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________________ ___ जोव और कर्म-विचार। [१५९ ही छोड़ सकता है धेशके मूल समान वक्रता इसमें नहीं रहती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानमाया कषायमें । इतनी तीन माया नहीं होती है। जो आत्माके परिणामोंमे सरलताका भाव जाग्रत ही नहीं होने दे। इस मायासे परिणमोंमें इतनी विशुद्धताका नाश नहीं होता है जिससे वह जडपदार्थको ही आत्मा समझकर वास्तविकरूपसे आत्माको समझे ही नहीं और जब शरीरआदिको पुष्टि या विषयवासनाको ही मात्मसुख मानकर मायाचारकी धारण करे। अप्रत्याख्यान मायावार जीवोंको कलुषित तो करता है । व्रतादिकोंको धारण करने में कमी कमी अपनी कायरता प्रदर्शित. कर देता है। और लोकव्यवहारमें मायाचारसे अपना काम भी निकाल लेता है। तो भी नीतिके घातको वह योग्य नहीं समझता है। भावांतरमें जाने लायक आत्माके परिणाममें मायावारके भावनहीं रखता है अप्रत्याख्यान लोभ-जिस फपायके उदयसे कजलके रंगके समान मात्माके परिणामांमें लोभकषायको नापति हो वह अप्रत्याख्यानलोम-कषाय है। फजलका रग, कृमिरंगके समान गादा नहीं है अधिक समय पर्यत असर नहीं रखता है कुछ समय बाद निकल जाता है। ठीक इसी प्रकार अप्रत्याख्यान लोभ आत्माके परिणामोंको ऐसा नही रंगता है जिससे कि जडपदार्थमें आत्माका लोभ या स्वात्मरूप परिणाम अथवा ऐसा रागभाव हो। किंतु धनादिक संपत्तिको प्राप्तकर अपने जीवन साधनको निरावाध बनानेका प्रयत्न करता
SR No.010387
Book TitleJiva aur Karmvichar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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