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________________ ६४ ] जीव और फर्म- विचार | परिणामोंमें विशेष अज्ञान ही होता है जिससे तीव्रतर कथायोंकी परणति विशेषरूपसे जागृत हो । नित्यनिगोटिया लध्व अपर्याप्तक जीवके वाह्य कारण ऐसे नहीं है कि जिससे वह एक श्वासो श्वासमें अठारह चार जन्ममरणको ग्रहण करे परन्तु निगोदिया जीवके मिथ्यात्वभावसे ऐसा घोर अज्ञानभाव होता है कि उसके कृष्णलेखा और कपाय भावोंकी सानिशय तीव्रता परिणामों में निरंतर बनी ही रहती है। जिसके फलसे वह एक श्वासोश्वास में अठारह वार जन्म-मरण ग्रहण करता है । 1 1 2 + तदुल मत्सकी बाह्य चेष्टा हिंसादि रूप विशेष नहीं होती है क्योंकि उसके शरीरकी अवगाहना सूक्ष्म है जिससे वह दिसादिक अशुभ व्यापार नहीं कर सक्ता है तो भी मिध्यात्वादिक कपाय भावोंसे उसके मावोंकी चेष्टा मलिन - हिंसादिरूप -- अज्ञानरूप - कषायरूप - आर्चरौद्र रूप होनेसे - अनंत, संसारका बंध करता है । जीवोंको सबसे प्रथम अपने भावोंकी बहुत ही संभाल रखनी 7 4 } चाहिये - मिथ्यात्वादिक दुष्ट भावोंका गुरु सगति से प्रत्यागः करना चाहिये। गुरु विना भावोंकी शुद्धि करनेवाला और मिथ्यात्व का परित्याग करानेवाला अन्य कोई नहीं है । मिथ्यात्वका परित्याग किये बिना कितने ही शुभ कार्य किये जायं भावोंको विशुद्ध करनेके लिये कितना हो अनुप्रान जपः तपध्यान संयम आदि क्रिया की जाय तो भी वह संसारको बढाने वाली ही होती है। मिथ्यात्वभावले आश्रव हीँ होता है संवर निर्जरा नहीं होती है। इसलिये सद्गुरुके समीप अपने भावोंकों ← ܐ
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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