवोंको मनुष्य पर्यायके प्रति गमन करते समय विग्रह गतिमें कार्माण शरीरका आकार व पर्याय ( जिस पर्यायको छोड़कर मनुष्य पर्याय गमन करने को जा रहा है ) के आकार के समान हो वह मनुष्य गत्या नुपूर्व्य व हलाता है ।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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