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________________ १४०] जीव और कम-विचार । सम्यक्प्रकृतिसे चल मल और अगाढ दोपोंका सदभाव भी माना गया हैं तो भी ठाक है । क्योकि मलादिक टोपोंकी विशेष वृद्धि हो जावे तो मिथ्यात्वफे सन्मुन्य यात्मा तत्काल ही हो जाता है चलमलिन अगाढ दोपोंसे सम्यग्दर्शनका घात नहीं होता। __आठ शंतादि दोप-छह अनायतन, आट मद (सहकार) और तीन मूढता ये पच्चोल दोप है। इन टोपोंले सम्यक्त्वमें मल लगता है या सम्यक्त्व नष्ट होजाता है इनका विस्तार ग्रन्यों में बहुत किया है। परन्तु इन दोषोंको स्वरूप विवेक-पूर्वक जानना चाहिये अन्यथा धर्मके लोपकी संभावना या धर्मको प्रलंकित बनानेकी पृथा प्रकट हो जाती है जैसे जातिमद या कुलमद नहीं करना चाहिये क्योंकि मद पच्चीस दोपोंमे है। एक उत्तम कुल. वाला मनुष्य अपने कुलके गौरवको घढानेकेलिये यलिन साचरण नहीं करना है। भगीके लाथ खान-पान या रोटी वेटी व्यवहार नहीं करता है वह समझता है कि जो मैं भगी आदि नीव मनुष्य. के लाथ गेटी-बेटी व्यवहार करूगा तो मेरा मोक्षमार्ग नष्ट हो जायगा मेरे उत्तम कुलकी पवित्रता मारी जायगी। मेरा सदाचार और आचार विचार नीच मनुष्योके साथ रोटी-बेटी व्यवहार करनेसे मलिन होजायगे फिर मेरे कुलमें मुनिधर्मकी दीक्षा नहीं हो सकेगी ऐली उच्च भावनासे वह अपने कुलके गौरवको रख रहा है तो उसको मद नहीं कहेंगे। पर-पदार्धको ( आत्मवुद्धि ) आत्मारूप मानकर अभिमान करना लो मद कहलाता है। इसीप्रकार शंकादिक दोषोंको विचार-पूर्वक समझना चाहिये।
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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