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जीव और कर्म-विचार |
णमन होने लगता है । परिणामोंमें मिथ्यात्व के संस्कारोंका असर, जीवोंके भावोंको मिध्यात्वकी तरफ खींच ले जाता है। उतना व्यापक प्रभाव कुदेव और कुगुरुका नहीं होता है कि जितना कुशास्त्रोंके अध्ययनले होता है । बालकको फोमल बुद्धिमें तो कुशास्त्रोंके अध्ययनका फल तत्काल ही प्रकट होता है । इसका एक कारण है कि जंनधर्म निवृत्तिरूप है और अन्यमनके समस्त शास्त्र विषयवासनाओंकी प्रवृत्तिरूप है। इसलिये विषयवासनाका रंग कुशास्त्रोंके अध्ययनसे मिथ्यात्वरूप चढ़ता है । जिनके दृढ संस्कार हैं जिनका कुल धर्म अकुशरूप सुदृढ है और जिनका श्रद्धान धार्मिक शास्त्रोंके अध्ययन से जिनधर्मका श्रद्धा तरफ सुदृढ होगया हैं ऐसे मनुष्य के भावों में मिथ्याशास्त्रोंके अध्ययन से क्वचित मिथ्यात्वरूप परिणमन हो जाता है तो संस्कारविद्दीन साधारण मनुष्योंकी क्या बात ? इसलिये अपक्ववयमें बालकों को सबसे प्रथम धार्मिक शास्त्रोंका अध्ययन कराना चाहिये खासकर चरणानुयोगका अध्ययन तो सबको नियमसे करना ही चाहिये । वृद्ध और युवा मनुष्योंको अपने सम्यग्दर्शनको विशुद्ध बनानेकेलिये चरणानुयोग - प्रथमानुयोग और करणानुयोगका अध्ययन करना चाहिये । पदार्थों को सम्यक् प्रकारसे जाने विना और निश्चय व्यवहारनयका स्वरूप प्रमाण नय निक्षेप तथा अनुभवके द्वारा जाने बिना केवल अध्यात्म ग्रन्थोंका अध्ययन नहीं करना चाहिये | अध्यात्म ग्रन्योका स्वाध्याय यदि विवेकपूर्वक किया जाय तोही सम्यक परिणाम होता है । व्यवहारका लोप हो जानेसं सदाचार नष्ट हो जाने की संभावना बनी रहती है ।