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________________ ६४] जीव और कर्म-विचार। रुप ही मान लिया जाय तो द्रव्यका लक्षण निर्दोषं रूपसे सिद्ध नहीं हो सका हैं। अव्याप्ति अतिव्याप्ति दूषणोंले ग्रसित हो जायगा। समय समयमें होने वाली घटमें कुशलादि-कालादि पर्याये कूटस्थनित्यका अभाव प्रत्यक्ष सिद्ध करती हैं। खान-पान हलन-चलन संभाषण सचितवन गमनागमन आदि समस्त क्रियाओंका लोप जीवको कूटस्थनित्य माननेसे मानना पडेगा क्योंकि कूटस्थनित्य वस्तुमें किसी प्रकारकी क्रिया मानी नहीं जायगी। जो कूटस्थनित्य वस्तुमें क्रिया भानी जाय तो वह कटस्थनित्य हो नहीं सका। जो वस्तु परिणमनशील है उसीमें क्रियाकारत्व विधि युक्तिपूर्वक सिद्ध होती हैं। परिणमन रहितमें क्रिया मानें तो वह अपरिणमन किस प्रकार कहा जाय। इस प्रकारकी कल्पनासे न तो शुद्ध जीवका • यथार्थ स्वरूप सिद्ध होता है और अशुद्ध जीवको स्वरूप भी सर्वथा सिद्ध होता ही नहीं। क्योंकि अशुद्ध जीप कर्मोदयसे समय समयमें नवीन नवीन पर्याय धारण करता है, जन्म-मरण करता है, वालक वृद्ध होता है। फिर भी प्रत्यक्षमें व्यवहारका सर्वथा अभाव (लोप) कर और प्रत्यक्षमें होनेवाले कार्योंका लोप कर पदार्थोंको कूटस्थ नित्य मानना किसी प्रकार युक्तिसिद्ध नहीं हैं। ___ जो जीवको कूटस्थनित्य मान लिया तो फिर कोई भी पोप कैसाही भयंकर क्यों न करे. उसका फल जीवको नहीं होगा क्योंकि जीव नित्य है उसमें किसी प्रकारका परिणाम नहीं हो सकता है । पाप और पुण्य-कर्मका लोप करनेके लिये हो जीवको
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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