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जीव और कर्म विचार /
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( ३ ) सम्यक् प्रकृति - कोर्दोके तुपके समान सम्यक् प्रकृति aaint सम्यक् श्रद्धानसे च्युत नहीं कर सकी। मिथ्यात्वरूप परणति नहीं कर सकी है जीवोंको तत्व रुचि होती है । सम्यक्श्रद्धान भो होता है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर पूर्ण अविचल श्रद्धान होता है । भेद-विज्ञान भी होता है। जीवादिक पदार्थो की रवि होती है | महंता और महंता नए हो जाती है । अज्ञानभाव दूर हो जाता है और सम्यक्भाव प्रकट हो जाता है परन्तु सम्यत्वमें मलका उद्भवन होता है । पच्चीस प्रकार के मल ( दोष ) प्रकट हो जाते हैं । उन दोषोंके प्रभावसे आत्मा के परिणामोंकी प्रवृत्ति यसवरूप अनायतन सेवनरूप हो जाती है इसीलिये इस प्रकृतिको मिध्यात्व में परिग्रहीत किया है।
पच्चीस दोपों से कितने ही तो दोष ऐसे है कि जिनसे मिथ्यात्व के भाव तत्काल ही उदय होजाते हैं । जैसे देव-शास्त्रगुरुका प्रदान करनेवाले जैन कुलोत्पन्न श्रावकको ( सम्यग्दृष्टी ) पदार्थो का परिणमन सूक्ष्म होनेसे या कुशास्त्रोंके अध्ययनसे जैन धर्मके तत्वमें शंकाका होना, दूसरे जीवोंको धनादिक भोग संपदासे सुखी देखकर पर वस्तु मे आत्म-सुखकी भावना कर परवस्तुको वाहना, अन्य मतके विद्वानोंके शास्त्र के चमत्कार-मंत्रके चमत्कार, राज्यादि विभूतिका लोप, स्त्री मिलनेकी आशा आदि कारणकलापोंमे अन्य मिथ्यामतको उत्तम माननेकी भावना या उनको उत्कृष्ट और सत्य स्वरूप मानने की भावना, इसीप्रकार लोक मूढनादि मुढता कार्य ये सब दोष आत्माको मिथ्यात्वके सन्मुख करा देते हैं ।