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________________ जीव मोर कर्म विचार। निर बनानेका प्रपत्ल करना चाहिये। मिप्यात्वा परित्याग करना चाहिये । भयवा स्वाध्यायके द्वारा शालगुरुको पूर्ण श्रद्धा रखकर मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिये जब तक शास्त्रको पूर्ण श्रद्धा नहीं है तब तक मिथ्यात्वका त्याग नहीं है । जो मुधारक प्रथमानुयोग और फरणानुयोगको असत्य यनलाते है. मौर वरणानुयोगको माहाको अबहेलनाकर विधवाविवाहक द्वारा व्यभिचार फ्लाते हैं। वे प्रकद तोत्र मिप्यावो हैं जन कुलमें उत्पन्न होने मात्रसे जैना नहीं होते है। गुरु सेवा जिनपूजन शास्त्र स्वाध्याय उसी मनुष्यका ठीक है। जिमकी जिनागम, पूर्ण श्रद्धा है। जिनागमका श्रद्धान किये विना निध्यात्वा परित्याग नहीं होसका है। मावोंकी विशुद्धता मिथ्यात्वरे त्याग बिना नहीं होती हैं' भावोंकी संभाल रखनेवालोंको मिथ्यात्वका त्याग अवश्य ही करना चाहिये। राग-द्वेप आत्माके विकृत-भाव है जिन राग-द्वपमें मिथ्यात्व का योग होता है चे ही रागद्वेष क्रोध मान माया लोम काय मत्सर या प्रपंच बलस्पट हिंसा झूठ चोरी कुशील आशा और गृद्ध तृपयाझे कारणभूत होते है। इसलिये रागद्वेपको घटानेके लिये सबसे प्रथम मिथ्यात्वका त्याग करना चाहिये। का संबंध यद्यपि योगोंसे अधिक है तो भी योग भाकि बिना अपने अपने कार्य करने में असमर्थ हैं। कर्मका विचार करने. वालेमानी पुत्सोको मिध्यात्वादि दुर्भावोंका परित्याग करना चाहिये।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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