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________________ जीव कर्म-विचार | [ १३७ परिणामों में मित्रको उत्पन्न करती है। परन्तु इसकी नीवतामिति समान अत्यत विवम नहीं होती है । कुछ भवना लिये रहती है । इसीलिये वह सच्चे देव शास्त्र गुरुकभी कविता प्रीतपूर्वक सेवन करता है। और प्रसंग परमया देव, मिथ्या गुरु, मिध्या धर्म और मिथ्या शास्त्रोंको सेवन करने लगजाता है परन्तु मित्र प्रकृतिकेय वैमाविक मावही रहता है टमने सम्यग्दर्शनफा लेगभी नहीं है । जिस प्रकार दही और गुड मिलानेले मट्टा मीठा मिश्रित स्वाद आता है। इसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्व प्रकृति पदय जीवोंके परिणामोंमें सम्यग्मिध्वा भार होजाते है । जिससे वह अनन्य श्रद्धान करना है । सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका कार्य सम्यग् नहीं कहा जाना है क्योंकि उसका परिणमन मिथ्यात्वक तरफ प्रवाहित है विशेषता मिपाल नरफी लगी रहती है । इसीलिये इसको मिि हो संमिलित करते हैं । परन्तु मिथ्यात्व की अपेक्षा हममें कुछ भट्टना है। तीव्र टुकना नहीं है । चाहे तो यह अपने परिणामों को सुधारकर मिध्यात्व भावोंको कर सका है । कुशास्त्र के अध्ययनमे इस सम्पग्मिध्यात्य प्रकृतिके रस में विशेष मिध्यात्वका परिणमन होता है । कुशाखों के अध्ययनसे उस जीवको भट्टना न हो जाती है और मिध्यात्वकी दृढ़ना घढ जाती है । संसारमें मिथ्यात्वको वृद्धिका सबसे प्रधान कारण है नो एक कुशास्त्रों का अध्ययन है । इससे धीरे धीरे बुडिमें विपरि
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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