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जीव और कर्म-विवार
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जल्में तरंग स्वभावरूपसे निरंतर होती है द्रव्यमें भी खभायरूप परिणमन होता है। शुद्ध द्रव्यमें स्वभावपरिणमन होता है । अशुद्ध द्रव्यमें विभावपरिणमन होता है । जीव और पुद्गल य दृष्य ये शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकारकी है।
अशुद्ध द्रव्यमें परिणमन वाह्यकारण-कलापोंके निमित्तसे और आभ्यंतर द्रव्यकी शक्तिसे होता है । परंतु शुद्ध द्रव्यमें परिणमन होनेमें वाह्यकारणकी विशेष आवश्यकता नहीं है । प्रतीतिरूप कार्य वाह्यनिमित्तके द्वारा हो मानना पडेगा जैसे केवलज्ञान में समस्त परिणमनशील पदार्थोंको ज्ञायकतामें कथंचित् उत्पाद व्यय विशिष्ट पदार्थ कारणभूत है ।
आकाशादिक नित्य द्रव्योंमें भी परिणमन होता है । परंतु स्वभावरूप हो होता है । यदि उत्पाद और व्ययको स्व-परप्रत्यय माने तो नित्य द्रव्यमें भी उभय रूप कथंचित् उत्पाद और व्यय रूप परिणमन मानना पडेगा । इस प्रकार आकाशादि नित्य द्रव्यमें भी परिणमन होता है । तो द्रव्यको कूटस्थनित्य मानना वस्तुके स्वरूपको नहीं जानना है । फुटस्थ नित्य कोई भी द्रव्य किसी प्रकार किसी अवस्थामें हो नहीं सक्ती । हां अपेक्षासे (द्रव्यार्थिक नय से ) द्रव्यको कथंत्रित नित्य कह सके हैं। कूटस्थ नित्य तो किसी रूपमें नहीं कह सके क्योंकि पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे सभी द्रव्य समय समय पर परिणमन करती है ।
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द्रव्यका लक्षण ही उत्पाद व्यय और श्रीव्य रूप माना हैं यदि द्रव्य में से उत्पाद और व्यय नहीं मानकर केवल एक धौन्य
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